सुख शान्ति के स्वर्ण सूत्र

June 1971

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अशान्ति है, दुःख है, असन्तोष है तो निश्चय ही हमारी जीवन विधि में किसी प्रकार की त्रुटियां तथा कमियां समाविष्ट है जिसके कारण वह हर्ष, वह उल्लास, वह आनन्द और वह शान्ति प्राप्त नहीं होती जो मानव जीवन जैसे महान् अवसर में प्राप्त होनी चाहिये। इसके विपरीत आये दिन हम सबकी चिन्ताएं, विषमताएं और वितृष्णाएं बढ़ती जा रही है। जीवन इतना अशान्त और क्लेश पूर्ण बनता जा रहा है कि जीवन एक भार और संसार एक बंदीगृह सा अनुभव होने लगा है। यह सब अशान्तियां और चिन्ताएं इस बात का प्रमाण है कि निश्चय ही हम त्रुटियों से भरा एक अनुपयुक्त जीवन जी रहे है।

किन्तु, केवल यह जान लेना भर ही पर्याप्त नहीं है कि हम एक अनुपयुक्त जीवन चलायें जा रहे है। इस सूचना का महत्व तो तब है जब हम अपनी जीवन विधि को बदलें और उसे अनुपयुक्त गति विरत कर उपयुक्त गति में डालें। मूर्ख और अज्ञानियों की जहां एक किस्म यह होती है कि वे अपनी भूलों, त्रुटियों तथा कमियों को समझ नहीं पाते। वहां एक इससे भी बढ़कर नासमझ वे लोग होते हैं जो अपनी न्यूनताएं जान लेने पर भी उन्हें दूर करने की ओर से उदासीन बने रहते हैं। जो कुछ जैसा चला जा रह है चलते देते हैं। इस प्रकार का प्रमाद मनुष्य जैसे विवेकशील प्राणी को शोभा नहीं देता। यह प्रमाद तो पशुओं की विरासत है कि वे जिस स्थान पर जिस गतिविधि में पड़ गये सो पड़ गये। उसको बदलने की ओर ध्यान नहीं देते फिर चाहे वह उपयुक्त हो अथवा अनुपयुक्त। बेचारे पशुओं के लिए तो एक विवशता है। वे न किसी बात पर विचार कर सकते हैं और न योजनापूर्वक कोई परिवर्तन ला सकते हैं। जिस जीवन विधि में उन्हें पड़ना पड़ता है उसी के अनुरूप अपने को अभ्यस्त बना लेते हैं और एक जड़ सहन शीलता के साथ उसे सहते चले जाते हैं। इस प्राकृत विवशता के कारण वे क्षमा किए जा सकते हैं। किन्तु मनुष्य, जो परम पुनीत, सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा का अंश है, इस प्रकार के पाशविक प्रमाद के लिए क्षमा नहीं किया जा सकता। वह अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप शिव और सुन्दर जीवन जीने के लिए बाध्य है। जो इस प्रतिबंध का सम्मान नहीं करता वह विद्रोही ही नहीं नास्तिक तक कहा जा सकता है। अस्तु, इस कलंक को मिटा डालने के लिए आज से ही तत्पर हो जाना चाहिए। अनुपयुक्त जीवन विधि का त्याग कर उपयुक्त जीवन-पद्धति की ओर बढ़ चलना चाहिए। जिससे सामान्य जीवन की समस्याओं का समाधान होगा ही साथ ही आत्म-कल्याण की संराधक आध्यात्मिक दिशा में भी प्रगति हो। और इस प्रकार लोक तथा परलोक दोनों की रचना एक साथ होती चले। क्योंकि परलोक सुधारने संभालने के लिए मनुष्य को अलग से कोई जीवन नहीं दिया जाता। यही एक वही जीवन है जिसमें लोक के साथ परलोक की भी खोज खबर रखनी होगी।

