हम सुधरें तो बच्चे सुधरें- वैज्ञानिक दृष्टि

July 1970

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‘बच्चा उतना प्राचीन होता है जितना उसके पूर्वज’ (दि चाइल्ड कैन बी ऐज ओल्ड ऐज हिज एन्सेस्टर्स) वैज्ञानिकों के इस सिद्धाँत का सीधा अर्थ यह है कि बच्चों में दिखाई देने वाली आज की विकृतियों में अधिकाँश उनके माता-पिता और पितामहों का हाथ है। इस सिद्धाँत के अनुसार बच्चे जैसे हैं उसका सीधा सम्बन्ध जातीय गुण (रेशनल हैबिट्स) से है। इसलिये उनमें ठोस सुधार भी हम अपने सुधार और परिवर्तन से ही ला सकते हैं।

जीव-विज्ञान (बायोलॉजी) के अनुसार मनुष्य शरीर का निर्माण जिन छोटे-छोटे परमाणुओं से हुआ है उन्हें कोश सेल कहते हैं। पर यह कोश भी अन्तिम सूक्ष्मकण होते हैं जिन्हें गुण सूत्र (क्रोमोसोम) कहते हैं, यह गुण सूत्र ही बच्चे की प्रारम्भिक विचार प्रणाली और संस्कार के रूप में दिखाई देते हैं। बच्चे की मानसिक रचना जिन 48 गुण सूत्रों से होती है, उनमें एक कोश अर्थात् 24 गुण सूत्र (क्रोमोसोम) पिता प्रदत्त और 24 गुण सूत्र माता के रज से आये हुये होते हैं। इन्हीं से बाद में बच्चा अपनी मानसिक स्थिति स्वतन्त्र ढंग से विकसित करता है। इसलिये यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि बच्चे में आज का संस्कार जो भी है, वह उसके माता-पिता, बाबा-नाना, परबाबा और नाना के पिता आदि से ही कहीं न कहीं से आये हैं। अच्छे हैं या बुरे उनका बच्चे से इतना ही सम्बन्ध है कि वह यदि चाहें तो अपने आप में आकस्मिक परिवर्तन करके अपना जीवन एक नई दिशा की ओर मोड़ दें अन्यथा उनकी आज की स्थिति के लिये पूर्णतया पूर्वज ही उत्तरदायी हैं।

मनोवैज्ञानिक भी इस तथ्य का मानसिक प्रतिपादन बड़े अच्छे ढंग से उदाहरण देकर करते हैं। कुछ बच्चे ऐसे होते हैं, जिन्हें आवश्यकता नहीं होती तो भी कोई वस्तु पेन्सिल आदि चुरा लेते हैं। मनोवैज्ञानिक इसे ‘क्लैक्टो-मीनिया’ कहते हैं। मनोवैज्ञानिक के अनुसार यह ‘क्लैक्टो-मीनिया’ किसी न किसी पूर्वज का ही गुण होता है, जो बच्चे में अकारण ही पनप उठता है और उसे बाग में उगे झाड़-झंखाड़ की तरह उखाड़कर फेंका न जाये तो वह खतरनाक रूप से बढ़ता ही रहता है।

जेरार्ड के एक 9 वर्षीय बच्चे को रॉयल कॉलेज में भरती किया गया। यहाँ प्रायः सभी उच्च परिवारों के होते हैं। इस बच्चे का सम्बन्ध भी एक बहुत सम्पन्न परिवार से था, पर वह प्रतिदिन किसी न किसी लड़के के कमरे में घुसकर गुड़ चुरा कर खा लिया करता। उसके लिये यद्यपि गुड़ का प्रबन्ध था तो भी उसकी यह आदत नहीं छूटती थी। मनोवैज्ञानिकों ने बाद में काफी खोज की तब पता चला कि उसकी माता के पिता (बच्चे का नाना) को घर में गुड़ चुराकर खाने की आदत थी उसका यह संस्कार ही लड़के की माँ के द्वारा बच्चे में विकसित हुआ। चोरी, दंगा-फसाद, चिड़चिड़ापन, भय क्रोध ऐसी सभी बुराइयाँ आज के बंदों की अपनी ही नहीं होतीं उनका सम्बन्ध हमसे अर्थात् पहले की पीढ़ियों से ही होता है।

आज के खराब विचार कल के बच्चे में बुरे संस्कारों के रूप में आ सकते हैं, तो अच्छे विचार और आचरण आने वाली सन्तानों को अच्छे संस्कार भी दे सकते हैं। पैसाडोना जेल में एक विचित्र घटना देखने में आई। एक ही परिवार की तीन पीढ़ी के लोगों में लगातार अपराधी मनोवृत्ति पाई गई। उस परिवार में जन्म लेने वाले प्रायः सभी को किसी न किसी अपराध में जेल जाना पड़ा, किन्तु तीसरी पीढ़ी का एक लड़का बड़ा संयमी और गोल्फ का खिलाड़ी निकला। मनोवैज्ञानिकों ने जाँच करके बताया कि उस लड़के के बाबा की बड़ी इच्छा रहती थी कि वह गोल्फ खिलाड़ी बनें। जहाँ कहीं भी गोल्फ होता वह देखने अवश्य जाता। घोड़ा न होने से वह खेल तो नहीं पाया पर आजीवन उसी के स्वप्न देखता रहा। वैज्ञानिकों की राय में वही संस्कार इस बच्चे में दिखाई दिये।

संस्कारों की शक्ति इतनी बलवान होती है कि वह आने वाली पीढ़ी के मन ही नहीं शरीरों को भी प्रभावित कर सकती है। फरवरी, 1962 के मासिक कादम्बिनी अंक में- ‘मत्स्य कन्यायें’ शीर्षक से डॉ. विश्वनाथ राय ने अपनी एक निजी घटना का विवरण देते हुये बताया है कि- ‘1955 में मैंने एक रोगिणी का प्रसव कराया। प्रसव में मैंने देखा, कि पैर के बदले एक पुच्छाकार माँस पिण्ड बाहर आया और फिर देह सिर अन्त में फूल (प्लेसेंटा) प्रसव हुआ बालक के नाभि के ऊपर का अंश तो मनुष्याकृति से मेल खाते थे नीचे के नहीं। प्रसव के बाद ही बालक मर गया। विकलाँग शिशु का एक्सरे करके मैंने देखा कि उसके ऊपरी भाग की सभी हड्डियाँ सही गठित हुई हैं परन्तु कटि प्रदेश में कोई हड्डियाँ न थीं। अस्थि-चिन्ह मात्र प्रकट होकर रह गये थे।’

लेखक ने विचित्र प्रसव के लिये गर्भिणी की मानसिक स्थिति को दोषी बताया है। इसके लिये आपने डॉ. कुलिगा की खोजों का हवाला देते हुए बताया है कि जच्चा की मानसिक उत्तेजनाओं के कारण ऐसी विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं।

यह घटनायें और वैज्ञानिक शोधें दोनों इस बात में एक मत हैं कि आज के बच्चे कल के पूर्वजों की ही मानसिक स्थिति और आचरण के अनुरूप हैं। हमारे सोचने करने की प्रणाली भली हो, उद्दात्त हो तो आने वाली सन्तान भी महान हो सकती है। लूले-लँगड़े विचार भद्दे-भोंडे आचरण से तो वैसी ही अस्त-व्यस्त सन्तानें हो सकती हैं, जैसी आज दिखाई दे रही हैं।


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