मकड़ी भी भगवान दत्तात्रेय की गुरु

July 1970

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भगवान् दत्तात्रेय ने साधक जीवन में प्रवेश किया तब की बात है। अनेक विद्वानों, योगियों का आश्रय लेने पर भी आत्म-साक्षात्कार और जगत सम्बन्धी उनकी जिज्ञासाओं का समाधान नहीं हो पाया। उनकी अशान्ति दिनों दिन बढ़ती ही जा रही थी। तब वे प्रजापति ब्रह्माजी के पास गये और आत्म-कल्याण के लिये योग्य मार्ग-दर्शक का नाम पूछा।

प्रजापति ने उनकी सारी बात ध्यान से सुनी और बोले-तात! इस तरह तो तुम सारे संसार के पास भी जाकर कुछ न सीख सकोगे। मौखिक शिक्षण तो हर कोई कर सकता है पर अपने लिये व्यावहारिक जीवन नीति अपनाने के लिये यह आवश्यक है कि गुरु के आचरण का भी अध्ययन किया जाय और उसे अपने जीवन में धारण किया जाये। यदि तुम किसी मनुष्य से कुछ नहीं सीख सकते तो अब प्रकृति की शरण में जाओ। वहाँ तुम्हें प्रत्येक अणु-प्रत्येक कण और तुच्छ दिखाई देने वाले जीव-जंतुओं में भी ऐसी अगणित प्रेरणायें और व्यावहारिक शिक्षण प्राप्त करने का अवसर मिलेगा जिससे अपनी जीवन-नीति और संसार की वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त करना सुगम हो जायेगा।

पितामह ब्रह्माजी की बात सुनकर दत्तात्रेय वहाँ से चल पड़े। उन्होंने पाया कि वस्तुतः प्रकृति के असंख्य जीवों में असंख्य प्रेरणायें, ज्ञान और शिक्षण भरा पड़ा है। चील को देखकर उन्हें अपने लक्ष्य के प्रति तन्मयता और लम्बी साधना, धैर्य और सक्रियता की प्रेरणा मिली तो एक गुरु चील को बना लिया। समुद्र को देखकर उन्होंने जाना कि संसार की विभिन्न परिस्थितियों, घात-प्रतिघातों को भी जो अपने में अविचल भाव से भरता चला जाता है वह समुद्र के समान अक्षय, विशाल, धीर और गम्भीर बन जाता है। इसी तरह कुमार सर्प, स्त्री, बैल आदि विभिन्न जीव-जन्तुओं को अपना गुरु वरण करते हुये भगवान् दत्तात्रेय ने ज्ञान, कर्मकुशलता, गुण और भावनाओं का दीर्घ-प्रकाश अपने में धारण कर लिया। उनके इस महान् अर्जन-तप की सर्वत्र चर्चा होने लगी।

तब एक दिन वह पुनः एक और गुरु की खोज में निकले। चलते-चलते उन्हें एक झाड़ी दिखाई दी। उस झाड़ी में बने एक बहुत कलात्मक मकड़ी के जाले को देखकर वहीं रुक गये। सृष्टि का एक अत्यन्त तुच्छ जीव बुद्धिमान यान्त्रिकों की सी कारीगरी जानता है, वह यह सब कैसे करता है, उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। दत्तात्रेय वहीं चुपचाप बैठ गये और नन्हीं सी मकड़ी का वह व्यापार तन्मयतापूर्वक देखने लगे।

साधन-विहीन मकड़ी उसके पास कुछ भी तो नहीं था। झाड़ी की शाखा में चुपचाप बैठी थी। सम्भवतः उसे अकेलापन अच्छा नहीं लग रहा था। अकेला मनुष्य तो भावाभिव्यक्ति भी नहीं कर सकता, प्रेम, सेवा, सहानुभूति का तो आनंद ही कहाँ मिलता? मकड़ी ने तब अपने शरीर की पीछे की थैली से एक प्रकार का लसलसा द्रव निकालना प्रारम्भ किया। पीछे की इस थैली का सम्बन्ध मस्तिष्क से होता है, इसलिये जब भी वह इच्छा करती है यह द्रव निकालने लगती है। थैली में चलनी की तरह के छेद होते हैं जिन्हें रोम छिद्र कहते हैं। यह द्रव उन्हीं से निकलता और हवा के संपर्क में आते ही सूख कर कड़ा हो जाता है। मकड़ी को पीछे का यह हिस्सा दिखाई नहीं देता तथापि वह अपनी इच्छा-शक्ति से जब भी जितना, जहाँ आवश्यक हुआ यह जाला निकालती है और अपना काम चलाती रहती है। यह कार्य वह मस्तिष्क की नाड़ियों में जोर डालकर करती है। उसकी सम्वेदनशीलता इतनी सूक्ष्म होती है कि कहाँ कितना मोटा कहाँ कितना पतला सूत चाहिये यह वह अपने मन से ही समझकर सूत को उतना ही मोटा पतला निकालती रहती है।

