समय और चेतना से उठकर आम-चेतना के दर्शन

July 1970

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धर्म-अधर्म, आस्तिकता-नास्तिकता, आध्यात्म और अनात्म का द्वन्द्व बहुत दिनों से चल रहा हैं। धर्म की आवश्यकता और ईश्वर के अस्तित्व के लिये लोगों की मान्यतायें ऐसी जटिल हो गई हैं कि उनकी अनुभूति करना कराना वस्तुतः एक बड़ी समस्या हो गई है। मनुष्य अपने पूर्वाग्रह अर्थात् वह जिस स्थिति में है उसे छोड़ने के लिये तैयार नहीं और ईश्वरीय नियम भी अपने आप में इतने अटल और अविचल हैं कि वह भी अपने स्थान से एक इंच हटने को तैयार नहीं। पूर्वाग्रह या मनुष्य द्वारा अपने स्थूल रूप को सब कुछ मान लेने की धारणा और ईश्वरीय नियमों की अटलता के बीच ऐसी रस्साकशी उठ खड़ी हुई है कि मनुष्य यह भी सही-सही नहीं जान पा रहा है कि उसका और संसार का वास्तविक स्वरूप क्या है?

भारतीय धर्म और आध्यात्म में मनुष्य को जीवन सम्बन्धी यथार्थ की अनुभूति कराने की सामर्थ्य है किन्तु विभिन्न मत-मतान्तरों, विज्ञान में विश्वास और व्यक्ति की आसक्ति प्रवृत्ति के कारण धर्म एक ऐसी विवादास्पद धारणा बन गई है जिस पर विश्वास करने से पूर्व ही प्रबुद्ध वर्ग कतरा जाते हैं। उन्हें सापेक्षवाद (थ्योरी आफ रिलेटिविटी) के आधार पर यथार्थ की अनुभूति कराया जाना सम्भव है।

हम विश्व के यथार्थ को क्यों नहीं समझ पाते? महा अणु विज्ञानी आइन्स्टीन अपने सापेक्षवाद सिद्धाँत (थ्योरी आफ रिलेटिविटी) के द्वारा उत्तर देते हैं- “हमारे साधारण विचार, समय और पदार्थमय हो गये हैं [वी आर बाउण्ड टु टाइम एण्ड स्पेस]। हम इनसे मुक्त नहीं हो पा रहे। किन्तु हमारा समय और स्थान या पदार्थ से बँध जाना समस्त प्रकृति या विराट् जगत् का दर्शन कराने में असमर्थ है। हम प्रकृति की वास्तविकता को तभी पहचान सकते हैं जब समय और स्थान [टाइम एण्ड स्पेस] से हम ऊपर उठ जायें।”

