एक भाषा- संस्कृत भाषा

July 1970

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अशिक्षित भारतीय “लार्ड” उच्चारण नहीं कर सकते थे इसलिये इंग्लैंड से आने वाले लार्ड्स को वे लोग “लाट कहने लगे। कैप्टन को कप्तान, सिगनल को सिंगल, डेवलपमेंट को डबलामिन्ट आदि अपभ्रंश नामों से पुकारने की यही परम्परा अब इन अभारतीय शब्दों को भारतीय भाषा बना चुकी। किन्तु कभी शब्दों का इतिहास खोजा जायेगा तो यह शब्द स्पष्ट बतायेंगे कि भारतीय भाषा में कभी अँग्रेजी का सम्मिश्रण हुआ था।

इस सिद्धांत को उलटकर हम जब संसार भर की भाषाओं का अध्ययन करते हैं और उनके प्राचीन इतिहास एवं शब्दावली पर दृष्टि दौड़ाते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वे सब हमारी मूल भाषा संस्कृत से ही निकली हुई भाषायें हैं। आज जो विश्व की सम्पन्न भाषायें मानी जाती हैं उनका भी उद्गम संस्कृत ही है। संस्कृत कभी विश्व-भाषा थी, निम्नाँकित अध्ययन से, कोई भी इस तथ्य से इनकार नहीं करेगा।

अँग्रेजी, फ्रेंच, जर्मनी आदि भाषायें लैटिन से निकली हुई मानी जाती हैं किन्तु यह लैटिन मूल रूप से संस्कृत की ही निर्वासित पुत्री की तरह है। शब्दों का तुलनात्मक अध्ययन करके देखें पता चलेगा आज नव-व्यवहृत अंग्रेजी को छोड़ दे तो अधिकाँश प्राचीन शब्द संस्कृत से प्रभावित मिलेंगे-संस्कृत में पृथ्वी को “ईरा” कहते हैं “ग्रीक” भाषा में ‘ई’ के स्थान पर उच्चारण का सामान्य अन्तर “ए” हो गया और उन्होंने “एरा” कहना प्रारम्भ कर दिया। लैटिन में उसे “तेरा” जर्मनी में “एर्दा” -प्राकृत इंग्लिश में “इटार्थ” और प्रचलित अँगरेजी में उसी का अपभ्रंश रूप “अर्थ” कहा जाता है। संस्कृत का “द्यौः” ही अँगरेजी का “डे”। “पद” को लेकर ही अंगरेजी के पंडल, पडेस्टेरियन, पेडेस्ट्रल, “इन्त” को लेकर “डेन्ट” “डेन्टल” और “डेन्टिस्ट” शब्द बने हैं। “मार्टल” और “इम्मार्टल” शब्द “मृत्यु” और “अमर” शब्दों के ही उच्चारण क्रम में बिगड़े हुये रूप हैं। संस्कृत में “प्र” “प्रि” और “प्रो” उपसर्ग लगाकर शब्द-विन्यास को अँगरेजी में ज्यों का त्यों ग्रहण कर लिया गया है। प्रो-नाउन, प्रि-मेडिकल प्र-एशिया [प्रशिया] आदि यह उपसर्ग लगाने से ही बने हैं। संस्कृत का “अन्” उपसर्ग भी ज्यों का त्यों ही ग्रहण किया गया है। जैसे हिन्दी में न बनने को ‘अनबन’ न देखी हुई वस्तु को ‘अनदेखी’ आदि ‘अन’ लगाकर उल्टा अर्थ बोध का उपयोग होता है अँगरेजी में भी उसी प्रकार ‘अन-सीन’, ‘अन-परटर्ब्ड’ ‘अन-नोन’ आदि शब्द एक ही उपसर्ग से बने हैं।

