जीवनोद्देश्य से विमुख न हूजिए।

July 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

इस अनादि और अनन्त काल के शाश्वत प्रवाह में न जाने वह कौन-सा अभागा क्षण मनुष्य को छूकर निकल गया, जब मनुष्य ने भोग-भावना की उपासना को अपना जीवन-लक्ष्य निर्धारित कर लिया।

मनुष्य का जीवन-लक्ष्य भोग-वीथियों में भटकते रहना हो सकता है-किसी प्रकार भी तो यह विश्वास नहीं किया जा सकता है। यदि ऐसा रहा होता तो मनुष्य का निर्माण भी उसी प्रकार का हुआ होता जिस प्रकार अन्य पशुओं का। न उसमें बुद्धि होती न विवेक और न आध्यात्मिक चेतना का विकास। संसार का यह सर्वगुण-सम्पन्न प्राणी मनुष्य भी यदि अन्य जीव-जन्तुओं की भाँति ही भोजन, वास, निद्रा और मैथुन में रत रहकर ही सारा जीवन बिताता और मरकर चला जाता तो फिर उसमें और उनमें अन्तर ही क्या रह जाता है?

प्राणियों के बीच एक दूसरे से उनकी विशेषताओं की भिन्नताओं के पीछे निश्चित ही कुछ अर्थ और कुछ उद्देश्य निहित रहता है। परमात्मा की यह विशाल, व्यापक, नियमित तथा व्यवस्थित सृष्टि, किसी बाजीगर का निरुद्देश्य तमाशा भर नहीं है और न यह बालू खेलते हुए अबोध बच्चों की क्रीड़ा है कि वे मिट्टी से विविध प्रकार के आहार-प्रकार बनाते और यों ही कुतूहलवश बिगाड़ते रहते हैं। गाय-बैलों के सिर-सींग, शेर के पञ्जे, हाथी की सूँड, वराह के वीर और पक्षियों के डैने होना अपने पीछे एक सार्थक मन्तव्य रखते हैं। यह यों ही निरर्थक की उपज एवं विभिन्नता नहीं हैं। यह बात दूसरी है कि हमारी मोटी बुद्धि इसके सूक्ष्म उद्देश्य को पूरी तरह समझ सकने में कृतार्थ न हो सके।

व्यवस्थित रूप से सोचने की क्षमता, परिष्कृत वाणी बोलने और समझा ने का गुण, सामाजिकता, पारस्परिकता, सहयोग, सौंदर्य, सहानुभूति, चिकित्सा, वाहन, मनोरञ्जन, न्याय, गृह, वस्त्र एवं आजीविका की सुविधा आदि की जो विशेषतायें मनुष्य को मिलीं और अन्य जीव-जन्तुओं को नहीं मिलीं-परमात्मा के इस अनुग्रहाधिक्य का यह अर्थ तो कदापि नहीं हो सकता कि मनुष्य अपना जीवन इन विशेषताओं एवं सुविधाओं, इन पुरस्कारों एवं उपहारों को यों ही मिट्टी में मिलाकर अन्य पशुओं की तरह ही अपना जीवन बिताये और मर जाये। अवश्य ही मनुष्यों का जीवन उद्देश्य अन्य जीव-जन्तुओं से भिन्न होना निर्धारित है।

मनुष्य जीवन-पद्धति की यह भिन्नता एक सोद्देश्य जिन्दगी, एक ऊँची और परिष्कृत जिन्दगी के सिवाय और कुछ नहीं हो सकती। मानव-जीवन की परिस्थितियों को देखते हुए यह मानना पड़ेगा कि वह शरीर की संकीर्ण परिधि से बाहर निकलकर व्यापक विभु की ओर बढ़े, नीचे स्तर से उठकर ऊपर अनन्त की ओर अभियान करे। यदि वह सर्वगुण-सम्पन्न इस मनुष्य जीवन जैसे अलभ्य अवसर को पाकर भी अपनी आत्मा को संकीर्णता के कलुष से मुक्त करने का प्रयत्न न करें तो यही मानना पड़ेगा कि हमने इस पावन प्रसाद का न तो समुचित मूल्याँकन ही किया और न परमात्मा की कृपा का समादर। इस मनुष्य शरीर को पशुओं जैसा यापन कर उसी श्रेणी का सिद्ध करने का अनुचित अपराध किया। आत्म-कल्याण, आत्म-मुक्ति एवं आत्म-विस्तार की साधना से विरत रहकर न केवल यही एक अलभ्य अवसर खो दिया वरन् आगे कि लिए भी अपनी पात्रता असिद्ध कर दी और पुनः लाखों करोड़ों वर्षों के लिये चौरासी लाख योनियों के कारावास की भूमिका तैयार कर ली।