संसार की ऐसी कोई भी समस्या नहीं जिसका समाधान सम्भव न हो। फिर मनुष्य तो विशेष तौर पर शक्तियों का स्वामी है। यदि उसके पास लगन, निष्ठा और प्रयत्न की कमी न हो तो उसके लिए सब कुछ सरल सम्भव है। जीवन को अनुपयुक्त से उपयुक्त बनाने के भी अनेक उपाय है। उनमें से चार बातें ऐसी है जिनका जीवन में समावेश कर लेने से समस्या का बहुत कुछ समाधान हो सकता है। इन चार बातों को जीवन निर्माण के चार सोपान अथवा आधार भी कहा जा सकता है। जीवन निर्माण के चार सोपान है-सभी प्रकार की तुच्छताओं का त्याग-मिथ्यात्व को छोड़कर सरलता का ग्रहण-बन्धनों से मुक्त होने का साहस और जीवन में अध्यात्मवाद का समावेश करना। निश्चित है यदि मनुष्य जीवन में इन चार बातों को धारण करले ते उसका अनुपयुक्त जीवन उपयुक्त बन जायेगा। उसके जीवन से अशान्ति तथा असन्तोष का तिरोधान हो जायेगा और उसके स्थान पर आनन्द और उल्लास, शान्ति और सन्तोष की वृद्धि होने लगेगी।

तुच्छता मानव-जीवन की बहुत बड़ी कमी है। यह एक ऐसा दोष है जो मनुष्य को न केवल संकीर्ण बल्कि कृपण और पतित भी बना देता है। तुच्छता मनुष्य को उदारता, दान, दया, प्रेम अथवा करुण की सत्प्रवृत्तियों से वंचित कर देती है। स्वार्थ और केवल स्वार्थ ही उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है। तुच्छता से प्रोत्साहित दरिद्रता की प्रवृत्ति उसे भाव में भी अभाव और सम्पन्नता में भी विपन्नता का अनुभव कराती रहती है। इसलिये उसकी भौतिक वितृष्णा, इस सीमा तक बढ़ जाती है कि संग्रह करने में फिर वह उचित, अनुचित, कर्त्तव्य, अकर्तव्य अपने पराये, शोषण-पोषण आदि किसी बात का ध्यान नहीं रखता। उसको शीतलता का मानव सुलभ गुण छोड़ कर चला जाता है। अपने लाभ और लोभ के समक्ष उसे सारे आदर्श सारी मर्यादाएं और नीतियां महत्व हीन लगने लगती है। इस प्रकार तुच्छताएं प्रताड़ित मनुष्य के जीवन में शोक-सन्ताप और अशान्ति, असन्तोष के सिवाय किस आनन्द को अवसर मिल सकता है ?

तुच्छता मानव जीवन का बहुत घृणित दोष है। इसका तुरन्त त्याग कर देना चाहिए। उदारता और महानता की वृत्ति मनुष्य के लिए दो अलंकार माने गये है। उन्हें धारण करना ही उसकी शोभा है। उदारता का गुण अपने दूसरे सजातीय गुण त्याग को प्रोत्साहित करता है। त्याग को किसी तपस्या से कम महत्व नहीं दिया गया है। त्याग भाव से संग्रह करने वाला सत्पुरुष भूलकर भी ऐसे साधन तथा उपाय प्रयोग नहीं करता जो नीति अथवा आदर्श के विरुद्ध हों।वह तो नीति एवं न्याय पूर्वक कमाये गये धन धान्य में ही सुखी तथा सन्तुष्ट रहता है। त्यागी पुरुष के पास वितृष्णाएँ उसी प्रकार नहीं आ पाती जैसे शिखा के निकट भयंकर नहीं आ पाता। उदार पुरुष जो कुछ उपार्जित करता है वह केवल अपने स्वार्थ में ही नहीं लगाता। उसका ध्यान परमार्थ पर भी रहता है। वह जानता है कि लोक-परलोक की स्थिति परमार्थ पुण्य पर ही आधारित है। इस आधार को पुष्ट तथा अधिकाधिक स्थायी बनाने के लिए वह दान देता, अपनी उपलब्धियों का उचित भाग दूसरों की सहायता में लगता, परोपकार करता और धर्म की रक्षा और वृद्धि के लिए जो कुछ बन पड़ता है करने में कृपणता व संकोच नहीं करता। इस प्रकार पारमार्थिक त्याग से आभूषित सत्पुरुष में जब ‘सर्व भूत हितरताँ’-का भाव लेकर दया, करुणा तथा प्रेम का स्त्रोत जाग पड़ता है तब संसार का ऐसा कौन सा खेद, दुःख अथवा अशान्ति हो सकती है जो उसे छू भी सके। तुच्छता से मुक्त उदार पुरुष का ‘आनन्द और मंगल’ पर जन्म तथा कर्म सिद्ध-दोनों प्रकार का अधिकार होता है। जो निश्चय ही उसे मिलता है। इस निसर्ग नीति में अपवाद की सम्भावना कदापि सम्भव नहीं है।

