बैडूर्य कमी कांच नहीं हो सकता

June 1971

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आमोक्ष बहुत समय के बाद मिले थे। आचार्य भद्रबाहु के वह कभी सहपाठी रह चुके थे। सो उन्होंने उनको स्वागत राष्ट्राध्यक्ष के रूप में नहीं मित्र के रूप में किया। आमोक्ष ने स्वयं भी समस्त राजकीय प्रतिबन्ध तोड़कर आचार्य भद्रबाहु से भेंट की। बहुत देर तक दोनों में एकाँत वार्ता होती रही।

आमोक्ष ने कहा-तात ! गुरुकुल में पढ़ाया गया ब्रह्मज्ञान तो भूल ही गये। आप नहीं जानते परिस्थितियां मनुष्य को क्या से क्या कर सकती है राज्य का सुख वैभव तो योगियों को भी भ्रष्ट कर सकता है फिर हमारे लिए ते कहना ही क्या ? आप तो अभी भी आत्म-विकास की साधनाओं में रत है और एक हम हैं जो सारा धर्म-कर्म ही छोड़ बैठे विवशता को क्या कहा जाये।

आचार्य बोले-यह विवशता नहीं मनुष्य की भूल है तात ! यदि तुमने आत्म हित का ध्यान रखा होता तो परिस्थितियां कैसी भी हो कुछ नहीं बिगाड़ पातीं। आमोक्ष बोले-आर्य ! मेरे स्थान पर आप होते तो आपकी स्थिति होती ? भद्रबाहु ने हंसकर कहा- पि अच्छमणो, वेरुलिओ कायमणि ओमीसे। उवेइ कायभावं, पाहन्न गुणेण नियएण॥ वैडूर्य रत्न है ते उसे कांच की मणियों समय तक मिलाकर क्यों न रखो वह रत्न ही रहेगा कभी कांच नहीं के प्रति अटूट निष्ठा वाले का जीवन से हुई समझ कर आमोक्ष मन नहीं समय वे कुछ न बोल। प्रसंग बदल जधानी लौट आये। कुछ दिन पीछे भद्र पुरुषों के साथ वे आचार्य देना न भूले । आचार्य भद्रबाहु के लिये निवास व्यवस्था राजोद्यान के एकाँत अतिथि भवन में की गई। आमोद-प्रमोद के समस्त साधनों के अतिरिक्त वहां ऐसी कोई भी व्यवस्था न छोड़ी गई जो कामोद्दीपन में सहायक न होती हो। रत्न जटित सुकोमल शैय्या, सामंत शाही परिधान मदिर सुवास नृत्यांगनाओं के चित्र, सब कुछ था वहां रोग-उत्पन्न करने वाला। दृष्टि मात्र से काम-वासना भड़काने वाली सुन्दरियां परिचारिकायें नियुक्त हुई। आचार्य भद्रबाहु के आने पर उन्हें वहीं ठहराया गया।

नगरोत्सव एक सप्ताह चला, किन्तु भद्रबाहु को आकर्षित करने का हर सम्भव यत्न किया किन्तु वे अपने प्रयत्न में असफल रहीं। उत्सव एक पूरा ही पखवाड़ा बढ़ा दिया गया। सुन्दरियां जिस तरह पतिंगा लौ पर टूटता है, उन्मत्त होकर आचार्य भद्रबाहु को विचलित करने का प्रयत्न करती रहीं पर उन योगी के अन्तःकरण में दृष्टि दोष तक भी झांक न पाया।

बसंत पर्व, राजोद्यान की सुषमा सुन्दरियों के नृत्य गीत एक पल को भी उस वातावरण में कोई पहुंच जाता तो कामासक्त हुये बिना न रहता और आचार्य भद्रबाहु तब वहाँ समाधि लगाये बैठे थे जग की सुन्दरता में उनकी निष्कलुष आत्मा ब्रह्म के सौंदर्य में विलीन हो रही थी। महाराज आमोक्ष मंत्री परिषद के साथ वहां पहुंचे और आचार्य को प्रणिपात करते हुए बोले-सत्य है तात ! दृढ़ निष्ठा हो गई है आत्मा में जिसकी संसार प्रलोभन उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते।


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