समय और स्थान क्या है? यह वास्तव में कुछ भी नहीं हैं, हमारे मस्तिष्क की कल्पना या रचना मात्र हैं। लोग कहा करते हैं कि- मैं आठ बजकर आठ मिनट पर घर से निकला, मेरी सगाई 2 जुलाई को सायं सात बजे हुई, राम और श्याम में परसों दोपहर 12 बजे लड़ाई हो गई, किशोर ने मई सन् 1955 में हाई स्कूल में परीक्षा दी आदि आदि। इन वाक्यों को ध्यान से कई बार पढ़ें तो हमें मालूम होगा कि प्रत्येक समय किसी-न-किसी घटना से जुड़ा हुआ है। समय दरअसल कोई वस्तु ही नहीं है। यदि कोई घटना या क्रिया न हुई होती तो हमारे लिये समय का कोई अस्तित्व ही नहीं होता। आठ बजकर आठ मिनट, सात बजे, मई सन् 1857, परसों-यह सब घटनाओं की सापेक्षता (रिलेटिविटी) मात्र है। जिसे हम 1957 कहते हैं उसे हम सम्वत् 2015 भी कह सकते हैं। शक सम्वत् के हिसाब से वह कोई और ही तिथि होगी, आर्य सम्वत् प्रणाली के अनुसार वह और ही कुछ होगा क्योंकि वे लोग समय की माप उस अवस्था से करते हैं जब से यह पृथ्वी या पृथ्वी में जीवन अस्तित्व में आया। कल्पना करें कि पृथ्वी का अस्तित्व ही न होता तब हमारे लिये समय क्या रह जाता-कुछ भी तो नहीं। यदि हम घटनाओं से परे हो जायें तो समय नाम की कोई वस्तु संसार में है नहीं। ऐसी कल्पना तभी हो सकती है जब हम सारा चिन्तन, क्रिया-कलाप छोड़कर मस्तिष्क बन जायें या मस्तिष्क में केन्द्रीभूत हो जायें अर्थात् समय मस्तिष्क की रचना के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जब हम अपने आपको समय के ऊपर उठकर देखते हैं तो हमें अपनी मस्तिष्कीय चेतना के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता, तब हमारा सही रूप से एक भिन्न व्यक्तित्व होता है। तब हम लगातार विचार, ज्ञान, अनुभूति या प्रकाश की किरण के समान हो जाते हैं और स्थूल शरीर के प्रति अपना मोह-भाव समाप्त हो जाता है। माँडूक्य कारिका [2। 14] में इसी बात को शास्त्रकार ने यह शब्द दिये हैं-

चित्तकाला हि येऽन्तस्तु द्वय कालाश्च ये बहिः।

कल्पिता एव ते सर्वे विशेषो नान्यहेतुकः॥

“हे शिष्य! यह संसार वास्तव में चित्त की अनुभूति और घटनाओं की सापेक्षता मात्र है, सब कुछ कल्पित है। दृश्य संसार में विशेषता कुछ भी नहीं है।”

महर्षि पातञ्जलि ने यही तथ्य इस तरह प्रतिपादित किया है-

-पातञ्जलि योग दर्शन 3। 52

जब हम अपना ध्यान समय के अत्यन्त छोटे टुकड़े क्षण में जमाते हैं तभी संसार की सही स्थिति का निरीक्षण कर सकते हैं।

समय की भाँति ही मनुष्य के सामने आने वाली सभी वस्तुयें भी सापेक्ष हैं। भौतिक पदार्थ साधारणतया कोई अपरिवर्तनीय [एब्सोल्यूट] मूल्य नहीं रखते वरन् चुने गये प्रसंग के अनुसार मूल्य रखते हैं। उदाहरण के अनुसार आप जिसे मिट्टी कहते हैं, यदि उसे आप किसी रसायनज्ञ के पास ले जायें तो वह उस ढेले का रासायनिक विश्लेषण [केमिकल एनालिसिस] करेगा और बतायेगा इसमें इतना भार इस धातु के कण, इतना नमक है, इतना पानी और अमुक-अमुक गैसों के समूल कण। इस तरह हमें दिखाई देने वाले सभी भौतिक पदार्थ वैज्ञानिकों की दृष्टि में कार्बनिक [आर्गेनिक] या अकार्बनिक [इनार्गेनिक] कण मात्र होते हैं। उन्हीं से यह सारा संसार बना है।

संसार परमाणुमय है। परमाणुओं के मिलने से पदार्थ बनते हैं और पदार्थों से मिलकर स्थान, देश और ब्रह्माँड बने। इस ब्रह्माँड को ही हम पदार्थों के रूप में खाते हैं, पहनते हैं, उसी में रहते हैं। हमारा शरीर भी तो पदार्थ या परमाणुओं से बना हुआ है। यह भी एक प्रकार का ब्रह्माँड ही है। आइन्स्टीन ने सम्भवतः शरीर रूपी पदार्थ जगत् [स्पेस] में एक मस्तिष्कीय सतर्कता होने के विश्वास स्वरूप अपना यह मत व्यक्त किया था कि प्रत्येक ब्रह्माँड को एक सतर्कता [सेन्टीमेन्ट] नियन्त्रण करती है अर्थात् पृथ्वी की या प्रत्येक ग्रह-नक्षत्र की अपनी एक स्वतन्त्र चेतना या अहंभाव है और वह मनुष्य के समान ही गणितीय आधार पर [इन दि मैथेमेटिक वे] काम करती रहती है अर्थात् संसार मस्तिष्क द्वारा पदार्थों की रचना के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं।

