पतिव्रत ही नहीं- पत्निव्रत भी

July 1970

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मादा ने अण्डे दिये और फिर बच्चे सेने और बड़े होने तक उनकी सुरक्षा का उत्तरदायित्त्व नर महोदय पर आ पड़ा। मनुष्य ही संसार में ऐसा प्राणी है, जो बच्चे पैदा करने के बाद उनकी परवरिश का सारा भार स्त्री पर छोड़ देता है, जबकि संसार के अधिकाँशतः सभी जीव केवल मात्र वासना के लिये सहचर नहीं बनते वरन् गृहस्थ का निर्वाह भी वे पूर्ण निष्ठा के साथ करते हैं।

ऊपर जिस जीव की कथा प्रारम्भ की गई है वह ‘बेट्टा’ नामक मछली की कहानी है और गृहस्थ में पुरुष के कर्त्तव्यों का बोध कराती है। उधर मादा गर्भवती हुई कि नर का काम प्रारम्भ हुआ। वह अपने मुँह से हवा के बुलबुले छोड़ता घूमता है। इन बुलबुलों को यह इकट्ठा करके अपने शरीर से एक विशेष प्रकार का लसलसा पदार्थ निकालकर अपनी पीठ में चिपका लेता है। विदिशा के पास बौद्धों का एक तीर्थ है- साँची। एक छोटी-सी पहाड़ी पर अर्द्ध चन्द्राकार अनेक स्तूप खड़े हैं। अधिक ऊँचाई से देखने पर स्तूप एक बस्ती से लगते हैं। इसी प्रकार की, स्तूपों वाली बस्ती-सी नर बेट्टा की पीठ पर तैयार हो जाती है। सूखने पर यह कुछ कड़ी हो जाती है और उसमें परिवर्तन का प्रभाव प्रवेश नहीं कर पाता।

मादा पानी की सतह पर अण्डे देना प्रारम्भ करती है तो नर महाशय उस स्थान पर गहरे पानी में चले जाते हैं और वहीं से अण्डों की प्रतीक्षा करने लगते हैं। पति पत्नी के सहयोग का यहाँ अद्वितीय उदाहरण देखने को मिलता है।

अण्डे पानी से अधिक भार के होने के कारण डूब जाते हैं और सतह की ओर भागे चले जाते हैं। वहाँ नर बेट्टा पहले से ही प्रतीक्षा में खड़ा मिलता है। वह अण्डों का स्वागत करता है और उन्हें अपनी पीठ वाली कालोनी में मुँह से पकड़-पकड़ कर डाल देता है। अण्डे उन बुलबुलों की कोठरी में विकसित होने लगते हैं।

इस अतिरिक्त उत्तरदायित्व को सँभालना- मादा जानती है, एक कठिन कार्य है इसलिये वह पति की कृतज्ञता को भूलती नहीं। इधर-उधर घूमकर उसे कुछ खाने को मिलता है, वह लेकर पहुँचती है और नर को खिलाती है। हमेशा ध्यान रखती है कि पति किसी प्रकार भूखा न रहे, उसे ताजा भोजन मिलता रहे।

बच्चे निकल आते हैं। छोटे-छोटे बच्चों में क्रियाशीलता होती ही अधिक है। यह बच्चे फिर चुप कहाँ बैठें? बार-बार कोठरियों से निकल-निकल कर भागते हैं तब नर सावधानी से उन्हें बार-बार भीतर कर लेता है और इस तरह जब तक बच्चे बड़े नहीं हो जाते नर उस भार को अपनी पीठ में बाँधे रहता है।

उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका की नदियों में कुछ मछलियों को अंडे देकर सुरक्षा के लिये उन्हें अपने मुँह में रखना पड़ता है। ऐसा न करें तो उन्हें दूसरे जीव-जन्तु मारकर खा जाते हैं। मुँह में रखकर बच्चों को पालना ऐसा ही कठिन कार्य है जैसे कठिनाइयों से भरा मनुष्य का जीवन। पेट भरने से लेकर पैसा कमाने, घर बसाने, बच्चों की परवरिश, उनकी ब्याह-शादियाँ, शिक्षा-दीक्षा सचमुच सारा जीवन कर्त्तव्यों का पुलिन्दा है- उन झंझटों को पार करना कठिन हो जाता, यदि पुरुष को नारी का सहयोग न मिलता। पति-पत्नी परस्पर प्रेम और सहयोग से इस रूखे संसार में भी सरसता और आनन्द पैदा कर लेते हैं।

