निदक नियरे राखिये

June 1971

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

शील और साधुता में समस्त भू-मण्डल में अगस्त्यारण के सम्राट वृष मातग अद्वितीय माने जाते थे किन्तु चन्द्र कलंक की भाँति उनके सौम्य-चरित्र पर आक्षेप ही था कि वे अपनी निन्दा नहीं सुन सकते थे। यश और आत्म-प्रशंसा से प्रसन्नता होती है, आत्म बल बढ़ता है किन्तु यदि सृष्टा ने आलोचना और निन्दा का सृजन न किया होता तो संसार के लोग परिमार्जन प्रक्रिया का लाभ न ले सके होते।

“स्नान न करने से शरीर दुर्गन्ध से भर जाता है, आत्मा से कुसंस्कारों की छान बीन और उनका दोष-परिमार्जन न किया जाता रहे तो व्यक्ति दुर्गुणों की दुर्गन्ध से भर जाता है। निन्दा न होती तो अपने क्रोड़ के शिशुवत पलने वाली इन बुराइयों की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता।

वृष मातंग को यही बात बताते हुये उस दिन-उनके गुरु-आचार्य सहस्रपाद ने समझाया-तात ! यश व्यक्ति की सम्पत्ति है, यश की कामना से पुण्य करना तो धर्म है पर यश को इष्ट बनाना आसक्ति है। आसक्ति व्यक्ति को दूसरी न्यायोचित दिशा की बात सोचने नहीं देती इसलिये मनुष्य बुराई से बचने की अपेक्षा उससे घिर जाता है सो तुम जिस प्रसन्नता के साथ यश को स्वीकार करते हो उसी प्रसन्नता के साथ निन्दक कर निन्दा को भी स्वीकार करना।

आचार्य प्रवर का उपदेश शिरोधार्य कर वृष मातंग राज-प्रासाद वापस लौट आये। आते ही उन्होंने अपनी अन्तरंग परिचारिका तुषार का स्मरण किया। अन्य दासियाँ उसे बुलाने गई तो तुषार ने इनकार किया- मैं महाराज की सेवा में उपस्थित नहीं रह सकती?

सदैव प्रफुल्ल रहने वाली तुषार न केवल सम्राट वृष मातंग वरन् समस्त अन्तःपुर की प्राण थी। प्रसन्नता का, मुस्कान का कुछ आकर्षण ही ऐसा है कि ऐसे व्यक्ति के पास हर कोई बैठना चाहता है। कई दिन से तुषार परिलक्षित नहीं हुई थी महाराज एक अव्यक्त प्रसन्नता अनुभव किया करते, तुषार के न रहने से वह न जाने कहाँ विलुप्त हो चली थी सो वे स्वयं ही तुषार के कक्ष तक गये और तुषार के न उपस्थित होने का कारण पूछा? महाराज! जानती हूं सत्य कई बार कटु होता है किन्तु उसे व्यक्त न करना दुःखदायक भी- आप नहीं जानते आपके शरीर से दुर्गन्ध आती है सेविका तो हूं पर अपनी छोटी सी स्थिति में भी ऐसा कौन है जो प्रसन्नता न चाहता हो आपके समीप रहकर यदि मुझे मानसिक क्लेश हो तो मैं अवकाश क्यों न ले लूँ ऐसी सेवा से?

“मेरे शरीर से दुर्गन्ध”- वृष मातंग को क्रोध एक क्षण के लिए पारे की तरह उबल पड़ा-इस तुच्छ सी परिचारिका का यह साहस कि वह मेरे सम्मुख मेरी आलोचना करे मेरी बुराई करे तभी उन्हें आचार्य प्रवर के वह शब्द याद आये-तात ! निन्दा को भी यश के समान सुनने और सहन करने वाला योगी होता है- महाराज क्रोध को पी गये उसे व्यक्त नहीं होने दिया।

इससे महाराज को वस्तु स्थिति की परख का अवसर मिला-उन्होंने प्रधान भिषगाचार्य धेनुवृत को बुलाकर शरीर की परिक्षा कराई तो पता चला उनके दांतों में रोग उत्पन्न हो गया है। उसी के कारण दुर्गन्ध उत्पन्न होती है। राज-वैद्य ने यह भी बताया कि यदि कुछ दिन और ऐसे ही रहने दिया जाता तो आप दाँतों से रहित हो जाते।

महाराज को जितनी प्रसन्नता अपने शरीर की रक्षा हो जाने की हुई उससे भी अधिक इस बात की कि वे एक ऐसा पाठ सीख गये जिसकी ओर से वे अब तक विमुख थे। ‘निन्दक नियरे राखिये’ का पाठ आज ही उन्हें अच्छी तरह समझ में आया।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118