कला की शक्ति लोक मंगल में लग जाय

July 1970

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शिक्षा की भाँति ही कला का प्रभाव मानव मन पर पड़ता है। उसमें भावनायें-सम्वेदनायें उभारने-प्रवृत्तियों को ढालने तथा चिन्तन को मोड़ने एवं अभिरुचि को दिशा देने की अद्भुत क्षमता भरी पड़ी है। संगीत, गायन, अभिनय, चित्र, साहित्य, कविता आदि के माध्यम से कला विकसित होती है। इसमें मनोरंजन, सौंदर्य-प्रवाह, उल्लास न जाने क्या-क्या तत्व भरे पड़े हैं जो मानव मन को सम्मोहित कर बदलने-पलटने में अत्यधिक समर्थ सिद्ध होते हैं। कलाकारों ने राष्ट्रों और संस्कृतियों को उठाया और गिराया है। कला अमृत भी है और विष भी। वह अपने जमाने के व्यक्ति और समाज को पतन के गर्त में भी डुबो सकती है और उत्थान के शिखर पर भी पहुँचा सकती है। शिक्षा से भी कला में अधिक सामर्थ्य है। शिक्षा का प्रभाव वर्षों में दीख पड़ता है, पर कला अपना जादू तत्काल दिखाती है और व्यक्ति को बदलने में लोहा पिघला कर पानी बना देने वाली भट्टी की तरह मनुष्य की मनोवृत्तियों में भारी रूपांतर प्रस्तुत करती है।

रचनात्मक कार्यों में दूसरा मोर्चा कला का है। कला की जितनी दुर्गति इन दिनों हुई है, इतिहास साक्षी है कि पृथ्वी की स्थापना से लेकर आज तक वैसी कभी नहीं हुई। साहित्य के आधार पर किसी समय के समाज संस्कृति तथा मनोभूमि का मूल्याँकन किया जाता है। आज विचित्र परिस्थिति में पड़ा हुआ है। प्रेस जो छापता है, बुकसेलर जो बेचता है, पाठक जो पढ़ता है इसका विवरण इस प्रकार है-

कामुकता भड़काने वाले उपन्यास 48 प्रतिशत

मनोरंजन 8 प्रतिशत

अन्धविश्वास तथा साम्प्रदायिक प्रतिपादन 9 प्रतिशत

राजनीति 3 प्रतिशत

समाज 3 प्रतिशत

आध्यात्म धर्म-दर्शन 2 प्रतिशत

जीवन-निर्माण 1 प्रतिशत

स्कूली शिक्षा 26 प्रतिशत

यह आँकड़े बताते हैं कि हमारे साहित्यकार-कवि, प्रकाशक, मुद्रक, पुस्तक विक्रेता मिल-जुलकर क्या वस्तु समाज को दे रहे हैं। साहित्य बौद्धिक अन्न हैं। उसे पचाकर ही जन मानस का सृजन होता है। शिक्षितों की सार्वजनिक मनोभूमि का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उसमें क्या बोया और क्या उगाया जा रहा है। फल भी बीज के अनुरूप ही हो सकते हैं।

प्रेरक साहित्य जन मानस को हिलाकर रख सकता है। सुधारात्मक और सृजनात्मक साहित्य ने युगान्तरकारी सामाजिक काया-कल्प प्रस्तुत किये हैं। अति प्राचीनकाल में शस्त्रों से क्रान्तियाँ होती थी, आज साहित्य की शक्ति से युग बदलते हैं। रूसो के प्रतिपादित प्रजातंत्र सिद्धाँत और कार्ल मार्क्स के प्रतिपादित साम्यवाद सिद्धाँत ने आज संसार की 83 प्रतिशत प्रजा के मस्तिष्कों पर अपना शासन जमाया हुआ है। और भी अधिक खुलासा करना हो तो यों कहा जा सकता है कि यह रूसो और मार्क्स ही असली मानी में विश्व की शासन व्यवस्था चला रहे हैं। साहित्य की शक्ति अपार है। उसे प्रयुक्त करके साम्यवाद के प्रयोक्ताओं ने लगभग आधी दुनिया को उसी ढांचे में ढाल दिया जिसमें कि वे चाहते हैं। हम इस साहित्य की महाशक्ति को फूहड़ कामुकता भड़काने-भोंड़े मनोरंजन में उलझाने और बुद्धिभ्रम फैलाने में प्रयुक्त कर रहे हैं। स्कूली साहित्य को जानकारी मात्र मान लें तो सृजनात्मक और प्रेरक साहित्य केवल 9 प्रतिशत रह जाता है। जिसे मूल पूँजी की तुलना में बैंक ब्याज की बराबर ही माना जाना चाहिए। बौद्धिक खुराक इतनी कम हो तो जन मानस में प्रेरणात्मक उमंगे उठने की कैसे आशा की जाय?

