जल उठ रहीं आग की लपट

June 1971

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प्रजा ऋषि के समक्ष हाथ जोड़े खड़ी आरोग्य और दीर्घजीवन के लिये। ऋषि विज्ञानवेत्ता थे प्रत्येक पदार्थ की तात्विक समीक्षा करने की महान् आध्यात्मिक सामर्थ्य उनमें थी सो प्रजा द्वारा मार्गदर्शन की याचना उचित ही थी। महर्षि ने बताया--

“सर्वेषाम् भेषजम अप्सुमें”। “जीवनाँ जीवनम् जीयोजगत्”॥

है मनुष्यों ! जल प्राणियों का प्राण है मैंने तुम्हारे लिये सभी प्रकार की औषधियां जल में सुरक्षित रखी है।

आपो इद्वाँ उभेषजोरायो अभीव चातकी। आपस सर्वस्य भेषजो स्तास्तु कृष्णन्तु भेषजः॥

यह जल औषधि है रोगों को नाश करने वाला उनका शत्रु है। यह तुम्हारे सभी रोग दूर करेगा।” “अप्स्वन्तर यमृतमप्नु” (अथर्ववेद) अधिक क्या कहना यह जल तो अतृप्त है।

जल के महत्व को भारत ही नहीं विश्व के सभी देश और वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। फिनलैण्ड में हजारों वर्ष से शनिवार के दिन सामूहिक स्नान करने की प्रथा है। बड़े घरों में लोग गृह-वाटिकाओं में तालाब रखते हैं। जर्मनी में कटि स्नान और जल-चिकित्सा को व्यापक महत्व दिया गया है। वहां के वैज्ञानिक ब्राण्ड लीभर मिस्टर तथा जीम सीन ने जल-चिकित्सा पर शोधकों और उसे बहुत लाभकारी बताया जिससे वहां जल-चिकित्सा का सर्वत्र प्रसार हुआ। कुछ तो गांव के गांव ऐसे है जहां घर-घर जल-चिकित्सा होती है। अमरीका के फिलाडेलिफिया, न्यूयार्क वर्जीनिया, पेन्सिलवेनिया में जल चिकित्सा का बहुत प्रसार हुआ है। वियना के वैज्ञानिक विन्टरनीज ने अपने यहां जल-चिकित्सा के क्लास चलाये। रोम, जापान, चैकोस्लोवाकिया में प्राकृतिक झरनों आदि में स्नान का प्रचलन है वहां स्नान पर वैज्ञानिक खोजें हुई है। भारतवर्ष में तीर्थों के महत्व के साथ वहां स्नान का महत्व अनिवार्य रूप से जुड़ा है। गंगाजी का जल तो अमृत की तरह पूज्य माना गया है। यह सब देखते हुये प्राणियों का प्राण कहा जाये तो उसमें जरा भी अत्युक्ति नहीं। आयुर्वेद का कथन है--प्रातःकाल सोकर उठते ही एक गिलास शीतल जल पीने वाला सदैव नीरोग रहता है, मस्तिष्क शीतल, पेट का पाचन संस्थान मजबूत, आंखों में चमक रहती है शुद्ध जल मनुष्य का जीवन है बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता है।

खेद है कि जल को इतना अधिक महत्व देने और उसकी शुद्धता को अनिवार्य मानने वाली मनुष्य जाति ही आज उसे गंदा करके स्वयं भी नष्ट होने, बीमार और चिर-रोगी होने के सरंजाम उठा रही है। अमरीका के प्रसिद्ध विचारक श्री आर्थर गाडफ्रे एक संस्मरण में लिखते है-- मैं उन दिनों हैसब्राडक हाइट्स पढ़ने जाता था उन दिनों न्यूजर्सी में सैडिल नदी के तट पर पहला कारखाना लगा था, कारखाने की कीचड़ बदबू इस बुरी तरह से उस पर गिरती थी कि हम लोग स्नान नहीं कर सकते थे। स्वार्थी आरे पेटार्थी लोगों ने हरे निवेदन को नहीं सुना था और अब तो पैसाइक, हैकेनसैक खाड़ी, हडसन सारी नदियां नरक कुण्ड बन गई है सारा जल दूषित हो गया। मनुष्य जाति जल को दूषित कर आत्मघात की तरह स्वयं रोगी बनने जा रही है इसे उसकी भूल नहीं मूर्खता ही कहा जा सकता है।

