श्रीकृष्ण भगवान ने कौरवों पाँडवों को मिलाने के लिये दुर्योधन को सभा में जाकर समझाया, किन्तु मदान्ध दुर्योधन ने नहीं माना। उलटे वह अपने पराक्रम का वर्णन करता हुआ पाँडवों की निंदा करने लगा। अन्त में वह भगवान को कैद करने के लिये भी तैयार हो गया। उस मूर्ख को पता नहीं था कि जिन श्रीकृष्ण ने जन्म के दिन ही कंस के कारागार को तोड़ डाला था, वे उसके बन्धन में कैसे आयेंगे? भगवान ने अपना भयंकर रूप दिखाकर दुष्टों को डरा दिया। दुर्योधन के महल में भगवान के लिये भाँति-भाँति के पकवान बने थे। किन्तु जब एक भिखारी भी अभिमानी मनुष्य का अन्न नहीं लेता तो अखिल ब्रह्माण्ड के नायक श्रीकृष्ण उस पापी का अन्न कैसे खाते? उन्होंने दुर्योधन के पकवान त्यागकर विदुर की भाजी खाई। जब वे वह साग खा रहे थे, तब उन्होंने कहा-’रुक्मिणी आदि के हाथों बनी रसोई नित्य खाता हूँ, पर ऐसी तृप्ति कभी नहीं हुई।’ यह है प्रेम का प्रताप।