बिन्दु में सिन्धु समाया

July 1970

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कलकत्ते में एक ऐसा वट-वृक्ष (फाइकस बेंगालेन्सिज) पाया जाता है, जिसकी ऊपरी छतरी का व्यास 2000 गज से भी अधिक है। बरगद की डालियों से भी जड़ें (बरोहे) निकल-निकल कर पृथ्वी में धँस जाती हैं और ऊपरी फैलाव को साधे रहते हैं। इस वट-वृक्ष में भी हजारों जड़ें निकल कर जमीन में धँस गई हैं, उससे वृक्ष की सुरक्षा, शक्ति और शोभा और भी अधिक बढ़ गई है। हजारों व्यक्ति, हजारों पक्षी उसकी छाया में आश्रय और आजीविका प्राप्त करते रहते हैं। वृक्ष का इतना भारी घेरा एक प्रकार का आश्चर्य ही है।

उससे भी बढ़कर आश्चर्य यह है कि इतना विशाल वट-वृक्ष जिस बीज से उगा है, उसका व्यास एक सेन्टीमीटर से अधिक न रहा होगा। वनस्पति विज्ञान (बाँटनी) के जानने वालों को पता होगा कि वृक्ष का सम्पूर्ण विकास जिस धरातल पर होता है, उसे बीज कहते हैं। बीज में ही वह सारी सम्भावनायें छिपी पड़ी रहती हैं, जो आगे चलकर एक दीर्घाकार वृक्ष के रूप में दिखाई देने लगती हैं। बीज की बाह्य त्वचा (इपिडर्मिस) के भीतर अनेक परतें होती हैं, उन्हें वल्कुट (कार्टेम्स) पतली भित्तियों वाले कोषों (पैरेन्शाइटमस सेल्स) से बने होते हैं। बीज को आड़ा काटा जाय तो वह कोष गोल दिखाई देते हैं। वल्कुट की अन्तिम परत को अन्तस् त्वचा (इन्डोरमिस) कहते हैं। इसके कोष (सेल्स) आयताकार (रेक्टैन्गुलर) होते हैं। उनकी आड़ी दीवारों पर एक विशेष प्रकार की मोटाई (थिकिन्ग्स) होती हैं। पतले भित्तियों वाले कोषों की एक परत अन्तस् त्वचा (इन्डोरमिस) के भीतर स्थित होती है, इसे परिरम्भ (पेरीसाइकिल) कहते हैं। जड़ की शाखायें इसी भाग से निकलती हैं। यहीं से कुछ कोष निकल कर बढ़ने के लिये स्थान बना लेते हैं और कार्टेक्स को काटते हुए जड़ों के रूप में फूट पड़ते हैं।

जिस क्रिया में संवहन ऊतक (कैरीइंग टिसूज) का काम जाइलभ और फ्लोएम नाम के तत्व करते हैं। ये दोनों बीज के मज्जा (पिथ) को घेरे रहते हैं। यह मज्जा (पिथ) की प्रेरणा ही ऊपर तने और नीचे जड़ के रूप में फूटती है। जड़ के इस क्रियाशील भाग को सूक्ष्मदर्शी से देखें तो बिना बढ़े हुए वृक्ष का आकार-प्रकार दिखाई दे जाता है। एक विलक्षण संसार उसमें दिखाई दे जाता है। यह आश्चर्य ही है कि मज्जा (पिथ) का सर्वेक्षण करके यह बताया जा सकता है कि क्षेत्र की जड़े इतनी होंगी, इतनी मोटाई लेकर इस गहराई में अमुक-अमुक दिशा को बढ़ेंगी। इसी प्रकार तना कितना मोटा, कितनी शाखों वाला किधर को मुड़ा डालियों और कितने पत्तों वाला होगा। इस सबका पूर्णाभास इस हिस्से के सूक्ष्म दर्शन द्वारा किया जा सकता है। प्रश्न उन पर्तों और कोषों का नहीं, जो विकास की चेष्टायें करती हैं। सूझने वाली बात वह अन्तर्चेतना है, जो आत्म-प्रेरणा से विकसित होती और अपने आपको बढ़ा कर एक भरे पूरे वृक्ष के रूप में परिणत कर देती है। एक पूरे वृक्ष का नक्शा एक बीज में भरा है, यह पढ़कर लोग आश्चर्य ही करेंगे।

इतना विशाल वट वृक्ष जिस बीज से अंकुरित, पुष्पित, पल्लवित और बड़ा हुआ वह आधे सेन्टीमीटर व्यास से भी छोटा घटक रहा होगा। उस बीज की चेतना ने जब विस्तार करना प्रारम्भ किया तो तना, तने से डालें, डालों से पत्ते, फल, फूल, जड़ें आदि बढ़ते चले गये।

मनुष्य-शरीर की प्रवृत्ति और विकास-प्रक्रिया भी ठीक ऐसी ही है। वीर्य के एक छोटे-से-छोटे कोष (स्पर्म) को स्त्री के प्रजनन कोष ने धारण किया था। पीछे यही कोष जिसमें मनुष्य स्त्री या पुरुष के शरीर की सारी सम्भावनायें-आकृति-प्रकृति, रंग-रूप, ऊँचाई, नाक-नक्शा आदि सब कुछ विद्यमान था- उसने जब बढ़ना प्रारम्भ किया तो वह अन्तरिक्ष की अनन्त शक्तियों को खींच-खींचकर शरीर रूप में विकसित होता चला गया। एक सेन्टीमीटर स्थान में कई अरब कोष आ सकते थे, जो उसी सूक्ष्मतम कोष से 5 फुट 6 इंच का मोटा शरीर दिखाई देने लगता है।

