शरीर के हरिजन फेफड़े

July 1970

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शुद्ध प्राणवायु के बिना शरीर का अधिक दिन तक टिके रहना सम्भव नहीं, पर यदि शरीर में शुद्ध हवा ही पहुँचती रहे, रक्त आदि में उत्पन्न गन्दगी दूर न हो तो उस नई शक्ति का पाना भी निरर्थक होता है। अशुद्धि का निवारण न हो तो मनुष्य एक दिन भी स्वस्थ जीवन नहीं जी सकता।

शरीर की गन्दगी के अतिरिक्त हम जो साँस लेते हैं, उसमें भी गन्दगी रहती है। श्वाँस के साथ ली गई वायु में 79 प्रतिशत तो नाइट्रोजन ही होता है, जिसका शरीर में कोई उपयोग नहीं। ऊतकों (टिसूज) के लिये जितना नाइट्रोजन चाहिये वह अलग से मिलता रहता है। ऑक्सीजन मुख्य तत्व है, प्राण है, जिसकी सर्वाधिक आवश्यकता होती है। यह श्वाँस में 20.96 प्रतिशत होता है। इसके अतिरिक्त कार्बनडाई ऑक्साइड नामक विषैली गैस भी .4 प्रतिशत श्वाँस के साथ शरीर में प्रवेश करती है। अब यदि इस प्रविष्ट वायु का प्रत्येक अंश शरीर में चुस जाता तो जितनी गन्दगी भीतर भरी थी, उतनी ही और इकट्ठी हो जाती और प्राणी का जीवित रहना कठिन हो जाता।

हम जहाँ रहते हैं, वहाँ की प्रकृति का ही स्वभाव है कि वह कुछ न कुछ गन्दगी फैलाती रहती है। किसी स्थान की सफाई न हो तो मकड़ी जाला लगा लेगी, कीड़े-मकोड़े पक्षी घर और घोंसले बना लेंगे, मिट्टी, कूड़ा जमा हो जायेगा। यह गन्दगी ही कम हानिकारक नहीं फिर मनुष्य की पैदा की हुई गन्दगी तो और भी घातक होती है। बेचारे हरिजन उस मल-मूत्र की सफाई न करें जो मनुष्य और जानवर फैलाते रहते हैं तो मनुष्य समाज का स्वस्थ रहना कठिन हो जाय। शरीर और मनुष्य समाज दोनों इस दृष्टि से एक समान हैं।

शरीर में सफाई के लिये फेफड़े उत्तरदायी हैं। यह फेफड़े उस स्थान पर हैं, जहाँ श्वाँस नली जाकर बहुत छोटी-छोटी नलियों में बँट जाती है। यह इतनी छोटी होती हैं कि कोरी आँख से भी दिखाई नहीं देती। 40 सूक्ष्म नलिकायें मिलती हैं, तब कहीं एक इंच का एक वायु कोष्ठ (एअरसैक) बनता है। यही वायु कोष्ठ (एअर सैक) सघन होकर फेफड़े का रूप लेते हैं इनकी संख्या 1700 के लगभग होती है। यह सूक्ष्म कोष्ठ चुपचाप हरिजनों के समान सेवा करते रहते हैं, हम उन्हें भले ही छोटा कहें पर उनके कार्य की जितनी सराहना की जा सकती हो कम है। वायु कोष्ठों के समान बेचारे हरिजन कितने नम्र और अपने को छोटा मानने वाले होते हैं, खेद है कि तब भी हम उन्हें अछूत मानते हैं।

