कला और संस्कृति की मूल प्रेरणा-प्रेम

June 1971

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

साइलेशिया जर्मनी का एक प्राँत है वहां का बनज्लो नाम का कस्बा चीनी बर्तनों के लिये विख्यात है प्रेम भावनाओं की तुष्टि का प्रतीक ताजमहल सारे विश्व का एक आठवां आकर्षण माना जाता है किन्तु यहां के एक निर्धन कलाकार की कलाकृति ताजमहल से भी बढ़कर आकर्षण है उसे इसने अकेले बनाया और केवल अपने हृदय के भव्य उद्गारों को मूर्त रूप देने के लिए।

सन् 1753 की बात है युवक कलाकार एक कुम्हार के पास काम किया करता। कुम्हार की कन्या के प्रति उसके हृदय में प्रेम की भावना जागृत हुई कन्या भी उसे हृदय से प्रेम करने लगी पर कुम्हार ने अपनी पुत्री का हाथ किसी निर्धन व्यक्ति के हाथ में देना अस्वीकार कर दिया। यही नहीं उसने उस युवक को जो अब तक छोटे बर्तन भी बनाना सीख नहीं पाया था अपने पास से भगा दिया।

प्रेम आन्तरिक शक्तियों के केन्द्रीकरण की सामर्थ्य का दूसरा नाम है। सामान्य अवस्था में व्यक्ति का मन संसार के प्रत्येक आकर्षण की और भागता है। योगीजन अनेक योग-क्रियाओं का लम्बे समय तक अभ्यास करते हैं तब कहीं मन को नियंत्रण में लाते हैं किन्तु प्रेम-भावना उन समस्त योगाभ्यासों से बढ़कर है वह मन की बिखरी शक्तियों को तत्काल अन्तर्मुखी बनाकर उसे रचनात्मक दिशा दे देता है कल तक जो युवक मामूली बर्तन भी नहीं बना पाता था आज उसने संकलन किया एक अद्वितीय कलाकृति निर्मित करने का। उसने एक विशालकाय बर्तन बनाया जिसमें 30 बशेल्स (1 बशेल 8 गैलन के बराबर होता है) मटर के दाने भरे जा सकते थे नगर के वृद्धजनों ने इस बर्तन को देखा ते उनका हृदय युवक की भावनाओं के प्रति करुणा से द्रवित हो उठा। लोगों ने कुम्हार को विवश किया और कहा-निर्धनता मन की होती है यदि व्यक्ति की भावनायें परिष्कृत है तो धन को बड़ी बात नहीं तुम्हें अपनी कन्या का हाथ युवक कलाकार के हाथ में दे देना चाहिये। अन्त में कुम्हार को झुकना पड़ा। बर्तन आज भी वहां रखा है उसे लाग प्यार का बर्तन कहते हैं और इसको देखकर प्रेम-भावना के प्रतीक उस कलाकार की याद करते हैं।

प्रेम अपने आप में एक आनन्ददायी भावना है वह काम और यौन-पिपासा से भिन्न प्रकार की एक ऐसी तृप्ति है जो व्यक्ति को कला और संस्कृति के विकास की प्रेरणा देती है। यह ठीक है कि प्रेम जैसे अनिर्वचनीय सुख को काम-वासना से जोड़कर मनुष्य पतित भी कम नहीं हुआ तथापि आज संसार में जो सौंदर्य, कला और संस्कृति का विकास देखने में आ रहा है उसका मूल आधार वह प्रेम ही है जो छोटों के प्रति स्नेह, समवयस्कों के प्रति मैत्री दीन-दुखियों के प्रति करुणा, उदार मना लोक-सेवियों और महा पुरुषों के प्रति श्रद्धा और परमपिता परमात्मा के प्रति भक्ति के रूप में परिलक्षित होता है। यह भावनायें न होतीं तो मनुष्य और जड़ प्रकृति में कोई अन्तर न रहा होता।

अरस्तू कहा करते थे- अगर तुम दूसरों पर प्रभाव डालना चाहते हो तो तुम्हें ऐसा व्यक्ति बनना पड़ेगा जो सफलता पूर्वक दूसरों को स्फूर्ति और उत्साह दे सकें। यह तभी सम्भव है जब तुम उसके हृदय में प्रेम का उद्वेग कर सको। बाह्य आचरण द्वार किसी को आँशिक प्रेरणायें दी जा सकती है पर अपना बनाकर निरन्तर स्फूर्ति और चैतन्यता प्रदान करने का हो तो तुम्हें प्रेमास्पद ही बनना पड़ेगा। निष्काम प्रेमी जो केवल प्रेम के बदले प्रेम ही चाहता हो और कुछ भी नहीं।