गर्भ के भीतर रहने तक तो यह लघुता याद रहती है किन्तु बाहर की हवा लगते ही जीवन का मूलभूत आधार भूल जाता है और मनुष्य अपने आपको स्थूल पदार्थों का पिण्ड मात्र मानकर मनुष्य जीवन जैसी बहुमूल्य ईश्वरीय विरासत को गवाँ बैठता है। हम यदि छोटे-छोटे अणु में भी जीवन की अनुभूति कर सके होते, तो जन-चेतना के प्रति हमारा दृष्टिकोण आज की अपेक्षा कुछ भिन्न ही होता। भारतीय आचार्यों ने इस गहराई को अनुभव किया था, इसलिये उनका अधिकाँश समय, ध्यान, धारणा, जप, तप, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि साधनाओं में लगा था। उन्होंने प्रकाश के एक परमाणु में अपनी चेतना स्थिर कर संसार के रहस्यों को उसी तरह करतल गत किया था, जिस प्रकार मज्जा (पित्त) में ध्यान जमाने से वृक्ष की भूत-भविष्य की कल्पनायें साकार हो उठती हैं।

शरीर जिन कोषों से बनता है, उसमें चेतन परमाणु ही नहीं होते, वरन् दृश्य-जगत् में दिखाई देने वाली प्रकृति का भी उसमें विकास होता है। इससे मनुष्य-शरीर की क्षमता और मूल्य और भी बढ़ गया है। द्रव, गैस और ठोस-जल, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बन, सिल्वर, सोना, लोहा, फास्फोरस आदि-जो कुछ भी पृथ्वी में है और जो कुछ पृथ्वी में नहीं है। अन्य ग्रह नक्षत्रों में है, वह सब भी-स्थूल और सूक्ष्म रूप से शरीर में हैं। जिस तरह वृक्ष में कहीं तने, कहीं पत्ते, कहीं फल एक व्यापक विस्तार था, शरीर के विभिन्न क्षेत्रों में उसी प्रकार विभिन्न लोक और लोकों की शक्तियाँ विद्यमान देखकर ही शास्त्रकार ने कहा था- “यत्ब्रह्माँडे तत्पिंडे” ब्रह्माँड की सम्पूर्ण शक्तियाँ मनुष्य शरीर में विद्यमान हैं। सूर्य, चन्द्रमा, बुध, बृहस्पति, उत्तरायण, दक्षिणायन मार्ग, पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु, विद्युत, चुम्बकत्व, गुरुत्वाकर्षण यह सब शरीर में है। यजुर्वेद का कथन है-

शीर्ष्णो द्यौः समावर्ततः, यस्य वातः प्राणाप्राणौ, नाभ्याऽसीदन्तरिक्षं दिशः श्रोत्रं पद्भयाँ भूमिः॥

अर्थात् द्यौ सिर, वायु ही प्राण, अन्तरिक्ष नाभि, दिशा कान और भूमि पैर हैं- इस तरह यह विराट् जगत् मेरे भीतर समाया हुआ है।

ईसाई धर्म की पुस्तक बाइबल की व्याख्या करते हुए पैरासेल्सस लिखते हैं कि- “मनुष्य-शरीर को इच्छाओं का सजा हुआ वाद्ययन्त्र कहना चाहिए, जिसमें कि आत्मा की झंकार सबसे मधुर सुनाई देती है। इच्छायें आकाश में स्थित नक्षत्रों (देव-शक्तियों) में बीज-कोष ही हैं। यह बीज शरीर के कुछ महत्वपूर्ण स्थानों में रहते हैं। उनकी आणविक संरचना और उन नक्षत्रों की आणविक संरचना में विलक्षण साम्य होता है।”

पैरासेल्सस आगे लिखते हैं- “शरीर की रचना (नक्षत्र गति) के संरक्षण और निर्देश में होती है। उत्पत्ति के तीसरे दिन चन्द्रमा से बुद्धि और तुला ने व्यक्तित्व को प्रभावित किया। शरीर में तन्मात्रायें दूसरे दिन ही आ गई थीं, जिनकी उत्पत्ति सूर्य-शक्ति से हुई। हृदय पर लियो (चन्द्रमा) का अधिकार होता है और वह आत्मिक शान्ति और सौम्यता प्रदान करता है। शरीर के दूसरे सूक्ष्म अंगों को सेजीटेरियस, इगो प्रभावित करते हैं।” मनुष्य-शरीर में विद्यमान यही चेतना-कोष ही जीवन की गतिविधियों का निर्माण करते हैं। इस तरह बाइबिल और बाइबिल के पण्डित भी इस तथ्य से परिचित थे कि शरीर का स्थूल भाग जहाँ पार्थिव अणुओं से बना है वहाँ उसकी चेतना का विस्तृत ढाँचा ब्रह्माँड की शक्तियों और नक्षत्रों से बना है, उसका स्वरूप चाहे कितना ही सूक्ष्म क्यों न हो।

योग ग्रन्थों में वर्णित चमत्कार शरीर की इन सूक्ष्म और अलौकिक शक्तियों का विकास मात्र है। सब कुछ हमारे शरीर में है, यदि हम उसे खोजने का प्रयत्न करें तो बाह्य सम्पदायें न होने पर भी अतुल शक्तियों के स्वामी बन सकते हैं। बहुमुखी शक्तियों के स्रोत हमारे भीतर भरे पड़े हैं, उनका विकास जीवन की अनेक धाराओं में कलकत्ते के वट-वृक्ष की भाँति किया जा सकता है, उससे अपना ही नहीं, हजारों औरों को भी आश्रय, संरक्षण और जीवन प्रदान किया जा सकता है।


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