वायु प्रदूषण के समान आज जल प्रदूषण भी संसार के सामने एक महंगी समस्या बन गया है। अधिकाँश शहर नदियों के तट पर बसे होते हैं भारी उद्योग शहरों में ही होते हैं। कनाडा आदि विकसित देशों में तो हाइपीरियन जैसे टैंक भी बनाये गये है जो शहरों का मल और गन्दगी को साफ कर देते हैं केवल शुद्ध किया हुआ जल ही नदियों में गिरने देते हैं किन्तु भारतवर्ष में तो शहरों के लाखों लोगों का मल-मूत्र भी नदियों में ही गिराया जाता है। गंगा आदि काल से हमारी संस्कृति का अंग वर्ष की 12 अमावस्याओं के 12 स्नान तो निश्चित ही है पर्व और त्यौहार अलग जिनमें आज भी करोड़ों लोग स्नान करते और बर्तनों में जल भर ले जाते हैं, आज अधिकाँश मल-मूत्र का प्रवाह हो गई है। ऋषिकेश के एण्टी बापोटिक कारखाने से लेकर कलकत्ते तक उसमें कितना मैला, कूड़ा कचरा गिरता है उसकी याद करने मात्र से जी सिहर उठता है और लगता है आज सचमुच ही गन्दगी की दृष्टि से दुनिया नकर हो गई है।

“शो डाउन फॉर वाटर” नामक जल प्रदूषण (वाटर पोलूजन) पुस्तिका में अमेरिका ने इस समस्या को अत्यन्त जटिल, परेशान करने वाली और वर्तमान--अस्त्र-शस्त्रों से भी भयंकर बताया है और लिखा है कि उस समस्या के हल के लिये किये जा रहे प्रयत्नों से कई गुना वह और भी जटिल होती जा रही है। अमेरिका ने 1965 और 1966 में ऐसे कानून भी बनाये है पर विज्ञान और भारी उद्योगोँ के विकास के पागलपन के आगे लाखों को मारने और करोड़ों को बीमार बनाने वाली इस मामूली ( ? ) सी समस्या पर कौन ध्यान दे कौन सोचे ?

इंग्लैण्ड में साबुन, फिनाईल, डी0डी0टी0 और केवल कीटाणु नाशक औषधियों के निर्माण के कारण 45 करोड़ गैलन पानी दूषित कर दिया जाता है यही पानी बाद में घरों में पहुंचता है तो उसमें से झाग उठने लगते हैं उसे देखकर कोई भी अनुमान कर सकता है कि यह जल था या केवल मात्र गन्दगी बह कर आई। अमेरिका में इंग्लैण्ड से चार गुना अधिक जल नागरिक प्रयोग में आता है। कम ज्यादा संसार के सभी देश ऐसी गन्दगी निकालते हैं यह सारी ही समुद्र में जाती है। अमेरिका अपने यहां की रद्दी समुद्र में झोंक रहा है, अभी कुछ ही दिन पूर्व उसने 1440 प्राण घातक नर्व गैसों के रैकेट भर-भर फ्लोरिडा के पास समुद्र में फेंके है। यह दूषण जहां जल का आक्सीजन नष्ट करता है वहां समुद्र का सन्तुलन बनाये रखने वाले जीव-जन्तुओं और पौधों को भी मारता है उससे समुद्र की शोभा नष्ट होने की हानि उतनी गम्भीर नहीं जितनी उसके अमर्यादित होने की अगले दिनों समुद्र के भीषण उत्पात मनुष्य जाति को तंग कर सकते हैं। गन्दगी मिले जल की भाप भी दूषित होगी, मेघ दूषित होंगे तब फिर जो वर्षा होगी वह रोगों की वर्षा होगी उसका प्रभाव सीधे भी मनुष्य जाति के स्वास्थ्य पर पड़ेगा और फसलों के द्वारा भी जल (वरुण) हमारा देवता है और देवता को शुद्ध करके नहीं उसे सन्तुष्ट रख कर ही मनुष्य अपना हित प्राप्त कर सकता है। आवश्यक है कि विज्ञान की, भारी उद्योगों की ओर से हटा जाये। शहरों की ओर भागने की दौड़ को समाप्त कर लोग पहाड़ों और जंगलों में सीधा-साधा मेहनत कश जीवन जीने का आनन्द लेना सीखें। क्या फायदा यदि बीमार होकर शहरों में रहे और जीवन भर रोग झोंक से पिटते रहे।

