असुरता के संहार में प्रवृत्त-हमारी अन्तःचेतना

July 1970

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कैंसर क्रॉनिक स्टिमुलश से बढ़ता है, जिसका अधिकाँश कारण धूम्रपान (स्मोकिंग) है। क्रॉनिक सविसाइटिस (स्त्री-रोग), पेट का फोड़ा (पेप्टिक अल्सर) आदि से भी 5 प्रतिशत कैंसर हो सकता है। पर डाक्टरों की राय में इन सबका कारण अपनी ही चिन्तायें, उतावलापन और मिर्च-मसालों वाला गरिष्ठ आहार होता है। एक बार क्रॉनिक स्टिमुलश पैदा हो जाने के बाद वह कोष (सेल्स) को विकृत करना प्रारम्भ करता है। 1 से 2, 2 से 4 इस क्षिप्र गति से बढ़ता हुआ यह रोग सारे शरीर पर उसी तरह छा जाता है जिस तरह दहेज, रिश्वत, मिलावट, अन्धविश्वास, अशिक्षा और बाल-विवाह आदि कुरीतियाँ भारतीय जीवन को आच्छादित किये हैं। यदि प्रारम्भ में ही इसे नष्ट न किया गया तो कैंसर का ठीक होना कठिन हो जाता है। हमारी सामाजिक बुराइयों और आँतरिक दुर्वासनायें भी ऐसी ही बुरी होती हैं जो यदि जड़ पकड़ गई तो मरणोपरान्त ही पिंड छोड़ती हैं। भारतवर्ष की इन बुराइयों को नष्ट करने का यही समय है। यदि इन्हें अभी नष्ट नहीं किया गया तो शारीरिक स्वास्थ्य की तरह या तो धर्म नष्ट हो जायेगा या फिर पराधीनता की तरह समाज का ही पतन हो जायेगा।

भारतवर्ष के पराधीन होने का भी यही कारण था कि हमारी आँतरिक बुराइयों ने हमारी समर्थता की जड़ें काटीं और हम विदेशियों का सामना करने में असमर्थ हो गये। एक ऐसा समय आया जब भूल अनुभव की गई। संघर्ष हुआ और इस तरह अँधेरे इतिहास का अन्त हुआ। हमारा देश पुनः स्वाधीन हो गया।

हम विदेशी सत्ता से स्वाधीन हो गये किन्तु वह स्वाधीनता अक्षुण्ण रहेगी? इस बात की निश्चित गारन्टी तब तक नहीं दी जा सकती जब तक भारतीय समाज कुरीतियों, अन्धविश्वास, अनैतिकता, बेईमानी, छल, कपट, भ्रष्टाचार, अनय, अत्याचार, तृष्णाओं, वासनाओं और दुष्प्रवृत्तियों से ग्रसित बना रहेगा। बुराइयाँ मनुष्य को रोग के कीटाणुओं की तरह खा जाती हैं, इसलिये बुद्धिमान लोग समय रहते उनसे बचने का प्रयत्न करते हैं। यह एक दुःसाध्य कार्य है इसलिये इस कार्य को बहुत सावधानी, सजगता और योजनाबद्ध तरीके से पूरा करना पड़ता है।

मनुष्य जीवन की एक विस्तृत प्रक्रिया का नाम समाज है। हम जिस गाँव में, मुहल्ले या नगर में रहते हैं- समाज वहीं तक सीमित नहीं। हमारा प्रान्त, हमारा देश, पड़ौसी देश और सारा विश्व एक समाज है। समाज की सीमायें विशाल हैं। अपने आप तक सीमित सुधार की प्रक्रियायें सरल हो सकती हैं किन्तु हम इस व्यापक समाज से इतने प्रभावित और बँधे हुए हैं कि उसकी हर छोटी-बड़ी बुराई से हमारा टकराव हर घड़ी होता रहता है। हमारी सज्जनता, हमारी शुद्धता, हमारा सौष्ठव तभी स्थिर रह सकता है जब सारा विश्व-समाज ही शुद्ध, सज्जन और सौम्य हो। इस जटिल समस्या को हल करना तभी सम्भव है जब विश्व संस्कृति की सभी भलाई वाली शक्तियाँ निरन्तर क्रियाशील रहें और बुराइयों पर उसी प्रकार दबाव डालती रहें, जिस तरह शरीर में उत्पन्न होने वाले रोग, शोक और बीमारियों का संहार औषधियों से करते रहते हैं।

