“बड़े भाग्य मानुष तन पावा”

December 1970

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मनुष्य शरीर में अन्य जीवों के शरीरों की अपेक्षा असंख्य विशेषतायें ऐसी भरी पड़ी हैं, जो यह सोचने को विवश करती हैं कि भगवान ने मनुष्य को किसी विशेष उद्देश्य से ही बनाया है।

पानी में पाये जाने वाला एक कोशीय जीव अमीबा आकृति में जितना छोटा होता है, शारीरिक रचना में उतना ही सरल। सूक्ष्मदर्शी यन्त्र में देखने में वह “संशय” के स में लगे बिन्दु (0) जितना लगता है, मनुष्य के शरीर की तरह न तो उसके हाथ-पाँव होते हैं न फेफड़े, आँतें, आमाशय, मुँह, दाँत, नाक, आँखें आदि। एक तो उसका नाभिक (न्यूक्लियस) शेष साइटोप्लाज्म (जीव द्रव्य अर्थात् वह प्राकृतिक तत्व जिनसे जीवित शरीर बनते हैं) दोनों को मिलाकर वही प्रोटोप्लाज्मा कहलाता है। चलना हो तो उसी में दो चिमटी निकाल कर चल लेगा, दो चिमटी बनाकर खोलेगा, प्रोटोप्लाज्मा आगे बढ़ाकर ही वह चल लेता है। यह तो मनुष्य शरीर ही है जिसे भगवान ने इतना सुन्दर, सर्वांगपूर्ण और ऐसा बनाया है कि उससे संसार का कोई भी प्रयोजन पूरा किया जा सके। हमें संसार के अन्य जीवों से अपनी तुलना करनी चाहिये और यह विचार करना चाहिये इतनी परिपूर्ण देन क्या अन्य जीवों की तरह ही व्यर्थ इन्द्रिय भोगों में गुजार देने के लिये है या उसका कोई और भी बड़ा उपयोग हो सकता है?

प्राणियों की दुनिया में जीव-जन्तुओं की कोई कमी नहीं है। गणना की जाये तो 84 लाख से एक भी कम न निकले। एक से एक विचित्र आकृति, एक से एक विचित्र प्रकृति। समुद्र में एक ऑक्टोपस जीव पाया जाता है, आकार में बहुत छोटा पर आठ भुजायें। कभी-कभी अँगड़ाई लेता है तो इतना बढ़ जाता है कि एक सिरे से दूसरे सिरे तक 20 फुट लम्बा हो जाता है। न्यूयार्क के “म्यूजियम आफ नेचुरल हिस्ट्री” में “मोआ” नामक एक पक्षी के अस्थि-अवशेष (फासिल्स) सुरक्षित हैं अनुमान है कि यह 700 वर्ष पूर्व कभी न्यूजीलैंड में पाया जाता था। इसकी टाँगे 6 फुट लम्बी और लगभग इतनी ही लम्बी गर्दन। दो सिरों वाली 12 फुट की लकड़ी जैसा यह पक्षी भी प्राणि-जगत का आश्चर्य रहा होगा कभी।

“डायाट्राइमा” भी इसी तरह एक न उड़ने वाला पक्षी था उसकी आकृति देखते ही हँसी आ जाती है। अफ्रीकन राइनो के थुथनों के ऊपर सींग और पीछे दो कान-चार स्तंभों वाला सिर भी कुछ कम विचित्र नहीं। अरंग उटान, गिब्बन और चिम्पैंजी-बन्दर, डकविल, डिप्लोडोकस (इस 6 करोड़ वर्ष पूर्व भयंकर छिपकली के नाम से जाने वाले जीव की लम्बाई आज तक पाये जाने वाले जीवों में सबसे अधिक लगभग 21 मीटर होती थी) और दरियाई घोड़े जैसे विलक्षण जीव, घोंघे, मछलियाँ, मेंढक, आदि के शरीर देखकर पता चलता है कि प्रकृति कितनी चतुर- कितनी विदूषक और कैसी कलाकार है, वह तो कुछ न गढ़ दे सो थोड़ा।

