अपनी संस्कृति तो प्रवासी पक्षी भी नहीं भूलते

July 1970

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कार्तिक लगा और भरतपुर की झीलें तरह-तरह के रंगीन चहल-पहल करने वाले प्रवासी पक्षियों से भरनी प्रारम्भ हुई। कहते हैं भरतपुर आने वाले अधिकाँश पक्षी रूस के साइबेरिया प्रान्त से आये हुए होते हैं। पक्षियों का यों विश्व के भिन्न-भिन्न स्थानों से यह प्रेम विलक्षण है, कौतूहल वर्द्धक भी। उससे जीव मात्र की एकता और सम्पूर्ण पृथ्वी के एक परिवार, एक इकाई होने का जो प्रमाण मिलता है, वह भी कम कौतूहल वर्द्धक नहीं।

बड़ौदा के आस-पास तथा कच्छ के नल सरोवर में भी शेष भारत और विश्व के अनेक भागों से आये हुए पक्षी जाड़े के दिन किस हँसी-खुशी से काटते हैं, उसे देखकर लगता है संसार के लोग भी ऐसे ही परस्पर मिल-जुलकर रहने का अभ्यास कर सके होते तो विश्व कितना खुशहाल दिखाई देता।

पक्षियों के प्रवासी जीवन (माइग्रेशन) का अपना एक विचित्र ही इतिहास है। जहाँ मनुष्यों में थोड़ी-थोड़ी जमीन भाषावार प्राँत, देश-देशान्तरों के मध्य सीमा-विवाद उग्र रूप धारण करते हैं और रक्तपात की परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं, वहाँ पक्षी हैं- मनुष्य से बहुत नेक, जिन्हें न तो भाषा का भेदभाव करना आता है, न प्रान्त और देश का थोड़े दिन का आयुष्य, बड़ी हँसी-खुशी के साथ बिता लेते हैं।

पक्षी-विशेषज्ञों का मत है कि वे यह सब अन्तःप्रेरणा से करते हैं। इस प्रेरणा का उद्देश्य मौसम की अनुकूलता प्राप्त करना, भोजन और आजीविका की खोज, बच्चे पैदा करने के लिये उपयुक्त वातावरण प्राप्त करना होता है। कई पक्षी प्रकाश की कमी अनुभव करने पर उसी प्रकार एक स्थान छोड़कर दूसरे स्थानों में चले जाते हैं जिस प्रकार कुछ देशों में राजनैतिक या शासन-यन्त्र की भयंकरता के कारण बहुत से लोगों को निर्वासित होना पड़ता है।

किन्तु चिड़ियों के प्रवास की दिशा का अध्ययन यह बताता है कि ऐसा करते समय पक्षी अपना सूक्ष्म बुद्धि, विवेक एवं सूक्ष्म-बूझ का भी प्रयोग करते हैं। वे जब अक्षाँशीय (लाँगीट्यूडनल) पथ पर एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव की ओर यात्रा करते हैं, तब ऐसे स्थानों से होकर चलते हैं, जहाँ उन्हें भोजन-घोंसले आदि की सुविधा रहे। लौटते समय भी वे उसका ध्यान रखते हैं। यह केवल अन्तः प्रेरणा से ही नहीं हो सकता। इसमें उनकी समझ ही प्रधान होती है। मनुष्य भी इसी प्रकार प्रवाह से पूर्व समझ से काम ले यह आवश्यक है।

