अज्ञ रहना अन्धकार में भटकना है।

July 1970

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ज्ञान स्वयं एक अनिवर्चनीय आनन्द है। ज्ञानोद्भूत आनन्द की तुलना आत्मानन्द के सिवाय और किसी से नहीं की जा सकती। भौतिक उपभोगों के सुखों और ज्ञान-जन्य आनन्द के बीच दरिद्री तथा श्रीपति जैसा अन्तर हैं। जिसने एक बार ज्ञान के पवित्र आनन्द का आस्वादन कर लिया, उसके लिये इन्द्रियजन्य आनन्द सदा सर्वदा के लिये हेय तथा अग्राह्य हो जाता है। जब तक मनुष्य आनन्द के लिये ज्ञानार्जन का मार्ग छोड़कर विषयों तथा इन्द्रियों के संयोग में सुख खोजता रहता है तब तक वह मरुमरीचिका में प्यास बुझाने का प्रयत्न जैसी ही मूढ़ता करता रहता है। एक बार ज्ञान का रसास्वादन करने पर वह उसी प्रकार परितृप्त हो जाता है, जिस प्रकार कोई प्यासा सुन्दर, स्वच्छ एवं प्रसन्न जलाशय को पाकर हो जाता है। आत्मा की प्यास ज्ञान रूपी अमृत से ही परितृप्त होती है। सारे काम करते रहकर अथवा काम छोड़कर भी, जैसी भी परिस्थिति हो मनुष्य को ज्ञान-लाभ करने का प्रयत्न अवश्य करते रहना चाहिये। मनुष्य का जीवन पाकर जिसने ज्ञान की कतिपय बूँदें भी इकट्ठी न कीं उसने मानो इस रत्न को मिट्टी मोल खो दिया।

सारे सद्विषयों की परिलीनता एक ही आत्म-ज्ञान के महासागर में पूर्ण होती है। अस्तु यह आवश्यक नहीं कि मनुष्य प्रारम्भ से ही सारे विषयों को छोड़कर एकमात्र आध्यात्मिक ज्ञान में ही तल्लीन हो जाये। जिनको इस प्रकार की सुविधा प्राप्त हो उन्हें तो एक क्षण नष्ट किये बिना ही आध्यात्म-ज्ञान की प्राप्ति में लग जाना चाहिए। किन्तु जिनको इस प्रकार की सुविधा प्राप्त न हो उन्हें अपने आवश्यक विषयों के अध्ययन में लगना ही चाहिए। भौतिक विषयों का अनुसरण भी यदि यह विश्वास एवं दृष्टिकोण रखकर पवित्रता एवं निस्पृहता के साथ किया जाये कि इन सारे विषयों का सम्मिलीकरण एक, अनन्त अगाध एवं परिव्याप्त विषय आत्म-ज्ञान में ही होता है, तो भावना के अनुसार साँसारिक विषयों का भी वही फल बताया गया है जो आध्यात्मिक प्रयासों का।

ज्ञान क्या है? किसी विषय की पूर्ण एवं व्यवस्थित जानकारी को ज्ञान कहा जाता है। यह जानकारी पूर्ण रूप से प्राप्त होने पर, फिर उसका विषय कोई भी क्यों न हो, एक आत्म-सन्तोष एक आत्मभूत आनन्द ही देती है। उदाहरण के लिये राजनीति का ही विषय ले लीजिए। यों तो यह विषय बड़ी ही व्यस्तता, व्यग्रता एवं अशाँति का कारण बतलाया गया है, और इसमें उलझे हुए अधिकाँश लोग अशान्त तथा व्यस्त ही दीखते हैं तथापि जब इसका ज्ञान पूर्णता को पहुँच जाता है तब वह आनन्द का हेतु बन जाता है। राजनीति के धुरन्धर दिन और रात में से अपना कोई भी क्षण बेकार नहीं खोते। वे परिश्रम एवं स्वाध्याय द्वारा अपने राजनैतिक ज्ञान को अनुदैनिक बनाये रहते हैं। सम्पूर्ण संसार की राजनीतिक गति-विधियों तथा उसके अनुबन्धित विषयों का आधुनिकतम ज्ञान उपलब्ध किये रहते हैं। इससे उनको एक प्रकार से सारा संसार ‘करतलगत आमलक समान’- हो जाता है। वे अपने कक्ष में बैठे हुये संसार की सारी गतिविधियाँ, अपने ज्ञान बल पर चलचित्र की भाँति देखा करते हैं। ज्ञान द्वारा प्राप्त यह दिव्य दृष्टि एवं यह आश्चर्यजनक उपलब्धि कितना आनन्द दे सकती है इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इस आनन्द की प्रेरणा आत्म-ज्ञान की ओर अग्रसर न करेगी तो क्या इन्द्रिय जन्य भोग सुख की ओर करेगी? इसी प्रकार संसार का कोई भी विषय क्यों न हो उसका सम्पूर्ण ज्ञान समग्र जानकारी आत्मानन्द का ही हेतु बनती है।

