धर्मात्मा गिद्धराज जटायु

July 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जटायु अपने जीवन-कर्तव्य से निवृत्त होकर आयु का अन्तिम चरण शाँतिपूर्वक भगवत्-भजन में बिताता हुआ मोक्ष का प्रयत्न कर रहा था। वह गिद्ध की योनि में सत्कर्मों द्वारा यह सिद्ध कर रहा था कि मोक्ष का प्रयत्न अधम योनि में भी निषिद्ध नहीं है। यदि कोई सच्चे मन से निम्न योनि में भी धर्म-कर्तव्यों का पालन करता है तो वह उस योनि को भी धन्य बनाकर स्वयं भी धन्य बन जाता है और यदि मनुष्य जैसी श्रेष्ठ योनि पाकर भी अधम कार्य करता है तो न केवल उस योनि को ही कलंकित करता है अपितु स्वयं भी अधम बन जाता है। अधमोन्नत योनि जीव के कर्मानुसार ही मानी जानी चाहिए, जन्म के अनुसार नहीं। सत्कर्मों के कारण ही गीध होते हुए भी जटायु ने देव-पद पाया।

रावण की अनीति सीमा पार की गई थी। यहाँ तक कि वह पिता का वचन पालन करने के लिये वन में आकर रहने वाले राम की पतिव्रता भार्या- सीता का भी छलपूर्वक हरण कर लाया। वह आकाश-मार्ग से अपने वायु-गामी विमान में देवी सीता को बलात् लिये जा रहा था। सीता कातर कुररी की तरह विलाप कर रही थी। वे सहायता के लिये अरण्यवासियों को पुकार रही थीं और बार-बार राम और लक्ष्मण का नाम लेकर रक्षा के लिये रो रही थीं।

राम और लक्ष्मण मारीच के भुलावे में आकर जंगल में बहुत दूर निकल गये थे। सीता की कातर पुकार की सीमा से बहुत दूर। अरण्य निर्जन था। वहाँ के अधिकाँश वासी रावण के अत्याचार और आतंक से त्रस्त होकर अन्यत्र चले गये थे। एक जटायु ही वहाँ किसी स्थान पर अपनी अभीष्ट तपश्चर्या में निमग्न हुए रहते थे। वे इस समय लोक से निवृत्त होकर परलोक अर्जन में लगे हुए थे। उनका शारीरिक पौरुष इस समय विश्राम ले रहा था।

ध्यानावस्थित जटायु के कानों में सीता का क्रन्दन पड़ा और शान्त अन्तस् में पहुँचकर ध्वनित हो उठा। उन्हें ऐसा लगा जैसे किसी गतानुगत जीवन की कोई घटनापूर्ण ध्वनि वर्तमान विकास में घिरकर ध्वनित हो उठी है। वे अपनी समाधि-साधना की अपेक्षा से निरपेक्ष ही रहे। किन्तु ध्वनि स्पष्टतर होती हुई तल्लीनता को अनस्थिर बना रही थी। आखिर जागकर ऊपर आना ही पड़ा। पहचानते देर न लगी कि यह क्रन्दन किसी अत्याचार त्रस्त अबला का है, जो सहायता के लिये आह्वान कर रहा है। परोपकारी जटायु ने हस्तगत होता हुआ मोक्ष का छोर छोड़ दिया और उठ पड़े।

परोपकार की भावना ने उनके शिथिल पंखों में नवजीवन का सञ्चार कर दिया और उन्होंने ध्वनि को लक्ष्य करके वेगपूर्ण उड़ान भरी। अच्छा! तो यह लंका का राजा-रावण है और राम की भार्या को बलात् हरण किए लिये जा रहा है। जटायु ने दूर से ही देखकर पहचान लिया और कहा- ठहर, अत्याचारी ठहर। अनीति का जन्मजात शत्रु- जटायु आ गया । साथ ही वातार्णव में डैनों के डाँड इस वेग से मारे कि मुहूर्त मात्र में पुष्पक विमान के आगे आकर प्रतिरोध में टक्कर मारी। रावण के साथ ही पुष्पक भी काँपकर गतिभंग हो गया। रावण ने चौंककर देखा- क्या यान किसी पर्वत-शिखर से टकरा गया? और खंग खींचता हुआ बोला- अच्छा, जटायु तू है। एक ओर धर्मधारी जटायु और दूसरी ओर खंगधारी रावण। निःशस्त्र जटायु ने रावण के छक्के छुड़ा दिये- कई बार परास्त कर दिया। किन्तु निर्लज्ज पापी जूझता ही रहा और अनीतिपूर्ण घात-प्रतिघात करता रहा। पंख कट जाने से जटायु पृथ्वी पर आ गये। रावण ने अट्टहास किया और कहा- क्षुद्र पक्षी, पा गया न अपने दुःसाहस का दण्ड। जटायु ने उत्तर दिया- पापी! परोपकार में प्राण देकर मुझे तो सद्गति मिलेगी ही, पर तेरा सर्वनाश अब निकट ही है जिसको पाकर तू कल्पों तक नरक भोगेगा। जटायु राम द्वारा संस्कार पाकर सद्गति का अधिकारी हुआ और रावण का चिन्ह तक मिट गया।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118