भाषाओं के बारे में कहावत है- “कोस-कोस में पानी बदले, चार कोस में बानी” अर्थात्-दूरी के कारण भाषाओं के उच्चारण में अन्तर आ जाता है और यह अन्तर कुछ दिनों में इतना घुल-मिल जाता है कि प्रचलित मूल भाषा का एक ही अंग बन जाता है। दुनिया की जितनी भी भाषायें हैं यद्यपि वे आज अलग-अलग दिखाई देती हैं, किन्तु वे अपने प्रारम्भ में संस्कृत से ही पैदा हुई हैं।

मनुष्य को संस्कृत में ‘मनु’ कहते हैं, अँगरेजी में उसी का बिगड़ा हुआ रूप ‘मैन’ बना है, “मि”-थी, ‘षट्’-सिक्स, ‘अष्ट’-एट, सूनू (पुत्र) ही सन, ‘पितर’ फादर, भ्रातर-व्रादर, सन्त-सेन्ट, ‘सर्प’, ‘सर्पेन्ट’ अन्तर-अण्डर, ‘नास्ति’ [नहीं]- ‘नोट’ ‘न’- ‘नो’, मृद् [कीचड़] ‘मड’, ‘पथ’-’पाथ’ ‘नाम’-’नेम’ ‘क्रूर’-’क्रूयल’ ‘पशुचर’-पास्चर ‘स्वेद’ [पसीना] ‘स्वेट’, ‘ग्रन्थि’-ग्लैंड आदि एक ही समान के शब्द यह बताते हैं कि अँगरेजी कोई स्वतन्त्र अस्तित्व में विकसित हुई भाषा है यह गलत है। यह दूसरी बात है कि संसार की सभी भाषाओं ने कालान्तर में अपने व्याकरण, वाक्य रचना और नये-नये पारिभाषिक शब्द गढ़े और अपने को समृद्ध बना लिया किन्तु यह भी निश्चित है कि ‘संस्कृत’ भाषा कभी अति समृद्ध भाषा थी और आज भी वह विश्व की किसी भी भाषा की तुलना में आ सकती है।

ऊपर दिये हुये उदाहरण बहुत थोड़े-से हैं वस्तुतः अँगरेजी के अतिरिक्त दूसरी भाषायें भी संस्कृत से ही निकली हुई हैं। एशिया की भाषाओं में सर्वाधिक प्रभावशील और प्रचलित फारसी भाषा का मूल भी संस्कृत है। शरीर को संस्कृत में ‘तनु’ कहते हैं, फारसी में तन कहते हैं। घुटने को संस्कृत में ‘जानु’ कहा जाता है फारसी में भी ‘जानु’ ही कहते हैं। ‘नव’ संस्कृत का शब्द है फारसी में उसे ‘नौ’ कहते हैं। आगे के जोड़ों में पहला अक्षर संस्कृत का है और साथ वाला फारसी का- पाठक मिलाकर देखें तो पता चलेगा कि वह अक्षर संस्कृत शब्दों के कितने पास हैं। उदाहरणार्थ-दन्त-दन्दाँ [दाँत], ग्रीवा-गरेबा [गर्दन] भ्रू-अब्रू [भौंह] पञ्च-पंज [पाँच] शत-सद [सौ] विधवा-बेवा, बात-बाद [हवा] आप-आब [पानी] शृंगाल-शगाल [सियार] अँगुष्ठ-अँनुश्त [अँगूठा] आदि।

हेमेटिक भाषाओं में मिश्र की भाषा को सबसे प्राचीन मानते हैं और जहाँ दूसरी भाषायें लुप्त प्रायः हो गई वहाँ मिश्र की भाषा का अब भी अस्तित्व बना हुआ है। पर उपरोक्त प्रकार से तुलनात्मक अध्ययन करके देखते हैं तो पता चलता है कि मिश्र की भाषा भी संस्कृत से ही निर्गत हुई है। उदाहरण के लिये आरम्भ को संस्कृत में ‘आदि’ कहते हैं तो मिश्र की भाषा में ‘आत’। रोटी को संस्कृत में अपूप और मिश्री में ‘पूपू’, आप शब्द दोनों भाषाओं में पानी के लिये उभयनिष्ठ प्रयोग हुआ है। देखना-’अक्ष’ मिश्री में ‘अरब’ कहा जाता है। ‘सेवा’ को ‘सेव’ ‘रसना’ [जीभ] को ‘रस’ कहते हैं। ‘अषा’ औरक [आत्मा] भी दोनों भाषाओं में ज्यों के त्यों उभयनिष्ठ हैं।