एक बड़े दृष्टिकोण से सोचें तो पता चलेगा कि सृष्टि के अन्य मानवेत्तर जीवों को प्रकृति ने विलक्षण अवश्य बनाया है पर उनको इतना अशक्त-इतना कमजोर बनाया है कि वे अपनी रक्षा एक सीमा तक कर सकने में समर्थ होते हैं। किसी तरह बेचारे अपनी तुच्छ सी इच्छायें पूर्ण करने के चक्कर में पड़े भारतीय तत्व दर्शन की यह मान्यता प्रमाणित करते रहते हैं।

अनारतं प्रतिदिशं देशे देशे जले स्थले।

                                           जायन्ते वा म्रियन्ते वा बुद्बुदा इव वारिणि॥  -योगवशिष्ट 4।43।4

अर्थात् जैसे जल के ऊपर बुलबुले उठा करते हैं और नष्ट होते रहते हैं। वैसे ही प्रत्येक देश और काल में अनन्त जीव उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं।

इन शारीरिक बन्धनों का कारण- “स्व वासना दशा वेशादाशाविवशता गताः” (योगवशिष्ठ 4।43।3)- अर्थात् अपनी वासनाओं के द्वारा प्राप्त दशा के वशीभूत होने के कारण जीव तरह-तरह के शरीर ग्रहण करता रहता है। वैसे यह जीव शरीर नहीं प्रकाश रूप है। उसे “अणुतेजः कणोस्मीति स्वयं चेतति चित्तया” अर्थात् वह जीव अत्यन्त सूक्ष्म-प्रकाश-अणु के रूप में स्वयं ही चेतन शील है। चित्त आदि समस्त चेष्टायें उसी में सन्निहित हैं। इन शब्दों में जीव चेतना द्वारा अपने मन इच्छा और वासनाओं के आधार पर तरह-तरह के शरीरों में प्रकट होने की अभूतपूर्व खोज प्रस्तुत कर दी है पर यह सब बातें वह जीव-जन्तु नहीं समझ सकते थे क्योंकि न तो उनकी बौद्धिक क्षमतायें प्रखर होती हैं और न उनके पास ऐसी साधन सुविधायें ही होती है, जैसी कि मनुष्य के पास। इसलिये आत्म-विज्ञान जैसा कोई भी ज्ञान उनके लिये निरर्थक है। यह तो मनुष्य को समझना चाहिये कि जो कार्य संसार की कोई भी मशीन कर सकती है उससे भी आश्चर्यजनक काम कर दिखाने की क्षमता वाले मनुष्य शरीर का उपयोग भी क्या इन्द्रिय सुखों तक ही सीमित रहना चाहिये।

जब सब जीव इस तरह आसक्ति में पड़े आत्म तत्व को भूल गये तब परमात्मा ने मनुष्य शरीर को बनाया और उसमें “जीवात्मा” प्रतिष्ठित कर सृष्टि का सबसे अधिक गौरवशील प्राणी होने का सौभाग्य सौंप दिया। वायु पुराण में लिखा है-

पुरुषादिष्ठितत्वाच्घ अव्यक्तानुग्रहेण च।

  महदादयो विषेषान्ता अण्डमुत्पादयन्तिवै॥

अर्थात्-ईश्वर की इच्छा और अव्यक्त प्रकृति की कृपा से ही अण्ड की उत्पत्ति हुई है। रामायण में मनुष्य शरीर को सुर-दुर्लभ उपलब्धि बताते हुए उसे जीवात्मा सबसे बड़ा सौभाग्य कहा है-

बड़े भागय मानुष तन पावा, सुरदुर्लभ सद्ग्रन्थनि गावा।

  जड़ चेतनहिंग्रन्थि पड़ गई, यद्यपि मृषा छूटत कठिनाई॥

यह शरीर जड़ चेतन का संयोग है, दोनों अलग-अलग हैं पर गाँठ पड़ जाने से एक हो गये हैं उस गाँठ को खोलकर चिर मुक्त होना ही जीवात्मा का उद्देश्य है शरीर तो एक यन्त्र है उसमें प्रविष्ट आत्म चेतना ही मननीय और प्राप्त करने योग्य है, उसे जानने के लिये इतनी क्षमताओं से विभूषित शरीर परमात्मा ने दिया है। पर मनुष्य वास्तविकता को समझने की चेष्टा न करते हुये मानवेत्तर जीव-जन्तुओं की सी तुच्छ भोग वृत्तियों में पड़ा रहता है।