हम शरीर को एक समाज मानते हैं और उसकी गतिविधियों के द्वारा बाह्याभ्यन्तर असुरता से टक्कर लेने के निष्कर्ष निकालते हैं। जब शरीर में बाहरी कीटाणुओं से या भीतरी किसी कारण से कोई रोग हो जाता है तो ऐन्टी बायोटिक्स दवाइयों द्वारा उस पर सीधा घातक प्रभाव डाला जाता है। यह औषधियाँ शरीर के सारे रक्त का दौरा करती हैं और जहाँ कहीं भी रोग-कीटाणुओं को छिपा हुआ पाती हैं, मार गिराती हैं। सामाजिक बुराइयाँ, चाहे वह बाहर से थोपी गई हों या आँतरिक हों, इसी तरह नष्ट की जा सकती हैं। उनकी विरोधी शक्ति तैयार की जानी चाहिए, जिससे उन्हें मारकर भगाया जा सके। उदाहरण के लिये माँसाहार ऐसी दुष्प्रवृत्ति है जो भारतीयों पर विदेशियों ने थोपी, पर दहेज, पर्दा प्रथा, अन्धविश्वास हमारी आँतरिक बुराइयाँ हैं और उनसे छुटकारे का एक ही मार्ग है कि अच्छे लोग माँसाहार के विरुद्ध शाकाहार और जीव-दया की भावना को उभारें और दहेज, अन्धविश्वास आदि के स्थान पर बिना दहेज विवाह, शुद्ध आस्तिकता आदि का व्यापक प्रसार करें, स्वयं इन आदर्शों का पालन करें व साथी, सहयोगी, सम्बन्धी सबको उसके लिये प्रोत्साहित करें।

कई बार इस संघर्ष में अपनी भी हानि होती है। औषधि शास्त्र कहता है- यदि 100 शत्रु नष्ट करने में एक अपना भी मारा जाये तो कुछ कर्ज नहीं, पर सीधे मुकाबले का रास्ता छोड़ना नहीं चाहिए। पेट में कई बार राउन्ड वार्म्स पैदा हो जाते हैं। यह परजीवी (पैरासाइट) कीड़े (बैक्टीरिया) आँतों को उस तरह खाने लगते हैं जैसे फैशनपरस्ती, नशेबाजी, वासनायें स्वास्थ्य को खाने लगती हैं। इस स्थिति में डॉक्टर कोई दस्तावर औषधि देते हैं और रक्त में होने वाले विषैले प्रभाव से शरीर को बचाते हैं। इन औषधियों में तीव्रता होती है, वह पेट की सारी गन्दगी झाड़ फेंकती हैं। यह क्रिया कुछ तीव्र होती है, इससे पाचन वाले अम्ल (एसिड्स) भी पटक जाते हैं पर उनका चला जाना भी रोग से आक्रमण से हो जाने वाली हानि की तुलना में कहीं अधिक उपयोगी है। इसलिये सीधे संघर्ष में कुछ लोगों को शारीरिक या मानसिक कष्ट भी हो, तो भी प्रसन्नता अनुभव करनी चाहिए।

कई बार डॉक्टर उचित इलाज का पता नहीं लगा पाते, तब वे प्रभावित अंग से रोग के कीटाणु निकालकर उन्हें कल्चर प्लेट पर रखते हैं और उन पर कई एण्टी बायोटिक्स औषधियों की एक-एक बूँद रखते जाते हैं। जो औषधि अधिक कीटाणुनाशक हुई, बाद में उसी का प्रयोग किया जाता है। समाज में जब इस तरह ला-इलाज बुराइयाँ उठे तब विचारशील लोगों को कई प्रयोग करने चाहिए जो स्थिति के अनुरूप, जो भी उचित हो, उस उपाय को कारगर ढंग से अपनाना चाहिए।

बुराइयों से सतर्कता तो प्रत्येक स्थिति में रखनी ही चाहिए अन्यथा पता न चलेगा और वह भीतर-ही-भीतर हमें नष्ट कर दे सकती है। शराब पीने वालों में चर्बी की एक सतह जिगर के कोषों के ऊपर जम जाती है। उससे जिगर के कोषों को खाद्य (ऑक्सीजन) मिलना बन्द हो जाता है। शराब पीने वाले को पता नहीं चलता और भीतर-ही-भीतर सिरोसिस आफ लीवर बीमारी हो जाती है। इसलिए मनुष्य को अपने स्वभाव, समाज की प्रत्येक गतिविधि पर सतर्क दृष्टि रखनी चाहिए। यदि ऐसा न हुआ और बीमारी पककर फूटी तो उसका सँभालना कठिन हो जाता है।

जहाँ भी ऐसा वातावरण उठ रहा हो, बुद्धिशीलता की माँग है- उसे नष्ट किया जाये। यह कार्य प्रतिलोम वातावरण अर्थात् अच्छाइयों की मात्रा बढ़ाकर पूरा किया जाता है। डॉक्टर और स्वास्थ्य-विशेषज्ञ जानते हैं कि जीवाणु दो प्रकार के होते हैं- [1.] एयरोबिक अर्थात् जिन्हें जिन्दा रहने के लिये ऑक्सीजन आवश्यक है। [2.] एन एयरोबिक अर्थात् जिन्हें आवश्यक नहीं। कोई अंग सड़ जावें (ग्रैगीन) क्लास्टेडियम बेसलाई, क्लास्टेडियम एडेमेन्टीस एवं क्लास्टेडिक सेप्टिकी जो एक एयरोबिक हैं उनको मारने के लिये एयरोबिक वातावरण पैदा करना आवश्यक है। अर्थात् यदि समाज में अच्छाइयों की प्रचुरता को व्यापक बना दिया जाये तो अनेक बुराइयाँ वातावरण न मिलने के कारण ही नष्ट हो जायेंगी।