कवित्व, संगीत, वाद्य, अभिनय का एक वर्ग है। कला का यह जादू भरे चारों पाये हमें न जाने कहाँ उठाये लिये जा रहे हैं। पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली, पुस्तकों में छपने वाली और वैयक्तिक तथा सामूहिक रूप में गाई जाने वाली कविता का स्तर और भी दयनीय है। कामुकता, कामुकता, कामुकता-शृंगार, शृंगार, शृंगार हर दिशा में कविता यही सब गुँजार रही है। दिल के मरीज, आँखों के घायल, बुलबुल, परवाने, मजनू दीवाने, यही वह धुरी है जिसके आस-पास आज की कविता चक्कर काट रही है। बेचारे प्रेम की आत्मा कोस रही है कि मेरे नाम पर इन कवि नामधारियों में वासना की उच्छृंखलता एवं विषाक्त वारुणी को किस चतुराई से लाकर प्रतिष्ठापित कर दिया और प्रेम का तत्व ज्ञान लगता है इस दुनिया में से उठ ही जायेगा। जब उसे समझने, समझाने की कहीं जरूरत ही न समझी जायगी तो वह बेचारा वह वहशी दुनिया में जीकर करेगा भी क्या?

सिनेमा इस युग में एक नये जादू की तरह आया है। उसने कोमल भावना वाले उदीयमान नवयुवकों को अपने सम्मोहन पाश में कसकर जकड़ा है। यह सस्ता मनोरंजन जनसाधारण को अच्छा लगा है और एक प्रकार से सर्वत्र उसका स्वागत हुआ है। संगीत सम्मेलन, कवि सम्मेलन, अभिनय, नृत्य, नाटक आदि के क्षेत्र सिकुड़ते-सिकुड़ते मरणासन्न होते जा रहे हैं, सबकी आत्मा धीरे-धीरे सिनेमा में समाती चली जा रही है। विज्ञान का यह जादू जनमानस पर सीधा प्रभाव डाल रहा है और उसकी गहरी छाप पड़ रही है। कला की चर्चा करनी हो तो अब सिनेमा को प्रमुख स्थान देना पड़ेगा।

यह सिनेमा यदि आदर्शवादिता, उत्कृष्टता, समाजनिर्माण, समस्याओं के हल एवं विश्वशान्ति की ओर उन्मुख रहा होता तो स्वस्थ मनोरंजन के साथ लोक मंगल की आशाजनक सम्भावनायें प्रस्तुत कर सकता था। पर ‘मरे को मारे शाह मदार’ वाला दुर्भाग्य यहाँ भी आ विराजा। हजार वर्ष की पराधीन, पिछड़ी और पथ भ्रष्ट कौम को स्वस्थ मार्गदर्शन देने की अपेक्षा सिनेमा उलटी दिशा में ही घसीटने लग पड़ा। अपने फिल्मों में जो कथानक, अभिनय, गायन, नृत्य होते हैं उनमें प्रेरक प्रसंग तो यदाकदा ही दिखाई देंगे। अधिकतर कामुकता, अश्लीलता, उग्रता, उच्छृंखलता एवं पशु प्रवृत्ति को भड़काने वाले प्रसंग ही मिलेंगे। इन्हें रुचिपूर्वक देखने वाली जनता किधर चल रही है, इसे सहज ही परखा जा सकता है। सर्वसाधारण में विशेषतया नवयुवक नवयुवतियों में जो चर्चा न करने योग्य दुष्प्रवृत्तियां आँधी-तूफान की तरह पनप रही हैं और जिनकी प्रतिक्रिया अगले दिनों प्रचुर मात्रा में घटित होने वाली है, अवाँछनीय घटनाओं के रूप में सामने आ रही हैं। उसे हमारा एक दुर्भाग्य ही कहना चाहिए।

