सेठ का अभिमान

June 1971

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किसी धनी सेठ ने एक संन्यासी को भोजन कराने के लिए बुलाया। अपनी समृद्धि के गुमान में सेठ उनके आतिथ्य आदि तो भूल गया और कहने लगा- देखिये महाराज ! सामने के उस दरवाजे से लेकर उस बंगले तक हमारे मकान की हद है। बगल में ही अपनी मिल है। शाम को बाग देखने आइयेगा। उसे मैंने अभी तैयार कराया है। बम्बई में मेरी धर्मशाला भी है। तुम्हारे जैसे गरीब साधु भूखों न मर जाय, इसलिए एक अन्न क्षेत्र भी खोल देने का विचार है। लेकिन यह विचार भविष्य के लिए है। अभी तो लड़कों के साथ विलायत जाना है। क्योंकि सुधरे हुए देशों की रीति-भांति जितनी जानी जाय, उतना ही अच्छा। अतएव यह काम पहले कर डालने की इच्छा है। कदाचित् अन्न क्षेत्र न खुले तो भी चल सकता है। क्योंकि तुम्हारे जैसे मारे-मारे फिरने वालों के लिए आध सेर खिचड़ी दी ही जाती है, वह अन्न क्षेत्र ही है न ?

संन्यासी ने सोचा कि इसका अभिमान छुड़ा देना चाहिये। अतएव उन्होंने दीवार पर टँगे नक्शे को दिखाकर पूछा-’सेठजी ! दुनिया के नक्शे में हिन्दुस्तान कहाँ है ? सेठ ने एक निशान पर उँगली रखी। संन्यासी फिर पूछा-’तो इसमें बम्बई कहाँ है ? सेठ ने एक छोटे से निशान को दिखाकर बताया। संन्यासी बोला-’बस, यही बम्बई है। अच्छा, अब यह बताओ कि इस बम्बई में तुम्हारे महल, बँगले और इनमें रहने वाले कुटुम्बी कहाँ है ? सेठ ने कहा-’यह बातें सारी पृथ्वी के नक्शे में भला कहाँ आ सकती है।’

संन्यासी ने कहा-’जब पृथ्वी के नक्शे में तुम्हारी समृद्धि का नाम-निशान भी नहीं है, तब उसका अभिमान किस वास्ते करते हो ?’ सेठ संन्यासी की बात समझ गया और अभिमान छोड़कर पुण्य कार्य करने लगा।


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