जहाँ ज्ञान आनन्द का कारण है वहाँ अज्ञान घोर अशान्ति का हेतु माना गया है। अज्ञान अथवा अविद्या एक तो यों ही अन्धकार माना गया है, और अन्धकार में ग्रस्त मनुष्य का अशान्त रहना स्वाभाविक ही होता है। फिर जीवन में अजानकारी का दोष कितना अशान्त एवं व्यग्र बना देता है इसको समझने के लिये यह साधारण सा उदाहरण ही पर्याप्त है।

जीवन की सबसे आवश्यक, अनिवार्य तथा सामान्य क्रिया ‘ठाठ-बाट’ मानी गई है। क्रय-विक्रय का समुचित ज्ञान न रखने वाला व्यक्ति बाजारों में अधिकतर ठगा ही जाता है। भावों का पता न रहना, वस्तुओं के गुण-दोषों को न जानना, उनकी उपयोगिता-अनुपयोगिता के सम्बन्ध में अज्ञानता मानो एक ऐसा अपराध है, समाज में जिसे क्षमा नहीं किया जा सकता। दुकानदार उसकी इस त्रुटि का पूरा-पूरा लाभ उठाता है। ऊँचे दामों पर घटिया चीजें भेड़ता है। अपने वाक्जाल में घेरकर अनावश्यक एवं अनुपयोगी चीजें माथे मढ़ देता है। इस प्रकार जब वह गाँठ के खरे दाम खोकर घटिया एवं अनुपयोगी चीजें लेकर आता है, तब उसको बेवकूफ बनना पड़ता है। जानकार लोगों के उपहास का विषय बनता है। इस प्रकार अपने अज्ञान का ज्ञान होने पर उन्हें कितना असन्तोष तथा अशान्ति होती होगी, इसे तो उस स्थिति का व्यक्ति ही जान सकता है।

अज्ञान के कारण मनुष्य में आत्म-विश्वास की कमी रहती है। इसलिये या तो वह आवश्यक होने पर भी बहुत से कामों को करने का साहस नहीं करता और यदि डरता-डरता करता भी है तो बहुधा उसमें असफल ही रहा करता है। अज्ञानजन्य असफलता कितने बड़े सन्ताप का कारण होती है- इसे तो वही प्रकट कर सकता है जिसे उन परिस्थितियों का अनुभव होता है।

अज्ञानी व्यक्ति के लिये यात्रा तो एक भयंकर काम है। मार्ग न जानना, भाड़े का ज्ञान न होना, गाड़ियों का समय एवं स्वयं स्थान की अजानकारी वे कमियाँ हैं, जिनके कारण बहुत बार तो लोग जेब के पैसे और पास का माल-असवाब खोकर खाली हाथ घर वापिस आते रहते हैं। इस प्रकार के अशिक्षित तथा अजानकार बहुत-से व्यक्ति आये दिन स्टेशनों पर इधर-से-उधर जिस-तिस से गाड़ी तथा भाड़ा को पूछते-भागते देखे जा सकते हैं। अज्ञानी व्यक्ति को संसार में सभी ज्ञानवान् दिखाई देते हैं। उसकी पूछताछ का जो व्यक्ति भी जो उत्तर दे देता है, उसी पर विश्वास कर लेता है और इस प्रकार बहुत बार लोगों के विवाद का कारण बन जाता है, अथवा न जाने कहाँ का कहाँ पहुँच जाता है। इस दुनिया में सबसे अधिक कष्ट तथा व्यग्रता अज्ञानी व्यक्ति को ही होती है। उसे कदम-कदम पर ऐसे अवसर आते रहते हैं, जो उसको शाँत अथवा सन्तुलित नहीं रहने देते हैं। अज्ञान का एक बड़ा दण्ड पर-निर्भरता भी है। अशिक्षित अथवा अज्ञानी व्यक्ति को एक पत्र लिखाने-पढ़ाने अथवा संसार का कोई समाचार जानने के लिये दूसरे पर ही निर्भर रहना पड़ता है। वह न तो स्वयं पढ़ सकता है और न ठीक से कोई बात समझ सकता है। कदम-कदम की असफलता एवं पर-निर्भरता में कितना सन्ताप, अशान्ति एवं असन्तोष रहता है इसका वर्णन उसके लिये भी सम्भव नहीं जो उसकी आग में जला करता है। अज्ञान का दोष दुर्भाग्य का बहुत प्रबल प्रतिनिधि है। इसे तो हर सम्भव उपाय से मार ही भगाना चाहिए।