रेडियो दिनभर सिनेमा के गीत गाता है, हम सब उन्हीं को गुनगुनाते हैं, लाउडस्पीकरों से यही सब सुनाई पड़ता है। सिनेमा संगीत ही वस्तुतः आज का युग गायन है। सब ठुमरी, कजली, भैरवी, कब्बाली तो गुजरे जमाने की चीजें हो गई। कवि सम्मेलन, कविता पुस्तकें, तो एक कोने में पड़ी यदाकदा देखने में आने वाली चीजें है। पत्र-पत्रिकाओं ने भी अब नया ढंग इस झंझट से पीछा छुड़ाना का आरंभ कर दिया है। कुछ दिन पहले तक तुकान्त कवितायें छपती थीं जो गाई-बजाई, गुनगुनाई जा सकती थीं। पर अब अतुकाँत कविताओं का फैशन चल पड़ा जिन्हें न लिखने वाला समझता है और न पढ़ने वाला। गायन के प्रयोजन से तो उनका पल्ला छूट ही जाता है। नाटक भर चले, नृत्य अभिनय वीरांगनाओं के पल्ले बँध गये। कला का महत्वपूर्ण क्षेत्र गायन, संगीत, वाद्य अभिनय के साथ जुड़ा हुआ था और उसके द्वारा स्वस्थ मनोरंजन के साथ लोक रुचि के परिष्कृत करने में भारी योगदान मिलता था, पर अब तो लगता है गंगा उल्टी बहेगी और सूरज उल्टा घूमेगा। कला जैसी मानव अन्तःकरण की अभिव्यंजना जब इस प्रकार अधःपतित होती चली जायगी तो मानवीय आदर्शों का प्रवाह भी पतनोन्मुख होने से क्यों रुकेगा?

कला के चित्र-पक्ष की भी यह दुर्दशा है। औघड़ देवी-देवताओं के अतिरिक्त 90 प्रतिशत चित्र अर्धनग्न, फूहड़ भाव-भंगिमा भरे कामुक और अश्लील चित्र, रमणी और रूपसी के रूप में नारी को चित्रित करने वाले ही मिलेंगे। वेश्यायें जैसे हाव-भाव लम्पटों को फुसलाने के लिये बनाती हैं, लगभग उसी स्तर की तस्वीरों से बाजार पटा पड़ा है। कला और सुसज्जा के नाम पर यदि एकमात्र आधार यह कुत्सा ही रह गई हो तो बात दूसरी है अन्यथा सौंदर्य के अगणित आधार, चित्रकला की मार्मिकता विकसित करने के लिये अभी जीवित हैं। सब ओर से मन हटाकर केवल नारी के शील पर आँच लाने वाले और उसके प्रति कुदृष्टि भड़काने वाले चित्रों का चित्रण, प्रकाशन, मुद्रण और विक्रय की दुरभिसन्धि से क्या कुछ बनने वाला है। लोगों के भीतर बैठे हुए असुर की तृप्ति करके इस प्रकाशन से पैसे बटोरने के साथ यह भी सोचना चाहिए कि इस कला कि दुर्गति का परिणाम हमारी संस्कृति और नैतिकता को कितना महंगा पड़ेगा।

सुरुचि और शालीनता का तकाजा है कि नारी की पवित्रता और उत्कृष्टता को बनाये रखा जाय। उसे माता, भगिनी और बेटी के रूप में ही चित्रित किया जाय। रमणी और कामिनी का भी उसका रूप हो सकता है, पर उसकी सीमा दाम्पत्य-जीवन की मर्यादाओं तक ही सीमित रहनी चाहिए। उसका सार्वजनिक प्रदर्शन तो वेश्या ही कर सकती है। हमारे लिये यह अनुचित होगा कि हम अपनी माता, भगिनी और पुत्री का ऐसा चित्रण करें जो कुत्सायें भड़कायें और कुमति उत्पन्न करे। कला के लिये अगणित क्षेत्र खुले पड़े हैं। उनमें से अनेक तो ऐसे हैं, जो पशु को मनुष्य और मनुष्य को देवता बना सकने में समर्थ हो सकते हैं। क्यों न चित्रकला इस कुत्सा को छोड़कर 99 प्रतिशत विश्व में फैले पड़े सुरुचिपूर्ण सौंदर्य को चित्रित करके अपने स्तर को ऊँचा रखें।