शारीरिक वासनाओं की सँकरी तथा असाध्य वीथियों से निकलकर यदि कुछ देर के लिये भी मन को मुक्त कर संसार के विस्तार तथा व्यापकता पर दृष्टिपात किया जाय तो कोई कारण नहीं कि यह अनादि से लेकर अनन्त तक फैला हुआ नीलाकाश, इसमें अवस्थित असंख्यों प्रकाशमान ग्रह, नक्षत्र, चाँद एवं सूरज अपनी दिव्यता से हमारे उन्नत एवं व्यापक अभिमान में सहायक न हों। कोई कारण नहीं कि इनका दर्शन, इनका विचार कुछ देर के लिये भी हमारे हृदय में व्यापकता की अनुभूति उद्बुद्ध न करें और हम इनके बीच अपने अन्दर इन्हीं जैसी महानता तथा व्यापकता का अनुभव न करने लगें। किन्तु कहाँ? हम तो भोगों के रोगों से ग्रस्त, अपने चारों ओर वासनाओं तथा एषणाओं की कारा निर्मित किये अपने को काल-कोठरी का बन्दी बनाए पड़े हैं। हमें अवकाश ही कब मिलता है कि हम संकीर्णताओं से निकलकर इस अपार्थिव वैभव, इस व्यापक विभूति से तादात्म्य का प्रयास करें। ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध और मोह आदि आत्म-विरोधियों का संग कर हम निविड़ अन्धकार में भटक कर अपने इस महान् उद्देश्य की ओर से उदासीन होकर मनुष्य से पशु बने पड़े हैं और एक क्षण को भी यह सोचना नहीं चाहते कि अवसर निकला जा रहा है और हम अन्त में पश्चाताप की अग्नि में जलने के लिये चूके जा रहे हैं।

नित्यप्रति सूर्योदय के समय से एक नया दिन आरम्भ होता है और सूर्य अस्त होने के तक समाप्त हो जाता है। इस प्रकार नित्य ही आयु से एक मूल्यवान दिन कम हो जाता है। हम कभी नहीं सोचते कि हमने जिस दिन इस धरती पर जन्म लिया, उसी दिन से जीवन का ह्रास आरम्भ हो गया है। बड़ी तेजी से क्षण अनुक्षण, श्वाँस एवं प्रश्वास के साथ अन्त की ओर बढ़ते जा रहे हैं। उस अन्त की ओर जिसकी स्थिति अथवा अवस्था का कोई आभास हमारे पास नहीं हैं। किसी बड़े उद्देश्य के लिए मिला हुआ यह छोटा-सा अवसर, यह गिना-चुना समय यों ही व्यर्थ में नष्ट हुआ जा रहा है और हम उसके लिये कुछ भी तो नहीं कर रहे हैं।

हम नित्य ही जन्म, मृत्यु, जरता, क्षरता, रोग-शोक, आपत्ति, विनाश, काल अकाल एवं अकाल मृत्यु के विचार प्रेरक तथा जगा देने वाले दृश्य देखते-सुनते ही रहते हैं, किन्तु हमारे कान पर जूँ तक नहीं रेंगती है। विषय-वासनाओं, कामनाओं-एषणाओं, भोग तथा लोलुपता ने हमें इस सीमा तक मोहग्रस्त बना दिया है कि हम विचार, विवेक और बुद्धि के रूप में अन्धे हो गये हैं। साँसारिकता के प्रमाद में इस सीमा तक विस्मृत हो गये हैं, डूब गये हैं कि एकाध घड़ी एकाँत में बैठकर विचार सकें कि हमको यह विचित्रतापूर्ण मानव शरीर क्यों मिला? इसका उद्देश्य क्या है? हम कौन हैं? कहाँ से आये और कहाँ जा रहे हैं? हमें क्या करना चाहिए और हम क्या कर रहे हैं? इस प्रकार की कल्याणकारी भावना, जिज्ञासा अथवा उत्सुकता की चेतना से हम सर्वथा अपरिचित ही हो गये हैं।