पक्षी जब उत्तरी गोलार्द्ध से दक्षिणी गोलार्द्ध को चलते हैं, तो यह सीधा (देशान्तरीय) प्रवास (वर्टीकल माइग्रेशन) कहलाता है। इसमें भी वही सूझबूझ रहती है। कुछ पक्षी जो एक स्थान पर स्थायी रूप से रहते हैं, पर कुछ ही समय के लिये बाहर जाते हैं, उदाहरण के लिये कौवे, खञ्जन, पिपलीज, मछली राजा (किंगफिशर) आदि को खाना नहीं मिलता, बर्फ जम जाती है तब कुछ ही दिन बाहर रहना पड़ता है, फिर वे वापिस आ जाते हैं। कुछ चिड़ियाएं होती ही खानाबदोश (बर्ड आफ पैसेज) हैं। वे घूमते-फिरते हुए सृष्टि के विभिन्न दृश्यों का आनन्द लेती हुई जीवन यापन करती हैं। इसकी मनुष्य से तुलना करने पर लगता है एक ही गाँव, प्राँत और देश को घर बना लेना मनुष्य जाति की कितनी संकीर्णता है, यदि हम सारे संसार को ही एक परिवार, एक देश मान सके होते तो धरती स्वर्ग बन गई होती।

डॉ. एलचित ने बहुत दिन तक चिड़ियों के प्रवासी जीवन का अध्ययन करके लिखा है-यह पक्षी समय के अनुसार अधिक-से-अधिक अपने रहन-सहन, वेश-भूषा में परिवर्तन भी कर लेते हैं। पर अपनी सभ्यता, संस्कृति और आदर्शों को वे उन स्थानों में भी नहीं भूलते जहाँ उन्हें प्रवासी जीवन बिताना पड़ता है। हम भारतीय हैं जिन्होंने कभी ‘कृण्वन्तोविश्वमार्यम्’, ‘हम सारे विश्व को आर्य (सु-संस्कृत) बनायेंगे’ का नारा दिया था, संसार भर में फैल गये थे, लोगों को धार्मिक, साँस्कृतिक उपदेश व शिक्षण देकर उन्हें सभ्य व सुसंस्कृत बनाया था। उनकी साँस्कृतिक निष्ठा रत्ती भर भी न डिगी थी, तभी सारे विश्व को प्रभावित करना सम्भव हुआ था। आज तो स्थिति बिलकुल ही उलट गई। लाखों-करोड़ों भारतीय जावा, सुमात्रा, मौरिशस, केन्या, यूगाँडा, ट्रिनीडाड, फिलीपिन्स, नैटाल, डर्बन, मलाया, सिंगापुर आदि में बसे हैं,पर उनकी अपनी न शिक्षा रही न संस्कृति। वेश-भूषा, रहन-सहन, आहार-विहार तक बदल गये। नाम अभी भी भारतीय है, पर काम और आचार-विचार तो पाश्चात्यों से भी गये गुजरे हो गये। अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा न होना सत्य सनातन धर्म के लिये भारी आघात हुआ। हम अपनी ही निष्ठा से टूट गये तो संसार पथभ्रष्ट क्यों न होता?

चिड़ियाँ चलने के लिये तैयारी करती है तब अपने पुराने पंख गिराकर नये पंख धारण कर यात्रा का स्वागत करती हैं। पहले वे एक बार परीक्षण उड़ान कर लेती हैं। अकेले नहीं, अनेक चिड़ियाँ एक दिन एक स्थान में नियत समय पर एकत्रित होकर उड़तीं और संगठन व एकता की महत्ता प्रतिपादित करती हैं। वे दिन में भी चलती हैं और सुरक्षा की दृष्टि से रात में भी। पर यात्रा के दिनों में उनकी सभ्यता और शिष्टाचार देखते ही बनता है।

सबसे आगे कबीले की- झुण्ड की वृद्ध चिड़ियाएं चलतीं हैं और मनुष्य जाति को संकेत से समझाती हैं कि वृद्ध शरीर से कितने ही अशक्त क्यों न हो जायें वे कभी अनुपयोगी नहीं होते। उनके पास जीवन भर का ज्ञान और अनुभव संग्रहीत रहता है। चिड़ियाँ उनसे महत्वपूर्ण लाभ ले सकती हैं, तो मनुष्य जैसा समझदार प्राणी वैसा क्यों नहीं कर सकता ? भारतीय संस्कृति में वृद्धों को, माता-पिता को इतना सम्मान दिया गया है, तभी हम संसार में अपना गौरव स्थापित कर सके हैं और आज जबकि पाश्चात्यों के अन्धानुकरण व अपनी ही दुर्बलताओं के शिकार हमने उन्हें आदर देने में कमी कर दी तब हम दिग्भ्रान्त पथिक के समान इधर-उधर भटकते भी दिखाई दे रहे हैं।

