बीमारियों का वास-
तब बीमारियाँ एक पहाड़ पर रहा करती थीं। पर्वत उन्हें अपनी पुत्री की तरह पालता-पोसता। बीमारियाँ उसका अनुग्रह मानती और कोई भी उपकार करने की इच्छुक बनी रहतीं, पर पहाड़ को उनकी सेवाओं की आवश्यकता भी तो नहीं थी।
कुछ दिन बीते। एक किसान को कृषि-योग्य भूमि की कुछ कमी पड़ी। और कहीं जमीन थी नहीं, अलबता वह पहाड़ ही बहुत सारी जमीन दबाये खड़ा था। यह देखकर परिश्रमी किसान पहाड़ काटने और उसे चौरस बनाने में जुट गया।
किसान ने बहुत-सी भूमि कृषि-योग्य कर ली। यह देखकर दूसरे किसान भी जुट पड़े। किसानों की संख्या देखते-देखते सैकड़ों तक जा पहुँची। इस तरह निरन्तर काया काटते देखकर पहाड़ घबराया और अपने बचाव के उपाय खोजने लगा।
और कुछ तो समझ में नहीं आया- हाँ, उसे अपने कोटर में पल रही बीमारियों की याद अवश्य आ गई। सो उसने सब बीमारियों को इकट्ठा किया और पूछा- क्या आप लोग हमारे उपकार चुकायेंगी? बीमारियाँ तो पहले ही कह चुकी थीं। उन्होंने कहा- आप सहर्ष आदेश दें, हम आपकी क्या सेवा कर सकती हैं?
पहाड़ ने फावड़े और कुदाल चलाते हुए किसानों की ओर संकेत किया और कहा- पुत्रियों। देखो यह रहे मेरे शत्रु मुझे काटकर जर्जर किये दे रहे हैं। तुम सब-की-सब इन पर झपट पड़ो और मेरा नाश करने वालों का सत्यानाश कर डालो।
अपने-अपने आयुध लेकर बीमारियाँ आगे बढ़ीं और किसानों के शरीर से लिपट गई पर किसान तो अपनी धुन में लगे थे। फावड़े जितना तेजी से चलाते, पसीना उतना ही अधिक निकलता और सारी बीमारियाँ घुलकर नीचे गिर जातीं। बहुत उपक्रम किया, पर बीमारियों की एक न चली। एक अच्छा स्थान छोड़कर उन्हें गन्द-वासिनी बनना पड़ा सो अलग।
पहाड़ ने जब देखा कि बीमारियाँ उसकी रक्षा नहीं कर सकीं तो वह बड़ा कुपित हुआ और शाप दिया- मैंने तुम्हें पुत्रियों की तरह पाला फिर भी तुम मेरा थोड़ा-सा काम भी न कर सकीं। अब तुम जहाँ हो वहीं पड़ी रहो।
तब से बीमारियाँ हमेशा गन्दगी में प्रश्रय पाती हैं और मेहनत-कस अनपढ़ हों तो भी स्वस्थ जीवन जीते हैं- यही नियम अब तक चला आ रहा है।