एक तिनके की तरह हम चेतनाहीन होकर समय के प्रवाह, प्राकृतिक प्रवृत्तियों के वेग में, संसार की अबूझ परम्परा-जन्म लेना, जीना और मर जाना-के साथ बहे चले जा रहे हैं। इन्द्रिय-भोग, पदार्थ-पूजा, अधिकार, पुत्र-कलत्र, धन-धाम आदि अनित्य एवं परतन्त्रतामूलक वस्तुओं को लक्ष्य बनाकर दिन-रात इन्हीं में मरते-खपते चले जा रहे हैं। जब अन्त काल आता, चेतना जागती और बुद्धि प्रश्न करती है तब हम अपनी भूल समझते और छटपटा उठते हैं। किन्तु तब तक जीवन की हाट उठने लगती है और हम उस सबको ज्यों-का-त्यों यथास्थान छोड़कर खाली हाथ मलते हुए किसी अनजान दिशा की ओर चल देते हैं। वह कुछ भी न तो हमारे साथ जाता है और न काम ही आता है, जिसका हमने सुर-दुर्लभ मानव जीवन को नष्ट करके बड़े उत्साह से संचय किया था। विशाल वैभव, अपार धन-धान्य, पुत्र-कलत्रादिक सञ्चय तथा संसार की सारी परिस्थितियाँ हमारे सामने बनी रहती हैं। जिनको हम अपना कहते और जिनके लिए प्राण देते रहते हैं, कोई भी काम नहीं आते, हम अपनी मोहमयी भूल के पश्चाताप में जलते हुए परवशता के परों से बँधे उड़ ही जाते हैं। उस समय की वह व्याकुलता, वह व्यग्रता और वह शोक-सन्ताप या तो वह ही समझ सकता है जो भुक्तभोगी रहा है अथवा वह समझेगा जो आज उसी भूल का प्रतिपादन करता हुआ सोचने-समझने की आवश्यकता नहीं समझता।

=कोटेशन============================

परं पौरुषमाश्रित्य दतैर्दन्तान्विचूर्णयन्।

शुभेनाशुभमुद्युक्तं प्राक्तनं पौरुषं जयेत्॥

मनुष्य को चाहिए कि पूर्वजन्म के अशुभ पौरुष (कुसंस्कारों) के फलोन्मुख होने पर, दाँतों से दाँतों को पीसते हुए, परम पुरुषार्थ का आश्रय लेकर शुभ कर्मों द्वारा उसको जीत ले।

==================================

जीवन के प्रति विश्वास एवं आस्था रखना अच्छी बात है। तथापि जिन्दगी कितनी ही लम्बी और विश्वासपूर्ण क्यों न हो, जीवन-लक्ष्य की महानता को देखने और संसार की नश्वरता को समझते वह सदैव छोटी तथा अविश्वस्त ही है। इसका एक-एक क्षण मूल्यवान है। हर बीते हुए क्षण की क्षतिपूर्ति नहीं की जा सकती, किसी आते हुए क्षण को व्यर्थ नहीं किया जा सकता। लक्ष्य की दिशा में ही उपयुक्त किया हुआ क्षण हमारा सार्थक तथा सहयोगी हो सकता है अन्यथा जीवन के पचास-सौ साल क्या हजार और लाख वर्ष भी निरर्थक एवं निरुपयोगी ही सिद्ध होते हैं।

