प्रकृति और परमेश्वर की तरह विज्ञान और धर्म दो महाशक्तियाँ हैं। एक पुरुष दूसरी नारी-की तरह दो विपरीत वस्तुयें लगती हैं, पर यदि वे दोनों एक दूसरे को काटने लग जायें तो गृह कलह की तरह संसार में सर्वत्र अशान्ति ही अशान्ति फैल सकती है। इस युग में यह बात स्पष्ट दिखाई देने लगी है। इसलिये आज यह तय कर लेना आवश्यक है कि वे दोनों पूरक बनकर रहें अथवा परस्पर विरोध करते रहें।
भावी पीढ़ी को मानसिक दिग्भ्रान्ति से बचाने के लिये यह प्रश्न सुलझाना आवश्यक है। धर्म के गिरते हुए मूल्य को देखकर ऐसा लगता है कि कहीं आने वाली पीढ़ियाँ पूर्णतया पदार्थवादी होकर अपनी आध्यात्मिक शक्तियाँ नष्ट न कर डालें।
हमारी तरह से ऐसे विचार दुनिया के अनेक मनीषियों के मस्तिष्क में आये और उन्होंने अपनी-अपनी तरह के विचार भी दिये। किसी भी ठोस निर्णय के लिये उन के विचारों का बड़ा भारी महत्व हो सकता है। एक अमरीकी स्नातक श्री हरोल्ड केशेलिंग के मस्तिष्क में भी यह प्रश्न उठा था। उन्होंने ‘विज्ञान और धर्म में क्या सम्बन्ध है? इस सम्बन्ध में विस्तृत अध्ययन किया और अपने निर्णयों को एक ‘थीसिस’ के रूप में ‘साइन्स’ एण्ड रिलीजन (विज्ञान और धर्म) के नाम से पेन्सिलवेनिया यूनीवर्सिटी को प्रस्तुत (संमिट) किया। थीसिस के मध्य-पृष्ठों में श्री केशेलिंग ने भी चेतावनी देते हुए लिखा है कि- हमें व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से इस परिस्थिति की ओर सच्चे रूप में ध्यान देना होगा हमेशा के लिये यह तय करना होगा कि वास्तव में धर्म और विज्ञान में कोई समझौता हो सकता है या नहीं।’
इसी संदर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हुये उन्होंने आगे लिखा- ‘कई धार्मिक संस्थाओं ने यह पहचान लिया है कि धर्म और विज्ञान की सम्मिलित प्रगति से मनुष्य जाति की यथार्थ प्रगति हो सकती है। इस ओर उन्होंने काम भी प्रारम्भ किया है। इससे अनेक मानवीय समस्याओं के सही हल सामने आये हैं। विज्ञान की महत्वपूर्ण बातों में कई बातें ऐसी हैं जो धार्मिक संस्थाओं के लिये उचित है तथा उनकी स्वयं की जानकारी का स्पष्टीकरण करती हैं। पिछले दिनों धर्म विज्ञान का संघर्ष मुख्य बातों में असहयोग के कारण होता था जो अब समाप्त होता जा रहा है। पहले जो बातें विरोधी लगती थीं, अब पूर्ण रूप से एक रूप और अनुरूप प्रतीत होती हैं।’
यह विचार वस्तुतः मार्गदर्शक है। आइन्स्टीन, न्यूटन, गैलीलियो जैसे महान वैज्ञानिकों को अन्ततः यह स्वीकार करना पड़ा कि सब कुछ पदार्थ ही नहीं है कुछ मानसिक और भावनात्मक सत्य भी संसार में है। विज्ञान का दृष्टिकोण उनका स्पष्टीकरण करना है। इस तरह के व्यक्तियों के बाद ही रूढ़िवादी वैज्ञानिक और धार्मिक व्यक्तियों- दोनों को अपना हठ समझौते के लिये बदलना पड़ा। आज पाश्चात्य देशों में इसीलिये लोग विज्ञान की बातों की संगतियाँ आध्यात्मिक सत्यों से जोड़ने लगे। उसे उनकी समझदारी कहना चाहिये। विज्ञान कितना ही आगे बढ़ जाये हम मनुष्य-जीवन के मूलभूत सत्यों यथा जन्म-मरण, परलोक, पुनर्जन्म, कर्मफल, परमात्मा आदि के अस्तित्व और मानव-मानव के बीच के सम्बन्धों को ठुकरा नहीं सकते। उनको सुलझाने के लिये हमें भावनात्मक आधार बनाना ही पड़ेगा और तब-तब धर्म की उपस्थिति अनिवार्य होगी ही।