एशियाई देशों में रूस की ‘कला’ और ‘भाषा’ के महत्व को भुलाया नहीं जा सकता। इन दिनों जब कि रूस राजनीति के क्षेत्र में आज विश्व की अद्वितीय शक्ति गिना जाता है उसे छोड़ना उचित न होगा। रूसी भाषा के अध्ययन से पता चलता है कि उसके अधिकाँश शब्द संस्कृत से निकले हुये हैं। आगे जो युग्म दिये जा रहे हैं उनमें पहला अक्षर संस्कृत का है उसके साथ वाला ‘रसियन’ का जिनका आवश्यक है कोष्ठक में अर्थ भी दिया गया है- उदाहरणार्थ- सूतुः-सिन [पुत्र] नख-नोकत्य [नाखून] वात-वेतेर [हवा] उषर-अत्र [ऊषा] द्विशत-द्वेस्ति [दो सौ], दस-देस्यत विधवा-वदवा। ‘द्वा’ और ‘मि’ ‘स्वर्ग’ ‘चष’ शब्द दोनों भाषाओं में समानार्थी हैं। द्वार-द्वेर, कदा-कग्दा [कब], शृंगाल शकाल [सियार], पथ-पुत् [रास्ता] आदि ऐसे बहुत से शब्द हैं जिनके संस्कृत व रूसी उच्चारण में बहुत ही नगण्य अन्तर है। संसार की अनेक भाषाओं के साथ यह समानता संस्कृत में ही है इसलिये यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि सारे संसार में कभी प्रचलित मूल भाषा के रूप में संस्कृत ही थी।

अरबी, जन्द, चीनी, जापानी और अफ्रीका तक की स्वाहिनी भाषा भी संस्कृत के ही ‘तत्सम’ शब्दों से बनी हुई भाषायें हैं उनका वर्तमान रूप उन शब्दों के अपभ्रंश उच्चारण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। संस्कृत के अजहाक को अरबी में इजहार, लोहित को लहू, सुर को हूर, हर्म्य को हरम [रनिवास] शरद को शिरत, ‘धनी’ को ‘गनी’ ‘अर्व’ को ‘अर्वन’ याम को योम [क्षण] आदि उच्चारण यह बताते हैं कि आज की अरबी कल की संस्कृत का ही बिगड़ा रूप है।

अरबी, जन्द, चीनी, जापानी और अफ्रीका तक की स्वाहिनी भाषा भी संस्कृत के ही ‘तत्सम’ शब्दों से बनी हुई भाषायें हैं उनका वर्तमान रूप उन शब्दों के अपभ्रंश उच्चारण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। संस्कृत के अजहाक को अरबी में इजहार, लोहित को लहू, सुर को हूर, हर्म्य को हरम [रनिवास] शरद को शिरत, ‘धनी’ को ‘गनी’ ‘अर्व’ को ‘अर्वन’ याम को योम [क्षण] आदि उच्चारण यह बताते हैं कि आज की अरबी कल की संस्कृत का ही बिगड़ा रूप है।

अरबी, जन्द, चीनी, जापानी और अफ्रीका तक की स्वाहिनी भाषा भी संस्कृत के ही ‘तत्सम’ शब्दों से बनी हुई भाषायें हैं उनका वर्तमान रूप उन शब्दों के अपभ्रंश उच्चारण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। संस्कृत के अजहाक को अरबी में इजहार, लोहित को लहू, सुर को हूर, हर्म्य को हरम [रनिवास] शरद को शिरत, ‘धनी’ को ‘गनी’ ‘अर्व’ को ‘अर्वन’ याम को योम [क्षण] आदि उच्चारण यह बताते हैं कि आज की अरबी कल की संस्कृत का ही बिगड़ा रूप है।

