प्रकृति में सर्वत्र एक आकर्षण का नियम (ला आफ ग्रेविटेशन) काम करता है। नियम यह है कि दो वस्तुओं की दूरी जितनी अधिक है, आकर्षण उतना ही कम होगा। यह दूरी जितनी कम होती चली जाती है, उतना ही आकर्षण बढ़ता चला जाता है।
मनुष्यों-मनुष्यों के बीच भी प्रकृति का यही नियम काम करता हम स्पष्ट देख सकते हैं। पड़ोसी के दुःख के साथी हम होते अवश्य हैं, समय आने पर उसकी सेवा और सहायता भी करते हैं, पर मूल में एक स्वार्थ भरा रहता है कि इसके साथ ऐसा इसलिए कर रहे हैं कि कहीं हमें भी बदले का सहयोग मिलेगा। विनियम वाले इस व्यवहार में आकर्षण और प्रेम होता तो है पर अत्यल्प, न के बराबर।
अपने चाचा, मामा, भाई के प्रति कर्त्तव्य-पालन में अपेक्षाकृत अधिक प्रेम और आकर्षण अनुभव करते हैं, किन्तु जो प्रेम अपने पुत्र या पुत्री के लिये हो सकता है, वह इनमें से किसी के साथ नहीं था। इस प्रेम की घनिष्ठता का कारण था दूरी का अभाव। हमारी इस मान्यता और सत्यता में कोई अन्तर नहीं था कि यह पुत्र तो मेरा प्राण है, मेरे शरीर से निकली हुई सत्ता है। इसके लिये जब आवश्यकता पड़ती है तो हम प्रकृति के नियमों का भी उल्लंघन कर डालते हैं। साधारणतया दिन भर की थकावट के बाद रात में नींद आये बिना रहती नहीं, किन्तु बच्चा बीमार हो, अस्पताल में हो तो एक-दो रात तो क्या कई-कई रात जाग सकते हैं। ऐसा किसी दूसरे के साथ करने में कष्टप्रद लगता है, पर प्रेम में वही दुःख सुख की तरह अनुभव होने लगता है।
इस तरह का सभी प्रेम ‘तस्वैवाहं’-मैं उसी का हूँ- की सीमा के अन्दर आता है। उसमें प्रेम का, आकर्षण का भाव तो है, पर वह पर्दे में है। उसमें अपनापन, अपना स्वार्थ जुड़ा हुआ प्रतीत होता है।
दूसरी प्रकार का प्रेम ‘तवैवाहं’-मैं तेरा ही हूँ-परमात्मा की अमुख उपस्थिति का बोध कराता है। हम अनुभव करते हैं कि हम अपने आपमें अपूर्ण हैं। इस अपूर्णता को जब तक भरा नहीं जाता, तब तक सन्तोष नहीं होता, शान्ति नहीं मिलती, प्रसन्नता नहीं होती। संसार में मनुष्य स्वार्थ ही स्वार्थ चाहकर भी जिन्दा नहीं रह सकता। उसे अपने स्वार्थ को जब कहीं प्रतिरोपित होने का अवसर मिलता है, तभी उसे कुछ सन्तोष होता है- ऐसा प्रेम अपनी पत्नी के प्रति हो सकता है। पत्नी से हमारा कोई रुधिरगत सम्बन्ध नहीं होता। एक व्यक्ति पूर्व से चलकर आता है, दूसरा पश्चिम से आकर मिलता है, दोनों एक दूसरे को जानते भी बहुत कम हैं किन्तु समर्पण के भाव ने साँसारिक दूरी को इतना कम कर दिया है कि जोड़े में से एक दूसरे को देखे बिना रह ही नहीं सकता। मिलन के प्रारम्भिक दिनों में एक की-दो-एक दिन की-बिछुड़न भी दूसरे के लिये कई वर्षों के समान असह्य हो जाती है। समर्पण प्रेम की इस भावना में शक्ति-सुख का स्थान अधिक तो है पर उसमें भी परमात्मा सम्मुख ही था, अपने भीतर मिल नहीं सका। ऐसा कोई नियम नहीं था कि चाहते हुए भी स्त्री-पुरुष दोनों एकाकार हो जाते- दो न रहकर एक ही शरीर में समा जाते। काम-वासना उसी की भटक है, जिसमें मनुष्य पाता तो कुछ है नहीं, अपना आकर्षण और कम कर लेता है।
प्रेम के विकास की तब एक तीसरी और अन्तिम भूमिका जो पत्थर को भी भगवान् बना देती है वह है ‘त्वमेवाहं- मैं तो तू ही हूँ।’