धर्म और विज्ञान में सम्बन्ध स्थापित करने में प्रमुख कठिनाई इनकी वास्तविक प्रकृति के बारे में प्रचलित मिथ्या-बोध (मिस अण्डरस्टैंडिंग) है। धर्म को अध्यात्मवादियों ने इस ढंग से प्रस्तुत किया है कि विज्ञान उस बात को कभी नहीं मान सकता जैसे कोई भगवान का नाम नहीं लेगा तो नरक को चला जायेगा? वैज्ञानिक कहता है यह भी कोई बात हुई जो कुछ संसार में है ही नहीं उसका नाम कैसे लें, यदि है भी तो क्या वह इतना स्वार्थी है कि केवल अपना नाम न लेने पर कठोरतम दण्ड दे सकता है ‘ऐसा व्यक्ति भगवान हो भी सकता है?’ इसी बात को यदि यों कहा जाता कि ‘मनुष्य जब तक संसार की नियामक सत्ता (क्रियेटिव सावरेन) से संपर्क नहीं बनाता उसके विचार स्वार्थवादी, भोगवादी होते जाते हैं, उससे आत्म-शक्तियों का हनन होता है और जब शक्तियाँ नहीं रहतीं तभी मनुष्य दुःखी रहता है। अशक्त मनःस्थिति में छाई हुई वासनायें ही नरक की तरह हैं’ तो सम्भवतः विज्ञान का समर्थन करने वाले लोगों की समझ में भी बात आती और वे एक विशाल दृष्टिकोण से चिन्तन करने की आवश्यकता अनुभव करते। झगड़ा इसलिये पैदा हुआ कि धर्म विज्ञान के तर्क (लॉजिक) को सन्तुष्ट नहीं कर सका।
इसी तरह वेदान्त के वैशेषिक विज्ञान ने पदार्थ, समय, ब्रह्माण्ड, गति और इन समस्त परिस्थितियों का कारण और उद्देश्य क्या है इस बात का कोई संतोषजनक उत्तर देने से पहले ही कह दिया कि संसार में ऐसी कोई चेतन सत्ता नहीं है जिसे आत्मा या परमात्मा कहें। उसने ऐसा कहते समय मनोविज्ञान के सिद्धाँतों को ठुकरा दिया इसलिये धर्म बिगड़ खड़ा हुआ। यह नासमझी ही दोनों में झगड़े का कारण बनी अन्यथा अन्तर्ज्ञान दोनों ही दिशाओं में एक रूप, एक निश्चित और यथार्थ उद्देश्य की ओर बढ़ रहा है।
प्रोफेसर हरवर्ड डिंगले जो लन्दन विश्व-विद्यालय के सुप्रतिष्ठित खगोल पिण्डों के भौतिकीय एवं रासायनिक विज्ञान के ज्ञाता (एस्ट्रोफिजिस्ट) थे उन्हें जब इससे सन्तोष नहीं हुआ तो उन्होंने मनुष्य जीवन का लक्ष्य निर्धारित करने के लिये विज्ञान का इतिहास (हिस्ट्री आफ साइन्स) और दर्शन शास्त्र (फिलॉसफी) भी पढ़ी। दोनों प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने के बाद उन्होंने जो निष्कर्ष दिये वह काफी महत्वपूर्ण एवं विचारणीय हैं। वे लिखते हैं- ‘जब हम उस विज्ञान की प्रकृति (नेचर आफ साइन्स) के बारे में विचार करते हैं जो आजकल प्रचलित है एवं जिसका आजकल उपयोग हो रहा है तो हम ऐसी दुःखद परिस्थितियाँ पाते हैं जिन्हें देखकर भगवान के दूत भी रो पड़ें। यह ऐसा युग नहीं है जिसमें हम विज्ञान की शक्ति को महत्व दें, विज्ञान की सत्यता पर ही ध्यान दें और आध्यात्म के सत्यों को पूर्ण रूपेण भुला दें, क्योंकि उसके दुःखद परिणाम भी हमारे सामने प्रस्तुत हैं।’
इंग्लैंड, अमेरिका, फ्राँस आदि संसार के वह देश हैं जहाँ लोग विज्ञान में जन्म लेते हैं, विज्ञान में पलते हैं, विज्ञान में ही खाते-पीते , चलते हैं। किन्तु इन देशों में 70 प्रतिशत लोगों की मानसिक स्थिति उद्विग्नता से भरी है, दुनिया में सबसे ज्यादा हत्यायें और आत्म-हत्यायें अमेरिका में होती हैं। 70 प्रतिशत लोग नींद की दवाइयाँ लेकर नींद बुलाते हैं। रात में विवाह, सवेरे तलाक (नाइट मैरिजजे मारनिंग डाइवर्स) वहाँ का प्रसिद्ध मुहावरा बन गया है। वहाँ प्रतिक्षण आकाश में हवाई जहाजों की गूँज छाई रहती है, शहरों में शोर-शराबा इतना बढ़ गया है कि जिसे कोई शारीरिक कष्ट नहीं वह भी कुछ विलक्षण सी ताँत्रिक परेशानी अनुभव करता है। कुछ बीमारियाँ केवल इन्हीं देशों में होती हैं, दूसरे देशों के डॉक्टर उनका नाम तक नहीं जानते। यह क्या है-धर्म विहीन, आस्था विहीन भौतिकतावाद का विषदंश। खाते-पीत लोग भी वहाँ शान्ति अनुभव नहीं करते। माता-पिता और बच्चों में भावनात्मक सम्बन्ध बहुत सीमित हो गये हैं। वहाँ लोग धर्म की आवश्यकता तीव्रता से अनुभव कर रहे हैं।
विज्ञान एवं भौतिकतावाद को हम पूर्णतया छोड़ नहीं सकते पर उसी प्रकार धर्म के बिना भी हमारी शान्ति स्थिर नहीं रह सकती इसलिये इन दिनों में समन्वय की जीवन पद्धति अपनानी ही पड़ेगी तभी हम सुखी और शाँतिपूर्ण जीवन यापन कर सकते हैं।