अद्भुतः अश्रुतोऽहम्- “मैं अद्भुत हूँ-अश्रुत हूँ”

June 1971

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अनेक प्रकार की योग साधनायें करने के उपरान्त ब्रह्मविद्या उपनिषद् के मंत्रदृष्टा ने क्रमशः शरीर मन की स्थूल शक्तियों का वेधन करते हुये मूल चेतना के प्राप्त किया। ब्राह्मी भूत हुये ऋषि ने ब्रह्म के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए लिखा है-

केवलोऽहमं कविः कर्माध्यक्षोऽहं करणाधिपः। गुहाषोऽहम गोप्ताऽह चक्षुषष्चक्षरस्म्यहम्॥

अर्थात्- मैं (ब्रह्म) केवल हूं मुझसे परे कुछ नहीं, कवि अर्थात् भाव हूं, कर्म का निरीक्षक और फल देने वाला, जो कुछ सृष्टि में है सबका स्वामी हूं, स्वयं ही अप्रकट रहकर विलक्षण कार्य करने वाला हूं जहां मानवीय नेत्र नहीं देख सकते उस विराट को, त्रिकाल को भी देखने में मैं ही समर्थ हूं।

परमात्मा के इस तात्विक रूप का साक्षात्कार तो मंत्र-दृष्टा ऋषि, उपनिषद्कार, सन्त और साधक ही कर सके हैं, योग-मार्ग और योग-साधनाओं का अभ्यास करने से उसके विज्ञानमय स्वरूप की झाँकी होती है किन्तु नहीं है मनोबल इतना सशक्त जिनका कि वे कठिन साधनायें कर सकें उनके लिये शास्त्रकार कहता है- “विष्णोरद्भुत कर्मणाः” वह अत्यन्त अद्भुत कम करता है-उसकी सत्ता को उसकी विलक्षण रचना द्वारा जानों और उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करो।

यों आकाश में लटकते हुये तारे, गेंद की तरह उछलती हुई पृथ्वी, यहाँ के तरह-तरह के जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, वायु, समुद्र सब एक से आश्चर्य है, मनुष्य शरीर जैसी आश्चर्यों की आश्चर्य मशीन आज तक कोई भी वैज्ञानिक नहीं बना पाया। विचार तो यह रचनायें ही उसकी सत्ता का बोध कराने के लिये अपर्याप्त नहीं किन्तु जगत की रचना में प्रकृति का भी उतना ही भाग है जितना परमेश्वर का प्राकृतिक पदार्थ भी टूटते-फूटते संकुलित-विच्छिन्न होते रहते हैं उससे भी अनेक आश्चर्यजनक रचनायें बनती बिगड़ती रहती हैं उदाहरण के लिये सन् 1823 में सिनाई पर्वत के समीप वाली टोर की खाड़ी में पानी तीन बार खून के रंग का हो गया। उस समय वहाँ उपस्थित पानी के जहाज के नाविकों ने यह दृश्य देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। यह समुद्र के सामान्य प्राकृतिक नियमों का अपवाद था अतएव जाँच के लिये वैज्ञानिक विशेषज्ञ और जीव शास्त्री बुलाये गये। डार्विन तथा एरहन वर्ग ने बताया कि यह समुद्र में कुछ पौधों के कारण हुआ। वह अपने अंदर से कोई तत्व निकालते हैं जिससे “ट्राइ ट्रेशन” जैसी क्रिया होती है जल लाल रंग का हो जाता है।

सूडान के फूजी अजी प्राँत में कुछ ऐसे पौधे पाये जात है जो अक्सर सीटी बजाया करते हैं कई बार इनकी सीटियां इतनी तीव्र बजती है कि आधुनिक सभ्यता में रंगे आज के युवकों द्वारा सिनेमा हाल या किसी हाल या किसी जल से प्रदर्शन की हूटिंग (सीटी बजाना, उछलना, कूदना, विघ्न डालना) भी मात खा जाती है। वैज्ञानिकों ने खोज प्रारम्भ की तो पता चला कि इन पेड़ों के नीचे कुछ कीड़े होते हैं जो तने को भीतर ही भीतर खोखला कर देते हैं और एक इंच या उससे भी बड़ा सूराख बना देते हैं। कई बर यह सूराख डालियों तक में जाकर फूटते हैं पेड़ वंशी बन जाता है जब हवा चलती और इन छेदों से गुजरती है तो सीटी बजने की सी तेज ध्वनियां उच्चरित होती है।