श्वाँस लेने के साथ यह वायु कोष्ठ फूलते हैं, छोटे दिखाई देने वाले इन कोष्ठों की महिमा बड़ी विशाल है। यदि उन्हें पूरी तरह फूलने का अवसर दिया जाये तो इनकी दूरी शरीर के बाहरी सतह से 55 गुनी अधिक हो सकती है। हम उसके इसलिये उपयोग नहीं कर पाते क्योंकि हम उसकी सूक्ष्म महत्ता को समझते कहाँ हैं। शरीर में यह फुफ्फुसों का प्राणायाम आदि से पूरा उपयोग लिया जाता तो मनुष्य का शरीर तेज से जगमगाता होता, समाज में यदि हरिजनों को पर्याप्त आदर दिया गया होता तो हमें गन्दगी के दर्शन भी न होते। स्वर्ग से साफ-सुथरे वातावरण का आनन्द ले रहे होते। पर्याप्त आदर न देने का परिणाम दिल्ली के हरिजनों की सी हड़ताल होती है,चार दिन की हड़ताल से शहर में इतनी गन्दगी फैल गई थी कि सड़कों पर निकलना मुश्किल हो गया था। नेताओं ने सड़कों पर झाडू तो लगाई पर अन्ततः उनकी माँगें पूरी करने को विवश ही होना पड़ा।

सफाई जीवन की बड़ी भारी आवश्यकता है कोई यह कोई फेफड़े के काम से सीखे। श्वाँस में आया 79 प्रतिशत नाइट्रोजन तुरन्त वापस। साधारण स्थिति में ऑक्सीजन का कुल 4.5 प्रतिशत ही शरीर ले पाता है यदि श्वास लम्बी और गहरी ली जाये तो 13.5 प्रतिशत तक तिगुनी ऑक्सीजन ग्रहण की जा सकती है। सामान्य अवस्था में जितनी ऑक्सीजन (4.5) प्रतिशत ग्रहण की जाती है उतनी ही अर्थात् 4.5 प्रतिशत कार्बनडाई ऑक्साइड शरीर से बाहर निकल जाती है। फुफ्फुसों की कार्यक्षमता बढ़ाकर इस तरह न केवल अधिक शक्ति ही मिलती है, वरन् दूषित तत्वों की अधिक मात्रा भी शरीर से निकल जाती है और इस तरह शरीर की असाधारण सफाई हो जाती है।

बदायूँ के एक स्कूल के चपरासी को एक बार चोरों ने घेर लिया। चपरासी ने स्कूल की साइकिल देने से इनकार कर दिया। चपरासी को घायल करके ही चोर साइकिल ले जा सके। इस कर्तव्यनिष्ठ चपरासी को हर किसी ने सराहा वैसे ही सराहनीय हैं- शरीर के हरिजन फेफड़े। इन तत्वों के अतिरिक्त जल वाष्प या और कोई गन्दगी शरीर में पहुँचती है, तो वे उसे अपनी क्षति करके ही शरीर के किसी ऊतक तक जाने देते हैं। उनकी शक्ति रहते कोई विजातीय गैस शरीर में नहीं जा सकती।

हृदय के समान ही फेफड़े आजीवन कभी विश्राम नहीं करते। 20 से 30 घन इंच हवा को वे बार-बार भरते और शरीर को ताजगी प्रदान करते रहते हैं, प्रति मिनट 17 बार के हिसाब से यह आजीवन धोंकते रहते हैं, बच्चों की श्वास गति 40 से 25 तक होती है क्योंकि यह उनका विकास काल होता है। इस अवस्था में शरीर का हर कार्य तेजी से होता है। कभी-कभी सामान्य स्थिति में काम अधिक करना पड़ता है तो शरीर के ऊतक (टिसूज) धुलकर कार्बन डाई ऑक्साइड अधिक बनाने लगते हैं। (ऊतक शरीर की असंख्य कोशिकाओं से बनी एक प्रकार की ईंटें हैं जिनमें कार्बन, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन होता है और शरीर के विभिन्न अंग बनते हैं।) इस बढ़े हुए कार्बन डाई ऑक्साइड की सफाई के लिये फेफड़ों को और भी तेजी से काम करना पड़ता है, पर वे कभी उदास नहीं होते। कर्म ही जीवन है के सिद्धाँत का फेफड़े आजीवन अक्षरशः पालन करते हैं और जब कभी कोई ऐसी विकृति उत्पन्न हो जाती है कि फेफड़ों द्वारा शरीर के ऊतकों को ऑक्सीजन मिलना बन्द हो जाता है, उसी दिन मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। इससे प्रतीत होता है कि सफाई और स्वच्छता जीवन के अनिवार्य तत्व हैं शुद्धता को उसी से स्थान मिलता है।


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