अज्ञान के कारण मनुष्य भौतिक उपलब्धियों को ही उन्नति एवं सफलता का प्रतीक मान लेता है। किन्तु मनुष्य शरीर, बल, बुद्धि, धन, वैभव, विभूति, यश, ऐश्वर्य अथवा पद-प्रतिष्ठा के क्षेत्र में क्यों न हिमालय की तरह ऊँचा और सागर की तरह गहरा हो जाये, किन्तु जब तक उसमें आत्म-सम्पदा का अभाव है, आध्यात्मिक चेतना की आवश्यकता है, तब तक वह निर्धन तथा निम्नकोटि का ही माना जायेगा। आत्मोन्नति एवं आध्यात्मिक उपलब्धि ही वह वास्तविक उन्नति एवं विकास है जिसे प्राप्त कर यह मानव जीवन धन्य तथा सार्थक होता है। भौतिक विभूतियों की चमक मरुस्थल की उस मृग-मरीचिका से अधिक कुछ भी तो नहीं है, आकर्षक तो बहुत होती है किन्तु न तो आत्मा की प्यास बुझा सकती है और न हृदय को सन्तोष दे सकती है।

यह बात सोचना या समझना भूल होगी कि मानव-जीवन में भौतिक पदार्थों का कोई मूल्य या महत्व नहीं है। इनका अपना भी एक मूल्य एवं महत्व है। मनुष्य का शरीर पार्थिव है, उसे चलाने तथा बनाये रखने के लिये भौतिक पदार्थों की नितान्त आवश्यकता है। भोजन, वस्त्र तथा निवास आदि आवश्यकताओं की आपूर्ति में जीवन चलना ही कठिन हो जायेगा। किन्तु इनका महत्व केवल इस सीमा तक ही है कि ये मानव-जीवन के उद्देश्य की पूरक मात्र ही बनी रहें, स्वतः लक्ष्य न बन जायें। शरीर-रक्षा आज जीवन की असुविधाएं दूर करने भर को इनके उपार्जन एवं प्राप्ति में आवश्यक समय तथा श्रम देने के उपरान्त जो शक्तियाँ और जो अवसर शेष बचे उसे परम लक्ष्य की ओर जाने में ही लगाना बुद्धिमानी है। भौतिकता के हाथ अपना समग्र जीवन बेच देने का अर्थ यही होगा कि हम अपने उद्देश्य की दिशा से भटककर गलत रास्ते पर चल निकले हैं। जो साधन था वह हमारा साध्य बन गया है। ऐसी दशा में यथाशीघ्र अपना सुधार कर लेना ही कल्याणकारी माना जायेगा।

जिस प्रकार कोई चित्रकार अपनी रचना के चरमोत्कर्ष लक्ष्य तक तब ही पहुँच पाता है, जब वह अपने अभिलेखन में कला एवं सौंदर्य का समुचित समन्वय कर लेता है। कला-विहीन सुन्दर रचना अथवा कलापूर्ण असुन्दर रचना, दोनों अपने में अपूर्ण एवं अवाँछनीय होने से कलाकार को अपने चरमोत्कर्ष के लक्ष्य तक नहीं पहुँचा पातीं। उसी प्रकार भौतिकता एवं आध्यात्मिकता का समुचित समन्वय ही मनुष्य को उसके आत्मोत्कर्ष के लक्ष्य तक ले जा सकता है। यदि कोई भौतिक आवश्यकताओं की सर्वथा उपेक्षा कर आध्यात्मिक चिन्तन अथवा साधना में लगे रहे तो आवश्यकताओं की पीड़ा से उसका चित्त अस्थिर रहेगा और शरीर जवाब देगा जिसका फल अनानुभूति के सिवाय और कुछ भी नहीं हो सकता। इस प्रकार की आध्यात्मिक साधना उसके लिये मृत्यु की तरह कष्टदायक बन जायेगी। इसी प्रकार यदि आध्यात्मिक साधना से विरत होकर केवल भौतिक भोगों की ही उपासना की जाती रहे तो भी मानवीय लक्ष्य दूर से दूरतर होता चला जायेगा। दोनों का समुचित समन्वय ही उद्देश्य-पूर्ति का कारण बन सकता है, जिसका अनुपात कम-से-कम पच्चीस और पचहत्तर का ही होना चाहिए। इससे कम अनुपात में लक्ष्य-प्राप्ति के लिए अनेक जन्म-जन्मान्तरों तक प्रयत्न एवं प्रतीक्षा करनी होगी।

=कोटेशन============================


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118