कल्पना करें और वैज्ञानिक दृष्टि से आँखें उघाड़कर देखें तो पता चलेगा कि मनुष्य शरीर के निर्माण में प्रकृति ने जो बुद्धि कौशल खर्च किया तथा परिश्रम जुटाया वह अन्य किसी भी शरीर के लिये नहीं किया। मनुष्य शरीर सृष्टि का सबसे विलक्षण उपादान है। ऐसा आश्चर्य और कोई दूसरा नहीं है। यह एक अभेद्य दुर्ग है, जिसमें रह रहे जीवात्मा को अन्य जीवों की तरह संसार की किसी भी परिस्थिति या संकट से भयभीत होने का कोई कारण नहीं। जबकि अन्य जीव अपनी इन्द्रियों की तृप्ति और अपने शरीर की दुश्मनों से रक्षा इन दो कारणों को लेकर ही जीते रहते हैं, मनुष्य के लिये यह दोनों बातें बिलकुल गौण हैं वह अपने बुद्धि कौशल से धर्म, कला, संस्कृति का निर्माण करता है और इनके सहारे अपनी आत्मा को ऊपर उठाते हुये स्वर्ग और मुक्ति जैसे दिव्य लाभ प्राप्त करता है।

आत्म-दर्शन और ईश्वर-साक्षात्कार जैसी विभूतियाँ प्राप्त करने की समस्त सुविधायें मनुष्य शरीर को ही प्राप्त हैं। यह सर्व क्षमता सम्पन्न जीवात्मा का अभेद्य दुर्ग यन्त्र और वाहन है, जिसका उपयोग करके मनुष्य सारे संसार में विचरण कर सकता है।

आज के वैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं कि जो विशेषतायें और सामर्थ्य प्रकृति ने मनुष्य को प्रदान की है वह सृष्टि के किसी भी प्राणि-शरीर को उपलब्ध नहीं। गर्भोपनिषद् के अनुसार शरीर की 180 सन्धियाँ,। 107 मर्मस्थान, 109 स्नायु, 700 शिरायें, और 500 मज्जायें, 360 हड्डियाँ, 4 1।2 करोड़ रोम, हृदय के 8 और जिव्हा के 12 पल, 1 प्रस्थ पित्त, 1 कफ आढ़क, 1 शुक्र कुड़व भेद, 2 प्रस्थ और आहार ग्रहण करने व मल-मूत्र निष्कासन के जो अच्छे से अच्छे यन्त्र इस शरीर में लगे हैं वह प्रकृति द्वारा निर्मित किसी भी शरीर में नहीं हैं।

जीव गर्भ में आता है प्रकृति तभी से उसकी सेवा सुरक्षा, प्यार-दुलार एक जीवित माता की तरह प्रारम्भ कर देती है। जीव उस समय तैत्तिरीय संहिता के अनुसार-

हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः

कश्यपो यास्विन्द्रः॥

अग्निं या गर्भ दधिरे विश्वरुपा ता न आपः

                                    शंस्योना भवन्तु॥                    -   5 । 6 । 1


सोने की तरह शुचि और पावक आपः अर्थात् अग्नि के विद्युत रूप में था। उसमें प्रकाश, जल और आकाश तत्व भी थे। अतएव उसकी सर्दी-गर्मी से रक्षा की नितान्त आवश्यकता थी। ऐसा न होता तो शीत या ग्रीष्म के कारण जल तत्व जम जाता या वाष्प हो जाता और भ्रूण प्रारम्भ में ही नष्ट हो जाता उस समय माँ के गर्भ जैसा रक्षा कवच और किसी प्राणी को नहीं मिलता। जिसमें मौसम से तो सुरक्षा होती ही है, शरीर के विकास के लिये माँ के शरीर से ही हर आवश्यक तत्व पहुँचने लगते हैं। कई बार जो तत्व जीव शरीर के लिये आवश्यक होते हैं वह माँ के शरीर में कम होते हैं। उस समय प्रकृति अपने आप माँ में उस तरह के पदार्थ खाने की रुचि उत्पन्न करती है। गर्भावस्था में दाँतों का दुखना, हड्डियों और कमर में दर्द शरीर में कैल्शियम, लोहा आदि की कमी के सूचक होते हैं। यह तत्व औषधि के रूप में तुरन्त माँ को दिये जाते हैं और इस तरह गर्भावस्था में पड़े जीव की सारी आवश्यकतायें पूर्ण हो जाती हैं।