जल-प्रदूषण के कुछ भयंकर दुष्परिणाम-टोरी केन्यन नामक एक तेल वाहक समुद्री जहाज ब्रिटेन के पास से गुजर रहा था 18 मार्च 1967 के दिन जहाज दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उसका 30000 हजार टन तेल समुद्र में गिर गया और देखते-देखते 18 मील क्षेत्र में फैल गया। हवा के झोंकों और समुद्री तरंगों के कारण शीघ्र ही वह 100 वर्ग मील क्षेत्र को प्रभावित करने लगा। वही दूषित जल कुछ दिन बाद फ्राँस के तट तक जा पहुंचा। अब मौतें प्रारम्भ होती है अप्रैल 1970 में अलास्का तट (अमेरिका) के पास जल प्रदूषण से हजारों पक्षी, समुद्री सिंह और ह्वेल मछलियां मरी पाई गई। 400 सीलों का झुण्ड इस तेल-प्रदूषण की चपेट में आकर जान गंवा बैठा। हजारों समुद्री वृक्ष नष्ट हो गये।

दिल्ली में दस से भी अधिक नाले यमुना नदी में गिरते हैं कुछ दिन पूर्व वजीराबाद और ओखला के बीच हजारों मछलियां इस गन्दगी से मरी पाई गई। इन मछलियों का व्यावसायिक मूल्य 6 लाख रुपया आँका गया। 1965 में जल की समस्या गम्भीर हो गई सारी दिल्ली में पीलिया रोग ने भयंकर रूप धारण किया। सन् 1970 में भयंकर पीलिया होते होते बचा उसके बाद मॉडल टाउन के पीछे झील में हजारों मछलियां मरी पाई गई उनकी सड़न एक समस्या बन गई इसी पर गंगाजी के तट पर बसे मुँगेर (बिहार) में पेट्रोल के गंगा नदी में बह जाने के कारण गंगाजी के जल में 50 मील दूर तक आग लग गई पानी में आग की लपटें उठने लगीं लोग आश्चर्य और भय से इस काँड को देखते रहे।

यह है संक्षेप में जल प्रदूषण की कहानी जिससे मानव-जाति पर घिर रहे संकट का अनुमान होता है। मुँगेर में लगी आग लोगों को दिखाई दी इसलिये उसकी गम्भीरता को सभी ने समझा पर सच बात यह है कि लपटें भले ही दिखाई न दें भीतर-भीतर प्रदूषण की आग सारे संसार के जल में लगी हुई है यदि इसे रोकने का प्रयास न किया गया तो यही आग जो आज जीव-जन्तुओं को मार रहीं है कल सारी सृष्टि को मार कर रख सकती है। मनुष्य-जाति भी कुछ दिन पीछे लुप्त जन्तुओं की सारिणी में आ जाये तो कोई आश्चर्य नहीं इसलिये वरुण देव को और अधिक कुपित न किये जाये तो ही अच्छा है ?


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