जब संसार की साधारण बातों में अज्ञान-अशाँति का इतना बड़ा कारण हो सकता है, तब जीवन आत्मा के और परमात्मा के विषय में उसका अन्धकार कितना भयंकर हो सकता है-इसका अनुमान लगा सकना कठिन है। आत्मा होकर भी अपने को शरीर मानना एक ऐसा अन्य अज्ञान है जो मनुष्य को न केवल लोक अपितु परलोक तक भ्रष्ट कर देता है। अपने को देह मानकर चलते रहने वाले अज्ञानी व्यक्ति ही तो अपनी इन्द्रियों को विषयों द्वारा तृप्त करने में लगा रहकर अपनी आत्मा का नाश किया करते हैं। भोग-विलास की तृष्णा उन्हें मनुष्य से पशु बनाकर रख दिया करती है। वित्तेषणा तथा लोकेषणा की पिशाची उनको कर्म-अकर्म और धर्म-अधर्म की विवेकबुद्धि से वञ्चित रखकर अवसाद की तरंगों पर उठाती-पटकती रहती हैं। दिन-रात शरीर-सेवा में लगे वे इतने मूढ़ हो जाते हैं कि इसके आगे भी एक आत्मा एवं परमात्मा का वह विषय पड़ा हुआ है, जिसका अन्वेषण ही मानव-जीवन का प्रमुख ध्येय है। ऐसे व्यक्ति जल्दी ही देर तक सीमित रहकर आत्मा के साथ-साथ शरीर का भी सर्वनाश कर लेते हैं। अनेक तरह के दैहिक तथा मानसिक रोगों के शिकार बनकर अपने जीवन का एक-एक क्षण अशाँति एवं असन्तोष से भर लिया करते हैं।

जीवन में अशाँति एवं असन्तोष से दूर रहने और एक स्थायी सुख-शाँति प्राप्त करने के लिये मनुष्य को अज्ञान के अन्धकार से निकल कर ज्ञान के प्रकाश में आना ही चाहिए। अशाँत एवं असन्तुष्ट जीवन असफल तथा पापपूर्ण जीवन माना गया है। ज्ञान का प्रकाश पाते ही मनुष्य की आत्मा चमत्कृत हो उठती है। उसके आगे आशा, विश्वास, उन्नति एवं सफलता के हजारों फूल खिलकर अपनी मोहक मुस्कान से उसे आकर्षित करने और बुलाने लगते हैं, मनुष्य-जीवन पाकर जिसने ज्ञान प्राप्त करने के लिये अपने को प्रयत्न एवं पुरुषार्थ से विरत रखा, उसने मानों जीवन में कुछ किया ही नहीं। अनन्त धनराशि, विपुल वैभव, अपरिमित उन्नतियाँ-यदि इनका उद्देश्य आत्मानन्द की ओर प्रेरित करना नहीं है तो तृष्णा आत्मानन्द की तरह निरर्थक एवं निःसार ही मानी जायेगी। ज्ञान के आलोकाभाव में यह सारी उपलब्धियाँ मनुष्य को गलत रास्ते पर ही डालने में सहायक होती हैं। यह कारण अज्ञान ही तो ही कि जीवन की सारी सुख-सुविधायें एकत्र होने पर भी अधिकाँश धनी लोग अधिकाधिक व्यग्र एवं अशाँत रहा करते हैं। ज्ञान का सच्चा रसास्वादन करने वाले विद्वान अथवा महात्मा धन-सम्पत्ति कुछ भी न होने पर भी कितने सुखी, सन्तुष्ट तथा शाँत चित्त देखे जाते हैं। ज्ञान का आलोक प्रकार उन्हें किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं रहती। वे सागर की तरह अपनी गम्भीरता में निमग्न आत्म-तुष्ट रहा करते हैं।

ज्ञान द्वारा मनुष्य में जिस दिव्य तेजस्विता का समावेश होता है उसकी तुलना में श्रीमन्तों तथा शासकों का तेज भी नगण्य ही माना जाता है। किसी विद्वान् महात्मा अथवा ज्ञान-गरिमा से अभिभूत व्यक्ति को देखकर सबका मस्तक अनायास ही श्रद्धा से झुक जाया करता है। विद्वान् का आदर-स्वागत बड़े-बड़े श्रीमन्त भी उठकर और आगे बढ़कर किया करते हैं। ज्ञान के धनी विद्वान् का सब कालों तथा सब देशों में सदैव ही सच्चा एवं समुचित आदर होता है। उसके वचन आर्ष-वाक्यों की तरह ही माननीय एवं विश्वस्त माने जाते हैं। संसार का सुधार तथा उसको नई दिशा देना विद्वानों का ही अधिकार है। इस तेजस्विता से किसी मौलिक आनन्द की उपलब्धि होती होगी-यह तो ज्ञानवान् बनकर ही जाना जा सकता है। संसार का सारा सार एवं सुख एक इस ‘ज्ञान’ शब्द में सन्निहित हुआ रहता है। इसकी इतनी महत्ता होते हुए भी जो व्यक्ति अज्ञान के अन्धकार से निकलकर ज्ञानलोक में आने का प्रयास नहीं करते उन्हें मूढ़, दुर्भाग्यवान् अथवा पाप-ग्रस्त प्राणी के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? वास्तव में वह मनुष्य सर्वश्रेष्ठ तथा सौभाग्यवान् ही है जो दिनों-दिन ज्ञान की सम्पत्ति संचय करने में लगकर अपने लोक एवं परलोक दोनों को बनाने की बुद्धिमानी कर रहा है।


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