मादा उन अण्डों को अकेले दिन भर मुँह में रखती तो भूखों-प्यासों मर जाती। अकेला नर भी यह काम कर नहीं सकता था। औरों की जिम्मेदारी पर छोड़ने का अर्थ होता अपने कर्त्तव्य से विमुख होना और अपनी सन्तति को संकट में डाल देना। इस महापाप से बचने के लिये नर और मादा जिस सहयोग-भावना का परिचय देते हैं वह मनुष्य के लिये सीखने का एक बहुत ही भला उदाहरण है।

मादा जब थकने लगती है, नर उसके मुँह से अपना मुँह जोड़ देता है और वह अण्डे अपने मुँह में ले लेता है। अब मादा इधर-उधर टहलती और भोजन ग्रहण करती तथा विश्राम लेती है। इससे उसके शरीर में फिर ताजगी आ जाती है। तब तक पति महोदय थक गये होते हैं तो वह अण्डों को फिर अपने मुँह में ले लेती हैं। इस तरह दोनों हँसते-खेलते अपना जीवन पार कर लेते हैं।

मछलियों का जीवन दाम्पत्य-प्रेम, सहयोग और कर्त्तव्य-भावना का आदर्श उदाहरण है। ‘बटरफिश’ नामक एक मछली जिसकी लम्बाई कुल 10 इंच ही होती है, अण्डे देती है और उन्हें एक गेंद के आकार में इकट्ठा कर लेती है। इनकी सुरक्षा के लिये नर और मादा दोनों ओर से गेंद के किनारे घेरा डाल देते हैं। जहाँ जाते हैं दोनों साथ-साथ ऐसे ही अण्डों को सुरक्षा में लिये हुए जाते और भोजन प्राप्त करते हैं। पति अपने सहयोग से एक क्षण को भी पत्नी को वञ्चित नहीं करता।

भारतीय प्रशान्त महासागर में ‘करटस’ नाम की एक मछली पाई जाती है, जिसमें नर को अपने कर्त्तव्य-पालन की कठोर परीक्षा देनी पड़ती है और नर उस कर्त्तव्य को परिश्रम और भावना के साथ पूरा भी करता है।

मादा अण्डे देकर उन्हें दो बराबर-बराबर हिस्सों में बाँटकर दो गोल गेंदों की आकृति में कर देती है। दोनों गोलों का एक दूसरे से सम्बन्ध बनाये रखने के लिये वह एक डोरा (चैन) बाँध देती है। इरादा यह होता है कि वह उस डोरे को पकड़कर खींचती हुई अण्डों को इधर-से-उधर टहलाया करेगी- पर नारी जाति प्रकृति से ही कोमल और कमजोर होती है। उसके शरीर में भारी भरकम और अधिक परिश्रम वाले काम करने की क्षमता नहीं होती, इसलिये मनुष्यों की आचार संहिता तैयार करने वाले मनीषियों ने पुरुष को श्रम वाले कठोर काम दिये और नारी को घर के हलके-फुलके काम। दोनों का सामञ्जस्य कर देने से गृहस्थ आनन्द पूर्वक चलता रहता है।

लगता है यह प्रेरणा हमें प्रकृति के इन नाबूझ जीवों से ही मिली है। पुरुष ने जैसे ही देखा कि मादा ‘करटस’ उस भार को ढोने में समर्थ नहीं तो वह आगे बढ़कर आता है और अपने सिर पर लगे हुए हूक के आकार की एक खूँटी से उस डोरे को बाँध लेता है और फिर उन्हें यहाँ से वहाँ घुमाता रहता है। इस स्थिति में मादा करटस अपने पति के भोजन का भी प्रबन्ध करते देखी गई है।

मछलियों में कुछ जातियाँ तो ऐसी भी होती हैं जिनके नरों को प्रकृति जन्म से ही एक थैली (ब्रूड पाउच) प्रदान करती है। इन जातियों में नर को अनिवार्यतः अण्डों को इन थैलियों में रखकर पालना पड़ता है। लगता है जो मनुष्य इस जीवन में गृहस्थ के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का समुचित पालन नहीं करते, नारी पर ही बोझ डालते रहते हैं पर स्वयं आलस्य और प्रमाद का जीवन जीते हैं, प्रकृति इन नरों की श्रेणी में जन्म लेने का दण्ड देती है ताकि वे यह सीखें कि गृहस्थ स्वार्थ की दृष्टि से नहीं, कठोर लोग इस पृथ्वी पर दाम्पत्य जीवन का आनन्द भी पाते हैं जो पति-पत्नी, पत्नि एक दूसरे के प्रति अपने कर्त्तव्यों का उदारता पूर्वक परिपालन करते हैं।


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