जिसने मन को जीत लिया है,
उससे है सारा जग हारा !
उसका क्रोध शान्ति का स्वामी ,
उसका बल जन-हित अनुगामी,
उसका हास सर्व मंगल है,
उसकी गति है जय-पथ गामी ,
उसे ना बंदी कर सकती है,
स्वार्थ, अहम्, वैभव की कारा !
उसके हित कुछ नहीं पराया,
उसने सबको ही अपनाया ,
उस पर वरद हस्त रखती है,
कल्पवृक्ष की मोहक छाया,
उसमें अपना प्रेम विश्व के,
कण-कण जन- जन में विस्तारा !
गीता उसके सुयश सुनती,
रामायण उस पर मुसकाती,
कर देती आलोक विश्व में,
है उसके प्राणों की बाटी,
ऐसा नर मेरी मञ्जिल है,,
मेरा पथ मेरा ध्रुव तारा !
- विद्यावती मिश्र
*समाप्त*