दक्षिणी अफ्रीका के वेलाविस्यिया नामक स्थान में एक विचित्र पेड़ पाया जाता है जो ऊंचाई में कुल 1 फुट का होता है किन्तु उसके तने की मोटाई 25 फीट होती है 100 वर्ष तक की आयु के इस वृक्ष में कुल 3 पत्तियां ही होती है जो जन्म से होती है और सैकड़ों पतझड़ हो जाने पर भी पौधे का साथ नहीं छोड़ती ।

यह आश्चर्य प्राकृतिक है प्रकृति की चेतनता ही इस तरह के विलक्षण आश्चर्यों का कारण होती है और इस तीसरे आश्चर्य की तरह कई बार वे इतने विलक्षण भी होते हैं कि प्रकृति अर्थात् जड़ परमाणुओं में भी एक विधिवत् मस्तिष्क की मान्यता अमान्य नहीं करते बनती। तो भी इन पर विज्ञान हस्तक्षेप कर सकता है विश्लेषण कर सकता है इसलिये ऐसे आश्चर्य किसी अव्यक्त सत्ता का बोध कराने के लिये ना-काफी माने जाते हैं।

मनुष्य शरीर में जड़ और चेतन दोनों ही सत्तायें काम करती है इसलिये स्थिति साफ नहीं हो पाती। कभी प्रकृति अर्थात् शरीर का रसायन भाग बल में होता है तो भावनायें दब जाती है इस समय अन्न से बना मन और उसकी वासनायें प्रखर हो उठती है और तब मनुष्य साँसारिक हो जाता है। उस समय उसका आध्यात्मिक दैविक स्वरूप दब जाता है और इन परिस्थितियों में यह शरीर ही नारकीय यंत्रणा का आगार बन जाता है। उपनिषद्कारों ने ब्रह्म प्राप्त पुरुषों के लिये जहां इस शरीर को देव मन्दिर कहा है वहां इस तरह के उदर परायण व्यक्तियों के लिये नारद परिव्राजकोपनिषद् में कहा है-

अस्थिस्थूणं स्नायुबद्ध माँस शोणित लेपितम्। चर्मावबद्ध दुर्गन्धि पूर्ण मूत्रपुरीषयोः॥

माँसासृक्पूय विण्मूत्रस्नायुमज्जा स्थित संहतौ। देहे चेत्प्रीतिमान्मूढ़ो भविता नरकेऽपिसः॥

अर्थात्- खम्भों की तरह लगी है हड्डियां जिसमें, स्नायु-जाल से जो पूरा गया है माँस का जिस पर पलस्तर चढ़ा है और त्वचा द्वारा जिसे मढ़ दिया गया है। मल-मूत्र और दुर्गन्ध से भरा वह शरीर मूर्खों के लिये रोगों का ही घर है।

शरीर की सारी महत्ता उसके आग्नेय उसके सूक्ष्म तत्व रूप की है जिसके सम्बन्ध में ऊपर ब्रह्म-विद्या उपनिषद्कार ने बताया है उसी के विकास से मनुष्य ब्रह्म की चेतना को इस तरह प्राप्त कर सकता है जैसे रेडियो विद्युत् का सम्बन्ध संसार के किसी भी ट्राँसमीटर द्वारा प्रक्षेपित विद्युत् तरंगों के साथ जुड़ जाने वे वह रेडियो भी रेडियो स्टेशन की अनुभूति और प्रसारण वाला हो जाता है।

ईश्वरीय क्षमतायें शरीर और प्रकृति की क्षमता से बढ़ कर है क्योंकि प्रकृति और महाकूत भी ब्रह्म की ही उपज है-

“चिदानन्दोऽस्म्यहं चेताश्चिद्धनश्चिन्मयोऽस्म्यहम्”

अर्थात्-वह परमात्मा चिदानन्द, चेतना प्रदान करने वाला, चिद्घन और निरन्तर चेतना ही है।-उसकी रचनायें प्रकृति से भिन्न विलक्षण आश्चर्यों वाली होती यद्यपि व्यवस्थापिका के रूप में उसकी प्रकृति काम करती दीखती है पर वह अपनी क्षमतायें व्यक्त किये बिना भी नहीं रहता, अपनी सर्वोपरिता, अहंता और सत्ताभाव को यह आप ही व्यक्त किया करता है। संसार में ऐसे उदाहरण भी कम नहीं है। इन उदाहरणों द्वारा ही वह मानवीय बुद्धि को लौकिकता से अलौकिकता की और प्रेरित किया करता है।