मनुष्य ही नहीं सृष्टि के हर जीव में की प्यास अदम्य होती है। अमेरिका के सैनडिगो चिड़िया घर की निर्देशिका बेले जे. वेनशली ने चिड़िया घर में अपने उन्नीस वर्ष के अनुभवों का जिक्र करते हुये लिखा है-मैंने वन्य पशुओं के जीवन में भी प्रेम की तड़प देखी, वे भी प्रेम से सीखते सिखाते है- एकबार चिड़िया घर की मादा भालू ने एक बच्चे को जन्म दिया उसका नाम टाकू रखा गया। भालू जितना क्रोधी प्रकृति का खूंखार जानवर है उससे अधिक उसमें वात्सल्य भाव देखा जा सकता है। देखने से लगता है संसाद की विषम परिस्थितियों ने उसे क्रुद्ध होने को विवश न किया होता तो भालू संसार में सबसे अधिक स्नेह और ममता वाले स्वभाव का जीव होता। मादा चार माह तक बच्चे को पेट से चिपकाये गुफा में पड़ी रही। गुफा से वह बाहर भी नहीं निकली किन्तु फिर जैसे उसे याद आया कि बच्चे के प्रति प्रेम और वात्सल्य का यह तो अर्थ नहीं कि उसके आत्म-विकास को अवरुद्ध रखा जाये। मादा मांद से बाहर आई नन्हा शिशु उसके साथ-साथ बाहर निकला। मादा सीधे तालाब के पास पहुंची और पानी में उतर कर स्नान करने लगी। उसने अपने बच्चे को भी बहुत तेरा पानी में उतरने को प्रेरित किया मुंह से तरह-तरह की आवाज वह निकाली उससे प्रतीत होता मां उसे पानी में बुला रहीं है न आने के लिए उसमें गुस्सा भी है किन्तु वह अपनी प्यार भावना को भी दबा सकने में असमर्थ है, बच्चा अपनी मां के साथ खिलवाड़ करता है कभी-कभी किनारे पहुंच कर उसके बाल पकड़ कर बाहर खींचता है मानो वह मां को पानी में नहीं रहने देना चाहता पर मां जानती है कि आरोग्य के लिये बच्चे को स्नान कराना आवश्यक है। ममतावश उसने कई बार बच्चे को छोड़ा पर उसे गुस्सा भी दिखाना पड़ा। वह नाराजी भी प्रेम का ही एक अंग थी, भगवान भी तो नाराज होकर अपनी बनाई सृष्टि अपने बच्चों को दण्ड देता है पर उसकी दण्ड प्रक्रिया भी उसके प्रेम का ही प्रतीक हैं। खराब से खराब सृष्टि को भी वह नष्ट करना चाहता उसे सुधार की आशा रहती है इसलिये वह अपनी उस साधना को न बन्द करते हुये भी अपनी सन्तान पर प्यार रखना नहीं भूलता। स्वयं भी रोता रहता है पर नाराज होकर सृष्टि को नष्ट कर डालने की बात उसके मन में कभी आई नहीं।

एक दिन मादा ने जबरदस्ती की और उसे पानी में पकड़ ही तो ले गई उसने अपने पंजों से बच्चे को अच्छी तरह धोकर स्नान कराया। कभी वह डूबने लगता तो मां उसे सतह से ऊपर उठा देती। धीरे-धीरे शिशु-संशय दूर हो गया और वह अपनी मां के साथ अच्छी तरह तैरना सीख गया।

संसार में कला और संस्कृति का कूल प्रेम भावनायें ही है। प्रेम करना सबको आना चाहिये। प्रेम के दर्शन की जानकारी हर व्यक्ति को होनी चाहिए। प्रेम तो फूल पौधे भी करते हैं। फूलों का सौंदर्य और उनके अन्तस्तल से उड़ता हुआ मधु मकरन्द प्रेम ही है। प्रकृति का हर जड़ कण खाने पाने की प्रक्रिया में संलग्न है उसी के सहारे मनुष्य सभ्यता का विकास कर सका है। प्रेम की सच्चाई और पवित्रता के द्वारा आने वाली सृष्टि को और अधिक सुन्दर बनाने का काम हर व्यक्ति को करना चाहिये।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118