चिड़ियों की समझ इस दृष्टि से मनुष्य की समझ से श्रेष्ठ है । वे जब अपने देश से जाती हैं, तब वृद्धों को आगे रखती हैं। उनके पीछे अर्थात् मध्य में छोटे बच्चे होते हैं- सुरक्षा की कितनी सावधानी- सबसे पीछे युवा पक्षी। पर लौटते समय यह स्थिति बिलकुल बदल जाती है। वृद्धों के आदेश पर अब प्रौढ़ पक्षी सबसे आगे चलते हैं, ताकि वे अगली यात्राओं के लिये अनुभव प्राप्त करें, दक्ष हो जायें बीच में वही छोटे बच्चे और सबसे पीछे मार्ग-दर्शन करती हुई वृद्ध चिड़ियाएं। वे रहती भर हैं पीछे, पर रास्ता चलने में थोड़ी-सी भी भूल हो तो वे उसे सुधार देती हैं। घनी अंधेरी रातों में भी वृद्ध पक्षी तारागणों की मदद से उन्हें चलना सिखाते हैं। पक्षी अपने बुजुर्गों के सम्मान का पूरा लाभ लेते हैं जबकि हम मनुष्यों ने बुजुर्गों का सत्कार न कर अपना भारी अहित किया।

हजारों मील की दूरी तक चले जाते हैं यह पक्षी, पर जब वापिस लौटते हैं तो अपनी संस्कृति, बोली, भाषा में किञ्चित मात्र परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता। आर्कटिक टर्न 11000 मील की यात्रा करती है तो गोल्डेन पावर 7000 मील का प्रवास। वुडकाक, सारस और राबिन पक्षी क्रमशः 2500, 2000, 1000 मील तक चले जाते हैं। छोटी-छोटी गौरैया और चहचहाने वाली चिड़ियां भी 500 व 300 मील तक चली जाती हैं और विश्व भ्रमण का आनन्द व ज्ञान-लाभ प्राप्त करती हैं।

समुद्र के तट, पर्वत, वादी, घाटियों और नदियों का भ्रमण करते पक्षी होते हैं छोटे, पर अपना दृष्टिकोण विशाल बना लेते हैं। पक्षी-विशेषज्ञों का विश्वास है कि इन्हें पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र, उसके घूमने से उत्पन्न मैकेनिकल फोर्स आदि का भी पता होता है। मनुष्य ही है कि अपने सीमित ज्ञान का दम्भ दिखाता है। यह पक्षी जो ज्योतिर्विज्ञान तक से परिचित होते हैं, अँधेरी रातों में तारों की मदद से आगे बढ़ते चले जाते हैं, पर उन्हें अपनी श्रेष्ठता का कुछ भी अभिमान नहीं होता। एक छोटे-से प्राणी की चहकती-पदकती जिन्दगी जी लेते हैं साथ ही तरह-तरह के ज्ञान और अनुभव भी अर्जित करते रहते हैं। लेकिन ऐसा कभी न हुआ कि उन्होंने अपनी जाति, अपनी संस्कृति, अपनी विशेषताओं का परित्याग किया हो। हम भी अपनी संस्कृति के प्रति वैसी ही निष्ठा व्यक्त कर सके होते, तो स्वयं भी धन्य हो गये होते, धर्म और संस्कृति को भी गौरव प्रदान कर गये होते।

=कोटेशन============================

देश, काल और कठिन परिस्थितियों में भी जो धर्म का त्याग करता, उसे इन्द्र भी पराजित नहीं कर सकते।

-जगद्गुरु शंकराचार्य

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