चीन के चिहली नगर में एक यूनानी रहता था उसका जन्म 1389 में हुआ मृत्यु 1464 में। 75 वर्ष वह संसार के विलक्षण आश्चर्य के रूप में जिया। शी-स्वान नामक इस व्यक्ति का शरीर पारदर्शक था उसके शरीर के भीतर का माँस हड्डियां श्वांस गमन के मार्ग तक एक्स किरणों से भी अधिक स्पष्ट सभी अंग देखे जा सकते थे। मनुष्य शरीर में अद्भुत शक्ति के प्रदर्शन का यह अद्भुत उदाहरण था जिसका विज्ञान कोई भी हल प्रस्तुत नहीं कर सका।

शाँसी प्रान्त के राज्य मंत्री श्री लू मिन की आँख में दो-दो पुतलियाँ थी जो जीव-विज्ञान का अविजित-आश्चर्य ही बनी रही। लूमिन बाद में गवर्नर हो गये उनकी आँखों से काम करने की क्षमता में भी कोई अन्तर नहीं था। .... के टूरकोइंग स्थान में सन् 1793 में एक ऐसी लड़की ने जन्म लिया जिसकी केवल एक आँख थी वह 15 वर्ष तक “क्लीमेंट चाईल्ड” के नाम से विख्यात रहीं। यह एक आँख भी भारतीय योगियों की तृतीय आँख का प्रमाण थी और नाक के ठीक ऊपर दोनों भौहों के बीच थी। योग-विज्ञान की मान्यता है कि इस स्थान पर पीयूष ग्रन्थि होती है जो वस्तुतः आध्यात्मिक तीसरे नेत्र का काम करता है उसका जागरण हो जाने पर मनुष्य करोड़ों मील दूर की भी वस्तुयें देख और अनुभव कर सकता है। यह .... इस आँख से सब कुछ देख सकती थी। उसे देखकर यह अनुमान किया जा सकता है कि भगवान् उसे भेजकर मनुष्य को यह समझाने का प्रयास किया होगा कि मनुष्य बाह्य दृष्टि वादी ही न रहकर अन्तदृष्टा भी बने बिना उसके वह विश्व के यथार्थ को जान समझ नहीं सकता।

ग्रीन्स वर्ग के एक चनवाहे वाल्टर रिडिल मैन के पास एक भेड़ थी। भेड़ें संसार में बहुत है बहुत हो चुकी और ना जाने कितनी अभी होंगी- इस सामान्य से जीव से लाभ तो है पर उसमें कोई विशेषता न होने से उसे कोई महत्व पूर्ण स्थान प्राप्त नहीं। उसके शरीर में ऊन उगने का एक प्राकृतिक नियम है। दुनिया की हर भेड़ के शरीर में ऊन ही उगती है किन्तु इस भेड़ की पीठ पर घास उगती थी और भगवान की उस प्रेरणा का दिग्दर्शन कराती थी कि यह शरीर माटी का एक घरौंदा मात्र है प्रकृति की खूबसूरती है कि उसने हर शरीर में नई आकृति गढ़ी पर उससे यह सत्य ओझल नहीं हो जाता कि शरीर का उपयोग केवल पार्थिव सुखों तक ही सीमित है यदि उसका असाधारण उपयोग करना हो तो उसके चेतन अंश की भी खोज और प्राप्ति की जानी चाहिए परमात्मा ने यह प्रेरणा इस भेड़ की पीठ में घास उगाकर दी और अपनी महत्ता भी प्रतिपादित कर दी कि वह प्राकृतिक नियमों से भी बढ़कर कलाकार और रचनाकार है।

ईश्वर वाणी है- “अद्भुतः अश्रु तोऽहम्”- मैं अद्भुत हूँ, जो कभी नहीं सुना गया वह भी मैं ही हूँ यह थोड़े से उदाहरण इस तथ्य के साक्षी है। प्रयत्न करें, साधनायें करें, तो उसके विराट तात्विक स्वरूप को पाकर हम धन्य भी हो सकते हैं जिसके लिए मनुष्य जैसा शरीर जीव को प्रदान किया गया है।


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