उपकारिणी धरती माता

July 1970

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वेदों और उपनिषदों में भगवती पृथ्वी को माता कहा है। पृथ्वी ही समस्त प्राणियों का जीवन-विकास और रक्षा करती है। पञ्च तत्वों में पृथ्वी की प्रतिष्ठा सर्व-प्रथम की गई है। प्राणियों के अत्यधिक समीप होने के कारण हम पृथ्वी की गतिविधियों से जितना अधिक प्रभावित होते हैं, उतना और किसी देव और तत्व से नहीं। स्थूल होकर भी सम्पूर्ण सूक्ष्मतायें और शक्तियाँ पृथ्वी में विद्यमान हैं, इसलिये वेदों ने पग-पग पर उनकी उपासना और ऋचा गान किया है।

हम कई स्थानों पर कह चुके हैं कि भारतीय तत्वदर्शन में प्रत्येक वस्तु को चेतन रूप में देखने की प्रथा रही है। इसलिये स्थूल दिखाई देने वाले पदार्थों-पत्थरों को भी मानवीय चेतना के रूप में पूजा गया। कुछ दिन तक यह विषय लोगों के लिये उपहास का विषय रहे पर अब विज्ञान भी बताता है कि संसार में पदार्थ कुछ है ही नहीं, जो कुछ भी दृश्य-अदृश्य है सब परमाणुओं की अवस्थायें हैं। जहाँ परमाणु विरल हैं वहाँ आकाश, जहाँ सघन हैं वहीं पदार्थ दृष्टिगोचर होने लगता है। पर पदार्थ कोई वस्तु नहीं, वहाँ भी एक निरन्तर की क्रियाशीलता काम करती रहती है। आत्म-चेतना को पदार्थ चेतना के साथ मिलाकर ऋचाओं द्वारा-शब्द शक्ति के द्वारा उन शक्तियों से लाभान्वित होने का विज्ञान ही मन्त्र-विद्या है। उसे हम एक प्रार्थनामय रूप में भी देखते हैं। अन्तर्विज्ञान सबमें एक ही है। उसकी आधुनिकतम जानकारी ऋषियों-महर्षियों को हो रही है। इसका प्रमाण इन पंक्तियों में आगे मिलेगा।

इन दिनों “आयनिक थैरेपी” अपन-चिकित्सा की तेजी से शोध हो रही है और उससे चिकित्सा जगत् में क्राँतिकारी परिवर्तन होने की आशा है। यह पद्धति धूलि-कणों में व्याप्त विद्युत शक्ति के द्वारा सम्पन्न होती है। इसलिए यह बात बिना किसी संकोच के कही जा सकती है कि पृथ्वी न होती तो न केवल हम शरीर धारण किये रहने से असमर्थ होते वरन् यह कि पृथ्वी ही हमें रोगों से बचाती है। पृथ्वी के कण अज्ञात रूप से हमारे शरीर की सैकड़ों बीमारियों को मारते रहते हैं। यह विषय मिट्टी द्वारा प्राकृतिक चिकित्सा से भिन्न है।

अभी तक लोग इतना ही जानते थे कि स्वस्थ रहने के लिये स्वच्छ वायु आवश्यक है, पर अब यह कहा जाता है कि स्वस्थ रहने के लिये वायु में धूलि कणों की उपस्थिति अनिवार्य है। यह धूलिकण प्राकृतिक रूप से वायु में फैले रहते हैं। इन्हें कोई अलग करना चाहे तो भी अलग नहीं किया जा सकता। इन कणों में कई कण विद्युत-आवेश युक्त होते हैं। कुछ कण धन-आवेश [पॉजिटिव चार्ज] और कुछ कण ऋण आवेश [निगेटिव चार्ज] होते हैं। धन आवेश वाले कण यद्यपि मनुष्य के लिये उपयोगी नहीं होते पर वे वायुमण्डल में छाई हुई दुर्गन्ध और बुरे तत्वों को निष्क्रिय बनाते रहते हैं जबकि ऋण आवेश वाले कण हमें रक्तचाप और गले की बीमारियों से बचाते रहते हैं। श्वास नली के रोमों द्वारा यही आवेश शरीर में नाड़ी की गति, ताप, कार्यक्षमता को स्थिर रखता है। पशुओं में यही दूध देने की क्षमता बढ़ाते हैं। पौधों के 25 से 73 प्रतिशत विकास में यह आवेशित धूलिकण ही मददगार होते हैं।

इन आवेशित कणों को ही अपन कहते हैं। यद्यपि इनकी संख्या 10 खरब (1012) कणों में एक या दो भर होती है तथापि इनके बहुमूल्य प्रभाव को आँकना सम्भव नहीं। इन्हीं स्वल्प कणों की मदद से ‘आपनिक थैरेपी’ का जन्म हुआ।