मिथ्यात्व का मारा व्यक्ति अपने जीवन में सुख शान्ति की एक नन्ही बूंद के लिए भी तरसता रहता है। रहन-सहन, खान-पान, आचार-व्यवहार अथवा पूजा-पाठ आदि जिस भी क्रिया-प्रक्रिया में मिथ्यात्व का दोष लग जायेगा वही पाप की तरह त्रास दायिनी बन जाएगी। मिथ्या रहन-सहन वाले लोग बहुधा प्रसादी आलसी तथा प्रदर्शनवादी होते हैं। वे यह दिखलाने का प्रयत्न करते हैं कि वे इतने भाग्यवान है कि कम से कम काम करके भी अधिक से अधिक आराम और शान-शौकत से रहते हैं। उनको विचार रहता है कि उनका प्रदर्शन पूर्ण रहन-सहन देखकर लोग शायद उन्हें अमीर समझ कर प्रभावित होंगे। उनका मान-सम्मान करेंगे। किन्तु सच्ची बात यह है कि कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति ऐसे मिथ्यावादियों से घृणा किये बिना नहीं रहता। जहां, इस कर्मप्रधान संसार में परिश्रम तथा पुरुषार्थ का महत्व है वहां बिना कुछ किये आराम का जीवन जीने वाले निश्चित ही चोर होते हैं, फिर चाहे वे कामचोर हों, प्रथम श्रमचोर हों अथवा अधिकार चोर हो। चोर चोर ही है किसी वस्तु का ही क्यों न हो। वह सच्चे समाज और सत्पुरुषों के बीच आदर का पात्र नहीं बन सकता। उसको तिरस्कार ही प्राप्त होगा जो उसके जीवन को अशान्त तथा सन्ताप युक्त बनाकर ही छोड़ता है।

खान-पान का मिथ्यात्व स्वास्थ्य की ही होली रच देता है। रोगी तथा अशक्त बनाकर सदा सर्वदा के लिए सन्ताप के हाथों में सौंप देता है। इसी प्रकार आचार-विचार का मिथ्यात्व भी मनुष्य को अपमान तथा अवहेलना का ही अधिकारी बनाता है। बाहर कुछ और भीतर कुछ और मन का भाव दुष्ट और व्यवहार सरल, बाहर परमार्थ की बात और भीतर स्वार्थ की विभीषिका-ऐसी मिथ्या व्यवहार तथा आचार वाला व्यक्ति अपनी खैरियत कब तक मनाएगा। एक दिन सत्य उभरेगा, झूँठ का भंडा फूटेगा, और तब उस मिथ्यावादी की क्या दशा होगी या होती है इस ते कोई भुक्त-भोगी ही जान सकता है।

उपासना का मिथ्यात्व न केवल लोक बल्कि परलोक को भी नष्ट कर देता है। जो मनुष्य मनुष्यों से छल करता है उसको ही जब सिर छिपाने का स्थान नहीं मिलता तो भला उस मनुष्य की लोक-परलोक में कौन रक्षा कर सकता है जो देवताओं के साथ छल करता है। निकृष्ट कामनाओं को साथ लेकर उपासना करना देवता से छल करना है अथवा श्रद्धा, आस्था या भक्ति न होने पर भी जो किसी स्वार्थ सिद्धि के लिए वैसा करता है वह भी देवताओं से छल करता है। अथवा किसी साधना से देव कृपा प्राप्त कर लेने पर उसका उपयोग परमार्थ में न करके स्वार्थ में करने वाला अथवा उसके प्रभाव से दूसरों को भयभीत या आतंकित करने वाला देवताओं से छल नहीं करता बल्कि उन दिव्य शक्तियों के साथ विश्वासघात करता है। ऐसा विश्वासघात किसी मूल्य पर भो क्षमा नहीं किया जाता है। वह दिन रात आत्म-जन्य ताप से तो जलता ही रहता है साथ ही रौरव जैसे नरक में उसके लिए स्थान की व्यवस्था होती रहती है। ऐसे मिथ्यावादी लोगों का सुख-शान्ति के लिए तरसते रहना स्वाभाविक ही है। अस्तु जीवन में सुख-शान्ति पाने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह सच्चा और सरल जीवन अपनायें।