इसी प्रकार जापानी में संस्कृत के बहुत्व को भोत्तो, यम को इम्मा, द्यौः को ‘दे’, ध्यान को गेन आदि कहते हैं। अक्षरों की दृष्टि से चीनी भाषा में संसार की सब भाषाओं से अधिक 204 अक्षर पाये जाते हैं। तथापि उसके शब्द भी संस्कृत भाषा के ही अपभ्रंश-विकास है अभी भी सैकड़ों शब्द संस्कृत के बिलकुल समीपवर्ती दिखाई देते हैं उदाहरण के लिये जन स्थान पृथिवी को चीनी में जिनतान, द्यौः को तौ, होम को घोम, लिंग ज्योति अम्बा, स्थान आदि के लिये प्रयुक्त चीनी शब्दों में उच्चारण भर का अन्तर हैं। ऐसा नियम है कि एक शब्द को दूसरी भौगोलिक स्थिति में रह रहा व्यक्ति ज्यों का त्यों उच्चारण नहीं कर सकता। उच्चारण का यह अन्तर ही अनेक भाषायें बनाता गया वस्तुतः शब्द और विश्व-भाषाओं के इतिहास से पता चलता है कि जिस तरह आज अँगरेजी अन्तर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है उसी प्रकार पहले संस्कृत थी, यह केवल इसीलिये नहीं था कि आदि मानव का जन्म भारतवर्ष में हुआ और यही से सभ्यता का विकास हुआ वरन् भारतीयों ने अपने सन्देश दूर-दूर तक पहुँचाकर लोगों को सभ्य बनाया था।

अफ्रीका की स्वाहिली भाषा के शब्दों में संस्कृत का केन्द्रक होना यह बताता है कि भारतीय अपनी सभ्यता का सन्देश उस प्रकृति के भयंकरतम खण्ड में भी पहुँचाने में सफल हुये थे। स्वाहिनी में ध्यान को धानी, गो को गोम्बे, मृत्यु को माती, सप्त को सबा आदि उच्चारण, करते हैं। पारसियों का प्राचीन साहित्य जो ‘जन्दावस्ता’ के नाम से पुकारा जाता है उसमें जाननु [घुटना], वज्र, अजा, पशु, वैद्य, यव, वायु, इषु आदि संस्कृत के शब्द ज्यों के त्यों अर्थ और उच्चारण में प्रयुक्त हुये हैं। कुछ अक्षरों में तो नाम मात्र का ही अन्तर है उदाहरणार्थ-विश्व का विस्प, छन्द का जन्द, वाहु का बाजु, श्वसुर का कुसुर आदि।

यह उदाहरण और तुलनात्मक अध्ययन जहाँ संस्कृत की प्राचीनता का बोध कराते हैं वहाँ यह भी विश्वास दिलाते हैं कि सारे संसार की एक भाषा हो सकती है और यदि ऐसा हो सकता है तो अपने आप में एक विज्ञान और विश्व-संस्कृति होने के कारण यह स्थान भारतीय सभ्यता, संस्कृति और भाषा को ही मिल सकता हैं। आज हमें विज्ञान के लिये नये शब्द बनाने में दिक्कत का प्रश्न खड़ा किया जाता है पर वस्तुतः यह अपनी भाषा के प्रति हीनता का भाव है संस्कृत एक समर्थ भाषा है उसके व्याकरण से कैसे भी पारिभाषिक शब्द गढ़े जा सकते हैं पर यदि अपने यहाँ विज्ञान की खोज को नया और आध्यात्मिक स्वरूप दिया जा सके तो करोड़ों शब्द पहले से ही ऐसे विद्यमान हैं जिनका अध्ययन दूसरे देशवासियों को उसी तरह करना पड़े जिस तरह आज हमें अँगरेजी भाषा में नये-नये शब्द सीखने के लिये करना पड़ता है।


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