मैं और मेरे के घेरे में संसार में स्थूलता का एक परदा जो चढ़ा हुआ है, उसी के कारण चेतना के स्वतन्त्र अस्तित्व का आभास नहीं हो पा रहा था। “राम” में भी वही प्रवृत्तियाँ, वही आकाँक्षायें, वही चेतना भरी पड़ी है, जो “श्याम” में हैं। नैसर्गिक विकास की क्रिया दोनों में एक-सी ही है, पर राम को अपने काम से अवकाश नहीं, इसलिये उसे श्याम में कोई रुचि नहीं है। किन्तु जब वह श्याम को थोड़ा सन्देह मिटाकर देखता है, तो पाता है कि अरे! इसमें तो सब कुछ वही, वैसा ही है, जैसा मुझमें है।
राम और श्याम तो दूर के रहे, चेतना तो सृष्टि के कण-कण में समाविष्ट है। तीनों अवस्थाओं में हमारा प्रेम इस चेतना से ही रहा है। चेतना के प्रति-दान से ही हमें सुख मिलता रहा है। शारीरिक सुख का विनिमय तो क्षणिकमात्र और अज्ञानता के कारण होता है। वस्तुतः भूख और प्यास तो चेतना की थी, जिसे अपनी अपूर्णता सहन नहीं हो रही थी।
तब फिर उस चेतना की पूर्णता कहाँ हो? साकार में या निराकार में? यह प्रश्न सनातन काल से चलता और उलझता रहा है। मनीषियों, आचार्य और तत्वदर्शियों ने समझाया भी कि साकार और निराकार में कोई अन्तर नहीं है सृष्टि में जो कुछ भी दिखाई देता है, उस सबमें परमेश्वर ही भरा पड़ा है। तू तो अपना स्वार्थ, अपनी खुदी अपना पर्दा हटाकर देख तुझे सबमें भगवान ही दिखाई देगा। अपनी भावनाओं में जो सबके प्रति ‘तू’-ही-‘तू’ के प्रति प्रेम समर्पित कर देता है, उसे तो पत्थर में भी परमात्मा के दर्शन होने लगते हैं।
प्रेम जो लौकिक अर्थों में था, उसमें भी भावनाओं के समर्पण के अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं था। भावनायें नहीं रह जाती तो अपनी स्त्री, पुत्री और भाई-बहनों के लिए भी तो कोई प्रेम नहीं रह जाता। पञ्च भौतिक पदार्थों के प्रति प्रेम भावनाओं का प्रतिरोपण मात्र है। भावनायें आवेश हैं, विद्युतीय चुम्बक हैं। उन्हें तो जहाँ भी प्रति-रोपित कर दिया जाता है, वहीं प्रेम का सुख मिलने लगता है।
पत्थर भी तो पञ्च भौतिक पदार्थ ही है। आने वाली ध्वनि को प्रतिध्वनित करने का, रगड़कर अग्नि पैदा करने का, उनके सूक्ष्म कणों में जल और आकाश का अंश होने का प्रमाण तो आज वैज्ञानिक भी दे रहे हैं। कोई भी जड़-से-जड़ वस्तु में भी चेतना का नियम सर्वत्र भावनाओं की उपस्थिति का प्रमाण ही तो है। तब फिर क्या पत्थर की मूर्ति हमें बदले में कुछ नहीं दे सकती। यदि हमारे अन्तः करण का प्रेम अपने स्वार्थ की सीमा को तोड़कर प्रत्येक वस्तु में ‘तू’-ही-‘तू’ के दर्शन करने लगे तो इन पत्थर की गढ़ी हुई मूर्तियों में ही भगवान् के दर्शन किये जा सकते हैं।
यह भगवान् कोई अशक्त और अभावग्रस्त भगवान् नहीं होगा-वरन् मीरा के गिरधर गोपाल की तरह समुद्र में से डूबने से बचाने वाला, विष का प्याला आप अपने कंठ में धारण कर लेने वाला, पायलों के साथ अपनी पायलों की संगति मिलाने वाला हो सकता है। प्रहलाद के नृसिंह की तरह वह आधा शरीर मनुष्य और आधा पशु का धारण कर रक्षा के लिये उपस्थिति हो सकता है। कविवर तुलसी-दास ने उन भावनाओं की शक्ति को निःसीम बताते हुए लिखा है-
ईश्वर की भक्ति प्रेमपूर्ण भावनाओं का पारमार्थिक विकास मात्र है। उसे हम सृष्टि में फैली विराट् चेतना के प्रति जागृत कर लें तो हम पत्थर के भगवान् से भी सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं, जो कोई भी देहधारी भगवान् से भी सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं, जो कोई भी देहधारी भगवान् प्रकट होकर या निराकार ईश्वर भक्ति से द्रवित होकर दे सकता है।