हम जानते हैं कि लोगों की दाढ़ में वह चस्का लग गया है, जो जन-मानस की दुर्बलता से लाभ उठाकर अपनी तिजोरियाँ जल्दी-जल्दी भरली जायें। लोगों का, समाज का अहित होता है तो हो। इसी प्रकार लोक-रुचि के निकृष्ट तत्व अपनी कुत्सा की तृप्ति जहाँ देखते हैं, वहीं गन्दगी पर भिनकने वाली मक्खी की तरह टूट पड़ते हैं और यह नहीं देखते कि हम पैसा और समय खर्च करके राजी-खुशी उस विष को खरीद रहे हैं जो उनके नैतिक, पारिवारिक, मानसिक, एवं शारीरिक स्वस्थता को नष्ट करके छोड़ेगा। पर इस अज्ञान-अंधकार की जोड़ी पर कुड़मुड़ाते रहने से काम क्या चलने वाला है। हमें बुरी वस्तु की तुलना में अच्छी वस्तु रखकर लोगों की विवेक-बुद्धि को यह अवसर देना चाहिए कि वे दो में से एक को चुन सकें। जब एक ही प्रवाह है- एक ही हवा है, तो उसमें भले-बुरे सभी बहेंगे। बुरे के मुकाबले में अच्छे की प्रतिद्वन्दिता का ही मार्ग शेष रह जाता है और सरकार में कुछ दम होती तो कलम के एक झटके में यह सारी खुराफातें बन्द हो सकती थीं। बैंकों की तरह कला का भी राष्ट्रीयकरण किया जा सकता था और शिक्षा तथा कला को लोक-निर्माण की दिशा में प्रयुक्त किया जा सकता था। पर अभी ऐसी आशा करना व्यर्थ है। हमें जन-स्तर पर ही शिक्षा की भाँति कला का भी निखरा रूप जन-साधारण के सामने रखना होगा। सरकारी स्तर पर न सही- जनता के विवेक का स्तर अभी शेष है। हमें उसी को जगाना और प्रयुक्त करना है।

‘कला कुत्सा के लिये नहीं’ का नारा लेकर हम आगे बढ़ेंगे और सुरुचिपूर्ण कला को परिष्कृत रूप से प्रस्तुत करेंगे। ऐसा सुगठित साहित्य-तन्त्र खड़ा किया जाना चाहिए जो व्यक्ति और समाज की मूलभूत समस्याओं के समाधान की सामग्री हर दृष्टि से प्रस्तुत करे। निबन्ध, कविता, कथा, विवेचना, परिहास आदि विभिन्न स्तरों की विभिन्न प्रकृति के व्यक्तियों की आवश्यकता पूरा करने वाला साहित्य सृजा जाना चाहिए। इसके लिये आदर्शवादी साहित्यकारों एवं कवियों का सहयोग भी मिल सकता है। अपने नाम को कलंकित करके एक रुपया कमाने की अपेक्षा अपना सम्मान पीछे के लिये छोड़ जाने वाले आठ आने लेकर भी शायद वे काम चला लें। ऐसा साहित्य प्रकाशित करने के लिये पूँजी की आवश्यकता पड़ेगी। ऐसी वस्तुएँ पढ़ने के लिये लोक-रुचि जागृत करनी पड़ेगी तथा वे सर्वत्र उपलब्ध हो सकें- ऐसा प्रबन्ध करना होगा। कुरुचि ने ऐसे साहित्य के प्रति सर्वत्र उपेक्षा एवं अवज्ञा के भाव उत्पन्न कर दिये हैं, इसलिये न तो वैसी चीजें लेखक लिखते हैं- न प्रकाशक छापते हैं- और न विक्रेता बेचते हैं क्योंकि बिक्री कम होने से उन्हें पूरा लाभ नहीं मिलता। हमें साहित्यकारों को ही इधर आमन्त्रित नहीं करना होगा वरन् प्रकाशन और विक्रय के लिये भी एक स्वतन्त्र संगठन खड़ा करना होगा। लोक-मानस को आदर्शवादिता की ओर मोड़ने के लिये यह व्यवस्था जुटानी नितान्त आवश्यक है, भले ही वह कितनी ही कष्ट-साध्य एवं जटिल क्यों न हो।