पृथ्वी की मिट्टी में यह गुण बहुतायत से पाये जाते हैं। प्रातःकाल ओस गिरी शुद्ध भूमि में नंगे पाँव टहलने से एक विद्युत् शक्ति का शरीर में सञ्चार होता है जिससे सारा शरीर दिन भर तरोताजा रहता है। पहलवान लोग मिट्टी में लोटते हैं, उससे शारीरिक विष का शोषण हो जाता है। कई रोगों में, पेट की, सिर की पीड़ा में मिट्टी थोपने से बड़ा आराम मिलता है। यह सब मिट्टी के कणों में व्याप्त विद्युत् शक्ति का ही प्रभाव है और यह सूक्ष्म जानकारी आर्ष-ग्रन्थकारों को आधुनिक भूगर्भ वेत्ताओं से कहीं अधिक स्पष्ट रही है।

पृथ्वी की उत्पत्ति के बारे में गैस्मो आदि पश्चिमी विद्वानों और भारतीय मान्यताओं में काफी कुछ अन्तर है। हम उस विवाद में पड़ना नहीं चाहते, हम तो यह देखते हैं कि उसके बाद की जानकारियाँ बहुत अधिक मिलती-जुलती हैं तब जबकि भारतीय शोधें बिना आधुनिक यन्त्रों की मदद के हुई, यदि अब की शोधों से बहुत बढ़िया जानकारी दे सकती हैं तो हमारी जानकारियों को ज्येष्ठ और प्रामाणिक मानने में कोई आपत्ति न होनी चाहिए।

काठक संहिता में पृथ्वी को जल प्रधान बताते हुए लिखा है-

आपो वा इदमासन् सलिलमेव। स प्रजापतिः पुष्करः वर्णो वातो भूतोऽलेलीयत। स प्रतिष्ठा नाविदन्त। स एतमपाँ कुलायमपश्यत्। स एतं प्रजापतिरयाँ मध्येऽग्निमचिनुत। सेयमभवत्। ततः प्रत्यतिष्ठत इयं वाव अग्निः।

-काठक सं. 22। 9

आप सलिल रूप थीं। वह प्रजापति कमल पत्र में बात की तरह लहलहाता था, उसे ठहरने का स्थान न मिला। उसने इन आपों के कुलायभ (जाल) को देखा। तब प्रजापति ने आपों के मध्य में अग्नि चिना तब पृथ्वी बनी और ठहर गई यह पृथ्वी ही अग्नि है।

और अब जब धरती के कणों का आणविक विश्लेषण किया गया तो पता चलता है कि वस्तुतः प्रत्येक तत्व में ऊपरी अणु अग्नि के रूप में और नीचे जल के रूप में है। वायु उनके मध्य में अवस्थित है। मृत्तिका कणों की यह आणविक संरचना भारतीय मत के अनुसार ही है जबकि पूर्व पुरुषों के पास माइक्रोस्कोप जैसा कोई यन्त्र पढ़ने के लिये नहीं था।

शतपथ ब्राह्मण में पृथ्वी को-

पृथ्वी वै सर्वेषाँ देवानाम् आयतनम्।

सूर्या वै सर्वेषाँ देवानाम् आत्मा॥

-24। 3। 2। 4 और 8

अर्थात् पृथ्वी भी अन्य देवों की तरह आयतन वाली है सूर्य उसकी आत्मा है।

“अयस्मयी पृथ्वी”- यह पृथ्वी लौह आदि धातुओं से परिपूर्ण। ऋग्वेद में पृथ्वी को आपसी [लोहयुक्ता] कहा है। लौह तत्वों की अधिकता के कारण आकाशगत मरुतों की विद्युत् शक्ति से संयोग से चुम्बकत्व धारण करती है। ऐसा लिंकन बार्नेट ने भी माना है। विष्णु पुराण में सूर्य के परिक्रमा पथ को भूरेखा के नाम से पुकारा है-

तदा चलति भूरेखा साद्रि द्वीपाब्धिकानना।

अर्थात् वह पर्वत द्वीपों, समुद्रों और वनों के साथ चल पड़ती है।

इयं [पृथिवी] वै सर्पराज्ञी अर्थात् वह सर्पणशील [रेंगने वाली] है जैसे साँप आदि रेंगते हैं, पृथ्वी अन्तरिक्ष में रेंगती है। यह बात- जेमिनीय ब्राह्मण के इस मन्त्र से और भी स्पष्ट हो जाती है-

स एष प्रजापतिः अग्निष्टोमः परिमण्डलो भूत्वा अनन्तो भूत्वा शये। तदनुकृतीदम् अपि अन्या देवताः परिमण्डलाः॥ परिमण्डल आदित्य परिमण्डला इयं पृथिवी।