उदाहरण के लिये असंयम आलस्य को परिश्रम और उद्योग द्वारा, वासना और असंयम को व्यायामशालाओं और बौद्धिक शक्तियों के ऊर्ध्वीकरण, स्वाध्याय, ज्ञानार्जन, आदि के द्वारा नष्ट किया जा सकता है। सादगी का वातावरण पैदा किया जाये तो उससे फैशन के नाम पर होने वाला अपव्यय भी रुके और बालकों की उच्छृंखलता तथा गुण्डागर्दी भी रुक सके। सदाचार, साहस और ईमानदारी को सम्मानित नहीं किया जाये तो दुराचार, संकीर्णता और बेईमानी बढ़ती है। सज्जन व्यक्तियों का सम्मान बढ़ाकर ऐसी बुराइयों को सहज ही दूर किया जा सकता है।

बुराई न बढ़े, उसके लिये यह भी आवश्यक है कि उन्हें पोषण न मिले। गुण्डा तत्वों से डरकर लोग न चाहते हुए भी उन्हीं का समर्थन और हाँ में हाँ मिलाने लगते हैं। इससे उनका कुनबा और भी फलने-फूलने लगता है। यदि लोग उनका समर्थन और पोषण बन्द कर दें तो वह अपने आप मरकर नष्ट हो जायें।

टी.बी. के कीटाणु इसी सिद्धाँत पर मारे जाते हैं। यह एसिड फास्ट बेसिलाई [जो एसिड से भी नहीं मरते] हैं। जब इस तरह के कीटाणु शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं, तब डॉक्टर स्ट्रैप्टोमाइसीन देते हैं। यह टी.बी. के कीटाणु की ऊपरी झिल्ली [लायपाइड कवरिंग] पर चारों ओर से घेरा डाल लेता है। इससे उस कीटाणु की मुसीबत आ जाती है। दुष्ट अपना खाद्य भी नहीं ले सकता और भीतर घुटकर मर जाता है। जो बुराइयाँ सीधी टक्कर से नहीं जीती जा सकतीं, उनको पोषण न मिले तो वे टी.बी. के कीटाणु की तरह आप नष्ट हो जाती हैं।

जहाँ इस स्थिति में भी काम न बने वहाँ भलाई की शक्ति का उद्बोधन करना और उसे मुकाबले के लिये ललकारना आवश्यक हो जाता है। नान स्पेस्फिक थैरेपी के अंतर्गत कई बीमारियाँ ऐसी होती हैं जो लगातार औषधि-सेवन से भी अच्छी नहीं होती। उदाहरण के लिये चमड़ी की बीमारी-एक्जिमा। उस स्थिति में डॉक्टर मुकाबले की शक्ति तैयार करते हैं। रोगी के शरीर का 5 सी.सी.शुद्ध रक्त लेकर रोगी के शरीर में प्रवेश [इन्जेक्ट] कर दिया जाता है। यह प्रोटोन होता है और भीतर शरीर में पहले से ही प्रोटोन होता है। जब तक अच्छाई बुराई में भेद न किया गया था, बुराई भी दहेज, पर्दा-प्रथा, नशा आदि की तरह साथ-साथ पल रही थी। पर जब कुछ यज्ञ, हवन, जप, तप, बिना दहेज विवाह, नशा-उन्मूलन आदि की स्थिति बनी तो दूसरे लोगों ने भी अनुभव किया कि बुराई वह है जो अपनी या समाज के किसी भी वर्ग का अहित करती है, भले ही वह कोई परम्परा बन गई हो। जब इस तरह का विवेक जाग पड़ता है तो अपनी बुराइयों का उन्मूलन ठीक ऐसे ही सरल हो जाता है, जैसे एक्जिमा में रोगी का ही रक्त इन्जेक्शन कर देना। भीतर वाले प्रोटोन उन्हें बाहरी समझ कर हमले के लिए तैयार होते हैं पर जब वे अनुभव करते हैं कि अरे! यह तो अपने ही बन्धु और हितैषी हैं तब उनसे मिल जाते हैं और एक नई शक्ति अनुभव करते हैं। अब सब मिलकर एक्जिमा के विरोध में लड़ पड़ते हैं और उस न मिटती जान पड़ने वाली बीमारी को भी नष्ट करने का प्रयोग बहुत ही उपयोगी और सफल सिद्ध होता रहा है।

यह वैज्ञानिक प्रयोग हैं जिनसे शरीर के समान ही अपने को शुद्ध, पवित्र और दिव्य बनाया जा सकता है। उसी के आधार पर सुख, समृद्धि और विश्वशान्ति का वातावरण पैदा किया जा सकता है।


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