युग-निर्माण योजना के केन्द्रीय कार्यालय, मथुरा से यह प्रवृत्ति छोटे रूप में आरम्भ भी हुई है। व्यक्ति, परिवार और समाज के नव-निर्माण के लिये-स्वस्थ-शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की अभिनव रचना के लिये-सस्ती ट्रैक्ट-माला अभी प्रारम्भ की गई है, जिसमें लगभग 200 निबन्ध पुस्तिकायें तथा 100 कथा, कविता, जीवन-के रूप में आरम्भ भी हुई हैं======== चरित्र आदि की पुस्तिकायें छपी हैं। दस पैसा रोज निकालने वाले इन्हें मँगाते हैं और अपने संपर्क-क्षेत्र में इन्हें पढ़ाते हैं। बुक-सेलर इन्हें पसन्द नहीं करते, क्योंकि बिक्री भी कम और लाभ भी कम हो तो कोई दुकानदार क्यों उस झंझट में पड़े। अपनी विक्रय-व्यवस्था घरेलू ज्ञान-मन्दिरों के माध्यम से है। आगे धकेली जाने वाली छोटी गाड़ियों में गतिशील रहने वाले ‘चल-पुस्तकालयों’ की योजना भी इस साहित्य के लिये अभिरुचि तथा क्षेत्र उत्पन्न करेगी। प्रयोग छोटा है, क्योंकि अपने साधन छोटे हैं। पर तरीका यही है। नव-निर्माण के लिये उपयुक्त साहित्य का सृजन और प्रसारण इन्हीं तरीकों से होगा।

अभी इस दिशा में बहुत काम करना बाकी है। अनेक विषयों के माध्यम से लोक-रुचि को आदर्शवादिता की ओर मोड़ने के लिये अनेकों पत्र-पत्रिकाओं की जरूरत है। अनेक भाषाओं में अनेक विषयों की उत्कृष्टता का समावेश करने वाला साहित्य छपना चाहिए और विक्रय का व्यापक तन्त्र खड़ा किया जाना चाहिए। पूँजी के अभाव में राष्ट्र की यह महती आवश्यकता आज तो एक प्रकार से रुकी ही पड़ी है, पर आशा की जा सकती है कि भविष्य में प्रकाश की किरणें भी कहीं से उदय होंगी और इस कुरुचिपूर्ण साहित्य की प्रतिद्वन्दिता। हम समग्र नव-निर्माण के अति महत्वपूर्ण साहित्य का सृजन करके जन-मानस का कायाकल्प कर सकने में समर्थ होंगे। ऐसे ही प्रयत्न और लोग भी कर सकते हैं। अपना तो मार्गदर्शक प्रयोग है।

कविता, गायन, संगीत, वाद्य और अभिनय के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो सकता है। अब समय बदल रहा है। कितनी उच्चस्तरीय फिल्में कुरुचिपूर्ण और बदनाम फिल्मों से भी अधिक सफल सिद्ध हो रही हैं। इससे आभास मिलता है कि कुरुचि के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया होने वाली है और अगले दिनों सुरुचिपूर्ण कला को उचित स्थान और सम्मान मिलने वाला है।

हम सहयोग-समितियों के माध्यम से अथवा किन्हीं साधन-सम्पन्न व्यक्तियों को नव-निर्माण की आवश्यकता पूर्ण कर सकने वाली फिल्में बनाने के लिये प्रोत्साहन देकर युग की आवश्यकता पूरी कर सकने वाली फिल्में बनाने वाला एक तन्त्र खड़ा कर सके तो निश्चय ही उससे आशाजनक परिणाम निकलेगा। आर्थिक दृष्टि से इस प्रकार के उद्योगों में कोई घाटा होने वाला नहीं है। लोगों का भय अगले दिनों सर्वथा निर्मूल सिद्ध होगा कि आदर्शवाद को सुनने-देखने वाला कोई नहीं। वस्तुतः कुत्सा भरी कला के विरुद्ध अब घृणा इतनी गहरी हो चली है कि यदि कोई उत्कृष्ट कला-उत्कृष्ट निर्देशन में प्रस्तुत की जाय तो उस पर जनता टूट पड़ेगी। आवश्यकता केवल साहस और पूँजी एकत्रित करने की है। घिनौना समझा जाने वाला आज का सिनेमा कल भावनात्मक नव-निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत कर सकता है।