हम जब तक अपने स्थूल रूप से देखते हैं तब तक संसार की स्थूलता दृष्टिगोचर होती है लेकिन यहाँ भी किसी प्रकार की सत्यता नहीं है। प्रत्येक परमाणु संसारमय है अर्थात् हर परमाणु की रचना एक भरे-पूरे संसार जैसी है उसमें पूरे के पूरे संसार के दर्शन कर सकते हैं और उस पर भी मस्तिष्क [सतर्कता] बैठा हुआ होता है। वैज्ञानिक पद्धति से विश्लेषण करने से पता चलता है कि परमाणु भी अन्तिम सत्य नहीं है वह और भी सूक्ष्म आवेशों-इलेक्ट्रान, प्रोट्रॉन, पाजिट्रान और न्यूट्रॉन से बना होता है। जो समझाने के लिये उन्हें बिन्दु के रूप में दिखाया जाता है किन्तु इलेक्ट्रान पदार्थ नहीं, तरंग रूप [वेविकल शेष] में हैं। अर्थात् हम जिन पदार्थों को देख रहे हैं, यदि अपने देखने की स्थूलता हटा दें और केवल मस्तिष्क से हटा दें तो वह एक तरंग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है अर्थात् हम जिस संसार को स्थूल रूप में देख रहे हैं वह तो हमारा दृष्टिदोष है। क्वांटम सिद्धाँत [थ्योरी आफ लाइट क्वांटम] के अनुसार जो वस्तु कण के रूप में है वह उसी प्रकार से तरंग के रूप में है। साधारण अवस्था में हम उसे ठीक तरंग रूप में नहीं देख पाते। उसका और कोई कारण नहीं वरन् हमारे मस्तिष्क का पदार्थ से बँधे रहना मात्र होता है।

इस सब जानकारी का उद्देश्य मनुष्य को विभ्रमित या आश्चर्यचकित करने का नहीं है वरन् उसके दृष्टिकोण को चौड़ा करना है, जिससे वह अपने शाश्वत स्वरूप को समझाने की चेष्टा कर सकता है। हम अपने आपको कितना ही धोखा दें, कितना ही शरीर, समय और स्थान में बँधे हुए देखे पर हमारा विशुद्ध ‘अहंभाव’ [शाश्वत स्वरूप] तो अपने नियमों से विचलित होने वाला हैं नहीं। तब फिर हमारे लिये अपने आपको पदार्थों की सीमा में बाँधना कहाँ तक उचित होगा? कहाँ तक हम अपने मनुष्य-जीवन में आने के लक्ष्य को न पहचानने की भूल करते रहेंगे?

पदार्थ या स्थान और समय में कोई सत्यता नहीं है। कोई भी निश्चित एक ब्रह्माँड नहीं है, जिसमें कि संसार समा सके। अनेक ब्रह्माँड है और वह सब मस्तिष्क में समाये हुए हैं। एक कण प्रकृति का एक अहंभाव, चेतनता या परमेश्वर का दो ही अनादि तत्त्व हैं। उनका विस्तृत ज्ञान जब तक नहीं जिसमें मनुष्य इसे साँसारिक भूल-भुलैया में ही गोते लगाता रहेगा। क्योंकि हम जिस सुख-शाँति, सन्तोष और आनन्द की खोज में है वह पदार्थ में मस्तिष्क की अपनी अनुभूति है इसलिए यथार्थ आनन्द की प्राप्ति भी स्थान और समय से ऊपर उठकर ही प्राप्त नहीं की जा सकती है।