बन्धन, बन्ध नहीं है वे किसी प्रकार के भी क्यों न हों सदा दुःखदायी ही होते हैं। शारीरिक अथवा मानसिक किसी प्रकार के बन्धनों में बंधा व्यक्ति कभी भी सुख शान्ति नहीं पा सकता। इसलिये मनुष्य को चाहिये, यदि वह जीवन में सुख-शान्ति के दर्शन करना चाहता है तो हर प्रकार के उन बन्धनों को तोड़कर फेंक दे जो अनुचित एवं अनुपयुक्त हों। सड़ी-गली, रूढ़ियां, अर्थहीन रीति-रिवाज, अन्ध परम्परायें तथा मूढ़-विश्वास-वे चाहे सामाजिक हों अथवा धार्मिक किसी प्रकार उपयुक्त नहीं है। समाज की ताड़ना, अज्ञान का भय और संस्कारों का संघर्ष सहन करके भी इस प्रकार के अनुचित बन्धनों को त्याग कर मुक्त हो जाना चाहिए। इन बाह्य बन्धनों के साथ-साथ व्यसनों, वासनाओं तथा तृष्णाओं के बन्धन भी नहीं ही रखने चाहिए जो मनुष्य जितना अधिक व्यसनों, वासनाओं तथा तृष्णाओं से रहित होता है वह उतना ही अधिक शान्त तथा सुखी रहता है। व्यसनों अथवा वासनाओं में आनन्द की कल्पना अज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं है। इस अज्ञान को त्याग कर व्यसनों तथा वासनाओं की हानियां समझनी और उनका त्याग कर ही देना चाहिए। व्यसनों तथा वासनाओं का त्याग सुख-शान्ति का सहज संराधक माना गया है।

सुख-शान्ति के यह चार स्तम्भ तब तक अपूर्ण तथा निर्बल ही रहेंगे जब तक मुख्य आधार आध्यात्मवाद का जीवन में समावेश नहीं किया जाएगा। एक तो अध्यात्मवादी स्वभाव से ही प्रसन्न चेता होता है। ज्ञान तथा विवेक की प्रबलता और परमात्मा में अटल विश्वास और उसके न्याय में अखण्ड आस्था रखने से संसार का कोई भी शोक-सन्ताप उसे प्रभावित नहीं कर पाता। वह सहज भाव से सुखी तथा सन्तुष्ट रहता है। पुनः जीवन में अध्यात्मवाद का आश्रय लेने से मनुष्य की तुच्छता, मिथ्यात्व तथा बन्धनों के प्रति आप से आप विरक्ति होने लगती है। इन तीन दोषों को दूर करने में अधिक संघर्ष नहीं करना पड़ता फिर भी यदि मनुष्य ने उपर्युक्त तीनों दोषों को दूर कर भी लिया किन्तु आध्यात्मवाद की उपेक्षा करदी तो वह एकबार शरीर से भले ही सुखी हो जाये पर आत्मा से दुःखी ही बना रहेगा। शारीरिक सुख लौकिक तथा क्षण भंगुर है। सच्चा सुख आत्मिक सुख ही है वह भक्ष्य भी होता है और उसका विस्तार लोक से परलोक तक जाता है। अस्तु सच्चे तथा भक्ष्य सुख शान्ति को पाने के लिए जीवन के अध्यात्मवाद का समावेश बहुत महत्व रखता है। इस प्रकार यदि मनुष्य जीवन सुधार के उपरोक्त चार आधारों को स्थापित कर अपनी गतिविधि का संचालन करे तो उसका जीवन अनुपयुक्त बन जाये। उसकी सारी समस्याओं का समाधान होता चले और उसके लिए तब सुख-शान्ति की जरा भी कमी न रह जाये।


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