आजकल फिल्मों की लागत महंगे नट-नटियों के तथा निर्माण-कार्य में अन्धाधुन्ध साज-सज्जा करने के कारण बहुत महंगी पड़ती है। कुशलता के साथ यदि उन्हें बनाया जाय तो वे चौथाई लागत में बन सकती हैं। मठाधीश कलाकारों को छोड़कर सेवाभावी और आदर्शवादी नये पात्रों की माँग की जाय तो इस क्षेत्र में स्वयंसेवक की तरह अपने को खपा देने वाली कितनी ही ऐसी प्रतिमायें सामने आ सकती हैं, जिनके करतब दर्शकों को चकित करके रख दें।

लाउडस्पीकरों पर बजने वाले रिकार्ड राष्ट्र की एक महती आवश्यकता पूर्ण करेंगे। ग्रामोफोन तो अस्त हो गया, पर लाउडस्पीकरों के लिये आज भी उनकी जरूरत है। रेडियो स्टेशनों से भी रिकार्ड बजाये जाते हैं। पर अभी जो रिकार्ड उपलब्ध हैं, उनमें दस-पाँच ही ऐसे मिलेंगे जो-जागरण का प्रयोजन पूरा करते हों। शेष तो उसी लकीर को पीटते हैं, जिस पर कला का हर घोड़ा दौड़ लगा रहा है। एक ऐसा तन्त्र खड़ा किया जा सकता है, जो प्रेरणाप्रद और दिशा-दर्शक के रिकार्ड बनाये और उन्हें बाजार में खपाये। सहयोग समितियों अथवा व्यक्तिगत उद्योग के रूप में, जैसे भी यह कार्य किया जाये, पूँजी पूर्ण सुरक्षित रहेगी और लोक-मंगल का प्रयोजन भी पूरा होगा।

फिल्म और रिकार्डों का निर्माण युग-परिवर्तन का प्रयोजन पूरा करने में एक सीमा तक बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है। यदि व्यवहार-कुशल लोगों का ध्यान इस ओर चला जाय तो आर्थिक लाभ भी मिलेगा और समाज की महती सेवा भी होगी। घाटे की तो कोई सम्भावना है ही नहीं। धनी व्यक्तियों को यदि इधर बढ़ने का साहस न हो तो लिमिटेड कम्पनी या सहयोग समिति का कोई कुशाग्र व्यक्ति गठन कर सकता है और उस आधार पर भी यह गाड़ी आगे बढ़ सकती है।

यही बात चित्रों के सम्बन्ध में है। महापुरुषों के, मार्मिक घटनाओं के, सौजन्यतापूर्ण अभिव्यक्तियों के चित्रों की इतनी तो खपत हो ही सकती है कि कुरुचिपूर्ण तस्वीर बनाने-बेचने वालों की तुलना में एक उद्योग जीवित रह सके। विभिन्न स्तर की आवश्यकताएँ पूर्ण करने वाले आदर्श विकल्प प्रस्तुत करके भी चित्रों द्वारा की जाने वाली सुसज्जा को स्थानापन्न-प्रतिद्वन्दी आधार प्रस्तुत किया जा सकता है। युग-निर्माण योजना ने ऐसा कुछ हल्का-सा आयोजन आरम्भ भी किया है।

शहरी क्षेत्र तो सिनेमा ने जकड़ लिया, फिर भी जीवित अभिनव की सम्भावना अभी सर्वथा मृत नहीं हुई है। सजीव पात्रों के व्यक्तित्व, कण्ठ तथा सान्निध्य में जो आकर्षण है वह सदा बना रहे, यदि सजीव अभिनव को आज की परिस्थिति एवं सुसज्जा के साथ पुनः सक्रिय किया जा सके तो उसका भी स्वागत होगा। मथुरा क्षेत्र में लगभग 100 रास-मण्डलियाँ हैं और उनमें 10-15 से कम की कोई टोली नहीं होती। लगभग हजार-डेढ़ हजार व्यक्ति केवल रासलीला का सौ वर्ष पुराने ढंग-ढर्रे पर अपने अभिनय क्रम को चलाते हुए आजीविका कमा रहे हैं। उनकी माँग सदा देश के विभिन्न प्रान्तों में बनी रहती है। ठीक यह है कि उनके पीछे कृष्ण भगवान की लीला देखने की एक धार्मिक प्रवृत्ति भी जुड़ी रहती है। पर यह भी स्पष्ट है कि संगीत, वाद्य, अभिनय का आकर्षण भी कम नहीं है। एकाकी कृष्ण-लीला को ही अवतार माने और संगीत-अभिनय रहित उसे बना दें तो उसका आकर्षण कदाचित ही स्थिर रह सके।