बच्चे का गर्भ से बाहर आना और सैकड़ों-करोड़ों दुश्मनों का तैयार मिलना एक साथ होता है। हवा, पानी, मिट्टी में न दिखाई देने वाले करोड़ों जीवाणु, (बैक्टीरिया), विषाणु (वायरस), मच्छर, मक्खी सब उस पर आक्रमण को तैयार मिलते हैं। सबसे बड़ी कठिनाई पल-पल बदलते मौसम की होती है पर धन्य री प्रकृति मनुष्य शरीर के प्रति उसके प्यार और सजगता को शब्दों में नहीं सराहा जा सकता। बाल्यावस्था में वह शरीर का तापमान सदैव 37 डिग्री से. स्थिर रखती है। कहते हैं बच्चों को जाड़ा नहीं लगता, दरअसल यह सच है और प्रकृति की सबसे बड़ी कृपा कि बाहर का कितना ही मौसम बदले बच्चा जब तक स्वयं संवेदनशील नहीं हो जाता ऋतु-परिवर्तन का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

आँख में छोटी सी किरकिरी गई और आँसू निकले। आँसू निकलना दुःख का कारण माना जाता है पर सच यह है कि आँसू के रूप में निकला हुआ द्रव कीटाणुनाशक औषधि होता है। वैज्ञानिकों ने आँसुओं का रासायनिक विश्लेषण करके पाया कि उसमें “लीसोजीम” नामक एक तत्व होता है, जो इतना प्रबल कीटाणु नाशक होता है कि उसकी एक बूँद दो लीटर पानी में डाल दी जाये तो पानी के सख्त से सख्त बैक्टीरिया भी मर जायेंगे। इसके अतिरिक्त “लाइसिंस” “ल्यूकिंस” प्लाकिंस नामक तत्व भी कीटाणु नाशक होते हैं, जो थूक और शरीर के अन्य सरल पदार्थों में भी पाये जाते हैं। प्रसिद्ध रसायन शास्त्री श्री रुथ और एडवर्ड ब्रेचर ने जाँच करके लिखा है कि पेचिश का जीवाणु (बैक्टीरिया) काँच के स्लाइड पर 6-6 घण्टे तक जीवित बना रहता है। पर यदि उसे हथेली पर रखें तो वह त्वचा के रासायनिक पदार्थों के कारण 20 मिनट से अधिक समय तक जीवित न रह पायेगा।

कफ होते ही खाँसी, नाक में कोई चीज फँसते ही छींक, नींद, आते ही जम्हाई, हवा और बाहरी आकाश को छानते रहने की प्रतिक्षण आँख मिचकने की क्रिया मनुष्य शरीर की विलक्षण विशेषतायें हैं। कोई कीटाणु नाक में घुसा कि बालों ने रोका, उनसे नहीं रुका तो चिपचिपे पदार्थ में पहुँचते ही छींक आई, नाक निकली और कीटाणु बाहर। दुश्मन सख्त हुआ माना नहीं, गले में चला गया तो खाँसी, पेट में पहुँच गया तो पाचक रस सुरक्षा का काम करने लगेंगे और उसे मार भगायेंगे। कहीं शत्रु फेफड़े में पहुँच गया तो श्लेष्मा उन्हें तुरन्त बाहर फेंकेगी।

शरीर में अमीबा की तरह का “लियोसोसाइटिस” जीवाणु होता है। वह शरीर की सुरक्षा का सबसे वफादार सिपाही माना जाता है। इसमें सभी शत्रु जीवाणु को खा जाने की क्षमता होती है, शरीर के किसी भी हिस्से में कोई विषाक्त जीवाणु पहुँच जायें यह “लियोसोसाइटिस” हजारों लाखों की संख्या में पहुँच कर उन्हें मार भगाते हैं।