इस जाले से वह एक ही प्रकार का मकान नहीं बनाती। बच्चों के रहने के लिये वह एक विशेष प्रकार का बिल दार मकान बनाती है इससे लगा सूत इतना सघन होता है कि उसमें से होकर हलकी बौछारें और शीत आदि मौसम के प्रभाव भी अन्दर नहीं जा सकते। अपने लिये एक हवादार महल तैयार करती है। उसमें कई भाग होते हैं एक तो उसका निजी कक्ष, एक शिकार पकड़ने का जाला। अपने निजी निवास से वह एक डोरा सारे मकान में इस तरह जोड़कर रखती है कि वह अपने निजी-कक्ष में बैठी हुई ही सारे किले की जानकारी लेती रहती है।

मकड़ी के कान नहीं होते। वह सुन नहीं सकती पर अपनी अतीन्द्रिय क्षमता सूक्ष्म-स्पन्दनों से सब कुछ समझ लेने की सामर्थ्य का उपयोग करके वह यह देखती रहती है कि किले में कहाँ कौन आया। खबर लगते ही वह अपने बच्चों के दुश्मनों से लड़ती है, उन्हें मार भगाती है। शिकार फस गया हो तो उसे पकड़कर खा जाती है। कई बार शिकार बड़ा और ताकतवर होता है तब वह पहले अपने इसी सूत से उसे चारों तरफ से लपेट कर बन्दी बनाती है और तब उससे निपटती है।

मकड़ी अपनी स्पर्शेन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय से अपने जाले ही नहीं, जाले के आस-पास और यहाँ तक कि मौसम की बारीकियों तक का भी पता लेती है। मनुष्य जैसा बुद्धिमान प्राणी भी यन्त्रों की ही मदद से जान सकता है कि वर्षा या मौसम के सम्भावित परिवर्तन का स्वरूप और समय क्या होगा, पर मकड़ी को किसी बाहरी यन्त्र की आवश्यकता नहीं पड़ती वह अपनी शारीरिक चेतना के उपयोग से ही यह जान लेती है कि इतनी देर बाद वर्षा होगी, बादल आयेंगे धूप निकलेगी आदि-आदि।

दत्तात्रेय यह सब देखते जा रहे थे और प्रकृति के इस अनोखे व्यापार पर विह्वल भी। सृष्टि के आविर्भाव का एक महान् रहस्य उनकी आत्मा में प्रकट और स्पष्ट होता जा रहा था। वे ध्यानमग्न मकड़ी के इस कूट-जाल का निरीक्षण करने में लगे थे, दिन बीतता जा रहा है इसका उन्हें कुछ भी भान न था।

अभी तक अकेले थी वह मादा मकड़ी। कुछ विश्राम के लिये रुकी तभी एक नया दृश्य सम्मुख उपस्थित हुआ। एक नर मकड़ी जो मादा से आकृति में छोटा होता है उस जाल के पास आता है और सन्देश-सूत्र के सहारे कोई सन्देश प्रसारित करता है। यह उसका प्रणय-निवेदन था। नर मकड़ी निर्बल और भावुक होती है, विवाह की इच्छा उसे स्वयं प्रकट करनी पड़ती है। मादा इस प्रणय-याचना को एकाएक स्वीकार नहीं कर लेती। मनुष्य दाम्पत्य जैसे पवित्र आध्यात्मिक सम्बन्ध पर विचार करे या न करे उसे लौकिक दृष्टि से ही देखे अथवा पारमार्थिक समायोजन भी रखे यह उसकी अपनी बात है पर मकड़ी इस सम्बन्ध में स्पष्ट है। वह अपने पति का चुनाव देर तक संपर्क रखने के बाद जब यह जान लेती है कि भावी-पति में पतित्व के सब गुण हैं तभी सम्बन्ध स्वीकृति प्रदान करती है। इस संपर्क व्यवस्था में उस एक ही सूत से काम चलता रहता है। उसी से वह मकड़े की मानसिक स्थिति, स्वास्थ्य, गुणों आदि का पता लगाती रहती है, योग्य होने पर ही वह विवाह रचाती है।