कला का नाट्य और अभिनय वाला पहलू काफी आकर्षक है। इसे सुयोग्य और सधे हुए हाथ अपने ढंग से सजायें, सँभालें और बदलें तो 80 फीसदी देहातों में बसे हुए भारत को जहाँ तक स्वस्थ मनोरंजन मिल सकता है, वहाँ लोक-मानस की दिशाएँ बदलने का क्रान्तिकारी उद्देश्य भी पूरा हो सकता है। पूरे नाटक, एकाँकी नाटक, नृत्य-नाटिका, कवि-दरबार, छाया-अभिनय आदि अनेकों एक से अधिक आधार ढूँढ़े जा सकते हैं और उन्हें टेप-रिकॉर्डर में भरी हुई दूसरों की अधिक सुन्दर स्वर-लहरियों तथा वाद्य-विशेषता के साथ जोड़कर और भी अधिक आकर्षक बनाया जा सकता है।

इस प्रकार संगीत, वाद्य और अभिनय की त्रिवेणी मिलाकर जन-भावनाओं को लहराने और ऊँचा उठाने का प्रकाश दिया जा सकता है। इस सरंजाम के साथ मनुष्य को वर्तमान अवाँछनीयता के दुष्परिणामों से परिचित कराने और उनके विरुद्ध संघर्ष करने के लिए सहज ही उत्तेजित किया जा सकता है।

आवश्यकता एक ऐसे कला-केन्द्र की है, जो संगीत, वाद्य और अभिनय की त्रिवेणी को तीर्थराज बनाकर व्यक्ति और समाज के पाप-तापों को धोने के लिये अथक काम कर सके। समुचित प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति ही इस क्षेत्र में प्रवेश कर आशाजनक परिणाम उत्पन्न कर सकेंगे। इसलिये सबसे पहले आवश्यकता उपयुक्त छात्रों को प्रशिक्षित करने की है और यह काम कोई साध्य-सम्पन्न विद्यालय ही कर सकता है।

इस संदर्भ में हम चाहते हैं कि अपने परिवार की कला-प्रवृत्ति एक केन्द्र पर इकट्ठी हो। जिनके कण्ठ-स्वर मीठे हैं, उन्हें अपनी उस प्रतिभा को राष्ट्र-माता के लिये अर्पित करना चाहिए। जिनको वाद्य बजाने में प्रवीणता है, उन्हें अपनी क्षमता लोक-मंगल के लिये भेंट चढ़ानी चाहिए। नृत्य, अभिनय के उपयुक्त लचक और कोमलता जिनमें है, वे भी उस विशेषता से विश्व-मानव को लाभान्वित करने का संकल्प करें। ऐसी विभूतियाँ मथुरा इकट्ठी हो सकती हैं और उनके प्रशिक्षण का प्रबन्ध किया जा सकता है। विभिन्न स्तर के प्रदर्शनों के लिये मण्डलियाँ गठित की जा सकती हैं और उन्हें समय-समय पर देश भर में चलते रहने वाले युग-निर्माण सम्मेलनों के साथ जोड़ा जा सकता है। अलग से भी उनकी माँग हो सकती है। इस प्रकार कलाकारों का एक बहुत बड़ा संघ खड़ा हो सकता है, जो बौद्ध संघों की तरह कला के माध्यम से जन-जागरण का महान प्रयोजन पूरा करने में जुटा रहे। यह उपलब्धि मनोरंजन मात्र नहीं है। यदि उसे भावनात्मक बनाया जा सका तो क्रान्तिकारी परिवर्तन प्रस्तुत किया जा सकता है।