कई बार ऐसा होता है कि शत्रु जीवाणु शक्तिशाली होता है, वह कर-छल-बल से ‘लियोसोसाइटिस’ को भी अपने पक्ष में कर लेता है। प्रकृति ने ऐसे देशद्रोहियों से निबटने के लिये मनुष्य शरीर में “मैक्रोफेजेस” नामक कुछ सुरक्षित सैनिक (रिजर्व फोर्स) रखे हैं। ऐसे समय यह वफादार सैनिक आगे बढ़ते और शत्रु तथा देशद्रोहियों दोनों का सफाया कर देते हैं। ऐसी जरूरतों के लिये अलग साधन, पृथक संचार व्यवस्थायें भी प्रकृति ने शरीर में तैयार की हैं, उन्हें “लिगफैटिक सिस्टम” के नाम से जाना जाता है।

कई बार शरीर में चोट लग जाती है, शरीर में सूजन हो आती है। सूजन देखते ही घबराहट होती है, पर घबराने की आवश्यकता नहीं, सूजन इस बात का संकेत है कि रक्त के प्लाज्मा में स्थित रक्षक द्रव “फिब्रिनोजिन” आ पहुँचा है और उसने चोट लगे स्थान के शत्रु जीवाणुओं को आगे बढ़ने से रोकने के लिये रक्त का धक्का बनाकर उन्हें उतने ही स्थान में घेर दिया है। यदि प्रकृति ने यह व्यवस्था न की होती तो वह जीवाणु हर 20 मिनट बाद दूनी संख्या में बढ़ते और शरीर को नष्ट कर डालते। धन्यवाद प्रकृति को, पिता परमेश्वर को जिसने जीवात्मा को एक ऐसे दुर्ग में रखा जहाँ का हर सैनिक उसकी रक्षा और विकास के लिये सोते, जागते हर घड़ी जागरुक रहता है। दुःखद बात तो यह होती है कि इतना होने पर भी शरीर का स्वामी अपने प्रति अन्यमनस्क ही रहता है, उसे अपने स्वरूप अपने कल्याण की कभी याद ही नहीं आती जो उसके जीवन का प्रमुख ध्येय है।

ऋषियों ने कहा है- यस्य प्रयाणमन्वन्य इद्ययुर्देवो देवस्य महिमान मोजसा। यः पार्थिवानि विममे स एतशो रजा, सिदेवः सविता महित्वना॥

-यजुर्वेद 11।6

सविता रूप आत्मा को प्रकट कर परमात्मा ने उसके विकास और आत्म-कल्याण के लिये शरीर और इन्द्रियाँ दीं और कहा-वत्स! तुम्हें मनुष्य का शरीर देने के बाद और कुछ देने को शेष नहीं रहा, तुम इस साधन का सदुपयोग कर आत्म-कल्याण को प्राप्त होंगे।

कहते हैं डॉ. खुराना ने “जीन” का संश्लेषण कर लिया है, पर सच बात यह है कि उन्होंने जिस “जीन” का संश्लेषण किया है, वह एक “यीस्ट” (एक अमीबा जैसा ही क्षुद्र जीव) का जीन है जिसमें कुल 77 न्यूक्लिओ-टाइड्स होती हैं, (जीन में ही जीवन के रासायनिक गुण सूत्र) होते हैं। जबकि मनुष्य शरीर जिन “जीन्स” से बना है, उनके न्यूकिलओटाइड्स की संख्या कई लाख होती है। ऐसी सर्वप्रभुता सम्पन्न मशीन मनुष्य को परमात्मा ही दे सकता है। जो इस तथ्य को अन्तःकरण की सम्पूर्ण गहराई से हृदयंगम कर लेता है, उसके लिये यह शरीर इन्द्र की अमरावती के समान है, पर जो इन्द्रियों के सुख और भौतिक कल्पनाओं में ही फँसे पड़े रहते हैं, उनके लिये यह शरीर अमीबा, ऑक्टोपस, डाइट्राइमा और सृष्टि के अन्य क्षुद्र जीवों के शरीरों की तरह ही है जिससे कुछ दिन तो लौकिक सुख लूटे जा सकते हैं, पर उनसे जीवात्मा का कुछ हित सम्भव नहीं।




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