इसके बाद मादा प्रजनन करती है। बच्चों का पालन-पोषण और उनकी सुरक्षा दोनों मिलकर करते हैं।

दत्तात्रेय यह सब कुछ तन्मयतापूर्वक देख रहे थे और मकड़ी को जैसे इस बात का पता ही न हो वह एकान्त भाव से अपने जीवन-लक्ष्य की ओर बढ़ रही थी।

पिछली थैली से सूत निकाला और नाला पार करने के लिये वह आकाश में तैरी किन्तु हवा की दिशा विपरीत थी वह आगे नहीं बढ़ सकी। फिर जहाँ की तहाँ आ लटकी। किन्तु इससे वह निराश न हुई। पुनः उड़ी फिर वापस आई। बीसियों प्रयत्न बेकार हुये अन्ततः एक बार हवा को अनुकूल होना ही पड़ा। हवा अनुकूल हुई और मकड़ी पीछे से जाला निकालती उस पार जा पहुँची। वहाँ उसने एक ताना एक झाड़ी की शाखा से जोड़ दिया। फिर दूसरा ताना निकालती पहली तरफ आई। कई बार इधर से उधर आ-जाकर उसने जाले को मजबूत कर दिया फिर एक बार उस पर लटककर परीक्षा की कि पुल टूटेगा तो नहीं। जब उसकी दृढ़ता पर विश्वास हो गया तो उसे अपने बच्चों की सेवा में भी समर्पित कर दिया।

एक मकड़ी इधर से चली। उधर की झाड़ी से नीचे उतर गई। सम्भवतः उसे धरती पर रहने की अपेक्षा पानी में रहना पसन्द था। उसने पानी में एक स्थान की खोज की। एक माँसाहारी पौधा उसे दिखाई दिया। कुछ सोचकर उसने वहीं पर अपना किला तैयार कर लिया।

वह जब चाहती अपना सारा जाला स्वयं खाकर फिर अपने मूल निवास को लौटने के लिये तैयार हो जाती। यह सारे दृश्य देखते-देखते प्रातः से शाम हो चली। दत्तात्रेय के हृदय में सृष्टि-संचालन प्रक्रिया का एक गूढ़ रहस्य स्पष्ट हो गया। उन्होंने अनुभव किया आत्मा एक सूक्ष्म चेतन सत्ता है। मकड़ी के समान वह अपनी इच्छा से अपने ही अन्दर से पंच-तत्वों की रचना करती है। जाले से जिस प्रकार मकड़ी अनेक तरह के मकान बनाती है वह भी इन पंचतत्वों से विराट् संसार का निर्माण करती है। इन पंच-तत्वों के प्रपंच में फँसने की अपेक्षा आत्मा को जानने वाला व्यक्ति ही परा-शक्तियाँ, महासमर्थ और अतीन्द्रिय क्षमतायें एकत्रित करता है।

यह संसार चेतना का ही खेल है। यहाँ मकड़ी के समान क्रियाशील, साहसी, कठिनाइयों से भी हिम्मत न हारने वाले पर देर तक विचार-विमर्श करके जीवन की आवश्यक नीतियाँ निर्धारित करने वाले व्यक्ति ही सफल होते हैं। कुछ लोग जो विषयासक्ति में पड़े रहते हैं, वह उन कीड़ों की तरह होते हैं जिनको पौधे भी खा जाते हैं इसलिये विषयासक्ति ही संसार में दुःख है। मनुष्य को चाहिये कि वह संसार में जितनी चाहे सफलता प्राप्त करे पर सब कुछ निष्काम भाव से करता हुआ अन्त में अपनी सम्पूर्ण चेष्टाओं, इच्छाओं को कूटकर अपने में ही समेट कर आत्म-चेतना में लीन हो जाये।

एक बड़े रहस्य से पर्दा उठ गया। दत्तात्रेय ने प्रजापति को एक महत्वपूर्ण दिशा निर्देश के लिये धन्यवाद दिया और मकड़ी को प्रणाम कर कहा-आप मेरी अन्तिम गुरु हैं। अब मुझे और कुछ जानना शेष नहीं रहा। दत्तात्रेय आत्म-कल्याण की साधना के लिये वहाँ से चल पड़े। उधर भगवान् सूर्य पश्चिम क्षितिज पर ढलते जा रहे थे। इधर दत्तात्रेय अपने पाँव बढ़ाते हुये आगे बढ़ रहे थे, मानों उनके और भगवान सूर्य के लक्ष्य में कोई अन्तर न हो।


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