कोई मूलभूत समय भी नहीं है जिसमें कोई घटना घटित हुई है। निरीक्षण के अनुभव ही समय की रचना करते हैं और इसी समय से हम ब्रह्माँड को, स्थान को, अपने जीवन को नापते हैं। यदि हम अपने मस्तिष्क को समय से ऊपर उठा दें तो अपने अमरत्व की अनुभूति ही नहीं पदार्थ और ब्रह्माँडों के स्वामी बनते चले जा सकते हैं। हमारा मस्तिष्क अर्थात् हम स्वयं ही सदैव ही जागरुक रहते हैं। परिवर्तनीय तो यह जड़ या प्रकृति परमाणु ही हैं और जब तक हम अपने आप में समाहित नहीं होते, प्रकृति पर न तो नियन्त्रण कर सकते हैं और न ही उसका उपयोग।

उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन अल्बर्ट आइन्स्टीन के सापेक्षवाद [थ्योरी आफ रिलेटिविटी] की व्याख्या मात्र हैं। इसे उन्होंने गणित के द्वारा सिद्ध किया है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया कि एक सरल रेखा का सरल या सीधा होना आवश्यक नहीं। संसार अण्डाकार है। ब्रह्माँड सीमारहित है किन्तु अनन्त नहीं, और भी ब्रह्माँड हैं जिनका ज्ञान पाना मानवीय बुद्धि के लिये सम्भव नहीं है। प्रकाश-कणों में भार होता है, जबकि भार पदार्थ में ही सम्भव है शक्ति में नहीं (स्मरण रहे-प्रकाश पदार्थ नहीं, शक्ति माना गया है) मस्तिष्क प्रकाश से बना है। इस तरह यह साबित होता है कि इस संसार में प्रकृति और परमात्मा, प्रकाश और पदार्थ, मस्तिष्क और चेतना दोनों अभिन्न हैं। मनुष्य-शरीर एक छोटा ब्रह्माँड और अपना मस्तिष्क छोटा परमात्मा-हमारी अपने ज्ञान और स्थूलता के आधार पर होती है जो समय, स्थान की सीमा में बँधी होती है। यदि हम समय और पदार्थ या स्थान के बन्धनों को तोड़कर देखें तो हम अपने को शाश्वत, चिरंतन, चिन्मय, विराट् और परमात्मा के रूप में देख सकते हैं। इसी बात को महर्षि रमण इन शब्दों में कहते हैं-

भाति दिक्काल कथा विनाऽस्मान्।

दिक्काल लीलेहि वपुर्वयं चेत्॥

न क्वापि भामौ न कदापि भामौ।

वयं तु सर्वत्र सदा च भामा॥

“ऐसा कौन-सा स्थान है, ऐसा कौन-सा समय है जहाँ पर मैं मौजूद नहीं। शरीर, समय और स्थान में रहता है लेकिन मैं किसी स्थान या समय में नहीं हूँ। प्रत्येक स्थान में, प्रत्येक समय में मैं हूँ।”

इसी बात को माँडूक्य कारिका 2।24 में- “काल इदि काल विदो दिश इति च तहिदः”- मैं समय हूँ और हर क्षण को जानता हूँ, मैं सर्वत्र हूँ और सर्वज्ञ भी- ऐसा कहा है। गीता 11।30 में “कालोऽस्मि”- मैं ही काल हूँ- काल है।

हम क्या हैं? कितने विस्तृत और शक्तिमान् हैं हमारे ज्ञान की सीमायें कितनी विराट् हैं? इसे हम समय और स्थान की सीमा से ऊपर उठकर ही जान सकते हैं। यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। जो इसे नहीं जानता वही तुच्छ है, आसक्ति और दुःखों में अपने आपको जकड़ रहा है। जो इस स्थूल दृष्टि-दोष से छूटा वह संसार का यथार्थ ज्ञान पा गया, बन्धन-मुक्त हो गया, परमैश्वर्य को प्राप्त कर लिया।


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