अगले वर्षों में हमें शिक्षा और कला के दोनों मोर्चे संभालते हुए भावनात्मक नव-निर्माण के-युग-परिवर्तन के-क्षेत्र में अति महत्वपूर्ण गतिशीलता उत्पन्न करनी है। छोटे-बड़े विद्यालयों का व्यापक ताना-बाना बुनना है, जिनमें सामान्य ज्ञान से अधिक व्यक्ति और समाज के नव-निर्माण का क्रान्तिकारी कार्यक्रम जुड़ा हो। कला को दुर्गति के गर्त में से निकालकर उसकी स्वाभाविक गरिमा तक का सम्मान दिलाना है। कला मंडलियों का-कला केन्द्रों का- उनके लिये क्षेत्र तैयार करने का सरंजाम जुटाना है। यह सब कार्य निस्संदेह एक केन्द्रीय प्रशिक्षण केन्द्र से ही सञ्चालित हो सकता है। पीछे भले ही उसकी शाखा-प्रशाखायें सर्वत्र फैलती और अपने-अपने क्षेत्र सँभालती चली जायें।

जड़ मजबूत हुए बिना पत्ते नहीं आयेंगे। सुगठित केन्द्र इन प्रवृत्तियों का उद्भव, प्रशिक्षण और संचालन न करें तो कोई प्रवृत्ति व्यापक रूप धारण नहीं कर सकती। आमतौर से उथले स्तर के लोग अपना नाम चाहने के लिये अपने यहाँ भावावेश में कुछ लँगड़े-लूले प्रयत्न आरम्भ कर देते हैं। वे भूल जाते हैं कि छोटी-से-छोटी प्रवृत्ति के संचालन में भी ऊँची-से-ऊँची योग्यता, प्रतिभा एवं सुविधा की जरूरत होती है। वह जुट नहीं पाती, इसलिये वे प्रयत्न असफल हो जाते हैं। यदि व्यक्तिगत नाम उभारने और अपनी कृतियों का आप श्रेय लेने का ओछापन हम सार्वजनिक कार्यकर्ताओं के मन में से निकल जाय, तो एक ही निष्कर्ष निकलेगा कि जहाँ-तहाँ छुटपुट-छुटपुट काम करने की अपेक्षा एक साधन-सम्पन्न केन्द्र को ही परिपुष्ट किया जाय और फिर जड़ सींचकर पत्ते हरे रखने का चमत्कार देखा जाय।

युग-निर्माण योजना के केन्द्रीय कार्यालय से शिक्षा और कला को सृजनात्मक दिशा देकर उन्हें युग-व्यापक बनाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। यहाँ कार्यकर्ताओं का एक सुव्यवस्थित प्रशिक्षण केन्द्र रहे, जो निरन्तर कार्यकर्ता तैयार करे और वे तैयार कार्यकर्ता अपने-अपने क्षेत्रों में कार्य करने के लिये जुट जायें। फिल्म और रिकार्ड बनाने के लिये एक स्वतन्त्र तन्त्र व्यावसायिक आधार पर खड़ा किया जाय।

अगले वर्ष उपरोक्त प्रकार की गतिविधियाँ अपनाई जानी हैं। युग-निर्माण की गंगा एक छोटी निर्झरिणी न रहकर सहस्र धाराओं में फूटने वाली है। उसकी भावी रूपरेखा हमें ध्यान में रखनी है और उसके लिये आवश्यक साधन एवं माध्यम जुटाने की तैयारी भी करनी है। पर साथ ही यह भी ध्यान रखना है कि यह वर्तमान वर्ष केन्द्रीय संस्था को मजबूत बनाने के लिये पूर्ण तथा सुरक्षित रखना है। छोटी गायत्री तपोभूमि हमारे तुच्छ, व्यक्तित्व के बीस वर्ष काम आई। युग-निर्माण योजना का अभियान भी जैसे ही कुछ लंगड़ा-लूला चल पड़ा, पर अब हमारे जाने के बाद काम सौ गुना बढ़ने वाला है और इसलिये केन्द्र की मजबूती सबसे पहली आवश्यकता है। सो इस वर्ष पूरी तन्मयता से कम-से-कम हर एक को पूरी निष्ठा के साथ उसी में जुटा-जुता रहना चाहिए।


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