-1। 257

अर्थात् वह प्रजापति अग्निष्टोम परिमंडल [अग्नि-गोले के समान] रूप होकर अनन्त [गोल] होकर ठहरा। देवता भी उसी प्रकार परिमंडल है। आदित्य, द्यौ, अन्तरिक्ष और पृथ्वी सभी परिमंडल हैं। [परिमंडल का अर्थ यह है कि यह आकाश में स्थित है।]

इसके बाद सूर्य आदि लोकों से विकीर्ण होने वाले परमाणु आकाश में आइनोस्फियर की परतें किस प्रकार कितने बनाते हैं- उसका भी उल्लेख ब्रह्माँड पुराण में मिलता है-

अर्थात् पृथिवी मंडल के चारों ओर घन तोय [जलवाष्प] उससे ऊपर की पर्त घन तेज, उसके ऊपर तिर्यक और ऊर्ध्व घनवात [क्षीण ऑक्सीजन वाले पवन] उससे ऊपर आकाश और अन्तरिक्ष है। इस तथ्य को हम आयनोस्फियर लेख में, अखंड-ज्योति में पहले प्रकाशित कर चुके हैं।

शतपथ ब्राह्मण में पृथिवी ‘अग्निगर्भा पृथिवी’ (14। 9। 4। 21) अर्थात् पृथ्वी के गर्भ में अग्नि दाह है। ‘माता पुत्रं यथोपस्थे साग्निं बिभर्तु गर्भ आ’ (यजुर्वेद 11। 57) अर्थात् जिस प्रकार माता अपने गर्भ में पुत्र को धारण करती है, पृथ्वी ने अग्नि को धारण किया है। यह तथ्य कितने सत्य हैं इसका प्रमाण प्रसिद्ध भूगर्भशास्त्री श्री गैस्मो ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पृथ्वी की आत्मकथा’ (बायोग्राफी आफ दी अर्थ) के पेज न. 27-28 में इस तरह किया है-

“पृथिवी कभी पिघली चट्टानों का गोला थी। पृथिवी के अन्दर के अध्ययन से पता चलता है कि भीतर का अधिकाँश भाग अभी भी पिघली दशा में है। ऊपर की ठोस भूमि पतली चादर की तरह है। यह चादर एक प्रकार से पिघले तरल पदार्थ पर तैर रही है। जितना पृथिवी के भीतर धंसते जायें तो प्रति 1000 फुट नीचे का ताप 16 डिग्री फारेनहाइट ताप बढ़ जाता है। दक्षिण अफ्रीका की रोबिन्सन खान अब तक सबसे अधिक गर्म पाई गई है। उसकी दीवारों की गर्मी मनुष्य को भाड़ में चने की तरह भून सकती है। पृथिवी का 97 प्रतिशत भाग पिघली दशा में है।’

यह अग्नि ही कभी-कभी ज्वालामुखी के रूप में फूट पड़ती है तो विनाश के दृश्य भी दिखाई देने लगते हैं अन्यथा यह अधिकाँश प्राणियों की जीवन रक्षा में ही प्रयुक्त होती है। समुद्र से बनाकर वर्षा कराना तथा वनस्पतियों को जन्म देना इसी भूमिगत ऊष्मा का ही काम है।

कपिष्ठल 41। 7 में-

तस्मादग्निर्मध्यत औषधीः प्रविष्टः।

इस अग्नि से ही औषधियाँ उपजती हैं। शतपथ ब्राह्मण 2। 2। 4। 5 में भी बताया गया है कि पृथ्वी के आग्नेय परमाणुओं को ग्रहण करके ही वृक्ष और वनस्पतियाँ उगते और बड़े होते हैं। सभी वृक्षों में आग्नेय परमाणु और जल परमाणु पाये जाते हैं। जल परमाणु हवा में विस्तृत हो जाते हैं तब काठ अधिक ज्वलनशील और अग्निकणों की उपस्थिति के कारण ही हो जाता है।

यह व्याख्यायें यह बताती हैं कि पृथ्वी को देवता और पंचतत्व के रूप में पूजा-प्रतिष्ठा देने में भारतीयों ने केवल श्रद्धा ही नहीं, विज्ञान का भी पूर्ण सहारा लिया है। पर प्रत्येक वस्तु की चेतना के लाभ को सर्वोपरि महत्व देने के कारण इन स्थूल विवेचनाओं की ओर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितना भावात्मक प्रसंगों की ओर। शक्ति के उपादानों की ओर बढ़ता हुआ आज का विज्ञान हमारी इस धारण का समर्थन ही करता है क्योंकि उसके पीछे हमारी दृष्टि स्थूल नहीं, विराट् रही है और विज्ञान भी अब विराट् की ओर ही बढ़ रहा है।

=कोटेशन============================

चिड़ियों की तरह हवा में उड़ना और मछलियों की तरह पानी में तैरना सीखने के बाद अब हमें इन्सानों की तरह पृथ्वी पर चलना सीखना है।

-राधाकृष्णन

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