परमार्थ की उपेक्षा न करें।

December 1970

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जिस प्रकार प्रकाश के अभाव को अन्धकार स्थानापन्न करता है, दया भाव का अभाव क्रूरता से स्थानापन्न होता है, उसी प्रकार पुण्य-परमार्थ के अभाव को पाप प्रवृत्तियाँ स्थानापन्न करती है।

जो मनुष्य पुण्य प्रवृत्तियों में निरत नहीं होता उससे पाप कर्मों की सम्भावना बनी रह सकती है। मनुष्य इन दो स्थितियों में से एक को ही प्राप्त कर सकता है। मध्य स्थिति या तो बड़ों के लिये सम्भव है अथवा जीवन मुक्त योगी के लिये। सामान्य मनुष्य न जड़ होता है और न जीवन मुक्त योगी। अस्तु आवश्यक है कि पाप से बचे रहने के लिये वह किसी न किसी परमार्थ कार्य में लगा रहे।

जो सत्पुरुष अपने अन्तःकरण में परमार्थ बुद्धि का विकास कर लेते हैं, जो परिष्कृत और उदार दृष्टिकोण से जीवन की सार्थकता पर विचार करते हैं, और जो अपनी आत्मा में आध्यात्मिक स्फूर्ति की स्थापना कर लेते हैं, उन्हें अपनी प्रवृत्तियों से भय नहीं रहता कि वे उसे पाप मार्ग पर ढकेल सकती है। मानव की सहज प्रवृत्तियाँ परमार्थ बुद्धि की अनुगामिनी बन जाती हैं।

शारीरिक स्वास्थ्य और आरोग्य के लिये जिस प्रकार खाना-पीना, सोना-जागना, हँसना, खेलना और व्यायाम करना आवश्यक है, उसी प्रकार आत्मिक मंगल के लिये, आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिये परमार्थ कार्य करते रहना बहुत जरूरी है। दिनचर्या में परमार्थ को स्थान दिये बिना आत्मा का निर्मल और निष्कलंक रहना सम्भव नहीं। यदि आत्मा कलुषित एवं कलंकित है, तो शरीर कितना ही स्वस्थ, सुन्दर और शक्ति सम्पन्न क्यों न हो, मनुष्य अपूर्णता के दोष से बचा नहीं रह सकता। मनुष्य का स्वरूप पूर्ण तभी होता है जब शरीर के साथ आत्मा और बाह्य के साथ अन्तर भी स्वस्थ तथा सुन्दर हो। यह वाँछित स्थिति तभी सम्भव है, जब मनुष्य नित्यकर्मों की भाँति परमार्थ को भी जीवन क्रम का एक अभिन्न अंग बनाए।

पुण्य परमार्थ की इस आवश्यकता को प्रायः सज्जन व्यक्ति अनुभव करते हैं। किन्तु उसको कार्यान्वित करने में प्रमाद बरतते हैं। इस प्रमाद का व्यवहार वे अधिकतर दो प्रकार से करते हैं। या तो वे अवसर और परिस्थिति न होने का बहाना करते हैं अथवा परमार्थ प्रवृत्ति को आगे के लिये टालते रहते हैं। बहुत से लोग यह सोचते और कहते रहते हैं कि क्या करें, हमारे पास धन ही नहीं है। हम पुण्य परमार्थ कर भी कैसे सकते हैं? उसके लिये तो धन की आवश्यकता होती है। जो थोड़ी बहुत आय है उसमें परिवार का ही खर्च पूरा नहीं होता। अपने भविष्य के लिये ही जब कुछ नहीं बच पाता तो परोपकार अथवा पुण्य परमार्थ में कहाँ से बचाया और लगाया जा सकता है।

बहुतों के पास जब धन का बहाना नहीं होता तो समय के अभाव का बहाना ले बैठते हैं। सफाई देते हुए कहा करते हैं- कुछ सत्कर्म और परमार्थ करने की इच्छा तो होती है। उसके लिये, भगवान ने कुछ खर्च कर सकने की समता भी दी है। लेकिन क्या बतायें समय का बड़ा अभाव रहता है। घर-बार, कारोबार और जीवन के अन्य कामों की इतनी बहुतायत है कि एक मिनट का भी समय नहीं मिलता। किस समय तो परोपकार किया जाये और किस समय परमार्थ।

किन्तु सच्ची बात यह है कि इस प्रकार की मजबूरी बहाने के सिवाय और कुछ नहीं है। धन का बहाना लेने वालों को सोचना चाहिए कि जब दुनिया की सारी जरूरतों के लिए पैसे का प्रबन्ध हो जाता है तो क्या पुण्य परमार्थ के लिये इतना बड़ा अकाल पड़ जाता है कि कोई छोटा-मोटा सत्कर्म भी नहीं कर सकते। सीमित आय में भी जब दुनियादारी का कोई आकस्मिक व्यय आ पड़ता है तो उन्हीं सीमित साधनों में से उसका भी प्रबन्ध हो जाता है। तब क्या कारण है कि पुण्य परमार्थ के लिये थोड़ा सा भी पैसा खर्च नहीं किया जा सकता। यदि मन में सच्ची भावना हो और परमार्थ को अनिवार्य कार्यों की तरह अपरिहार्य समझा जाये तो उसके लिए भी सौ रास्ते निकल सकते हैं। कमी पैसे की नहीं कमी वास्तव में सच्ची भावना की होती है।

पुण्य परमार्थ पैसे के आधार पर ही होता हो, पैसे के बिना हो ही न सकता हो, ऐसी भी कोई बात-नहीं है। पुण्य परमार्थ के ऐसे हजारों काम हैं जो पैसे के बिना भी हो सकते हैं। परमार्थ तो तन-मन-धन तीनों प्रकार से हो सकता है। परमार्थ का आशय-दान देना, सदावर्त खोलना, गोशाला, धर्मशाला, कुँआ अथवा मंदिर बनवाना ही तो नहीं है। दीन दुखियों के प्रति दया, करुणा और सहानुभूति की भावना रखना। रोगियों, अपाहिजों और आपत्तिग्रस्तों की सेवा करना, अन्धों को राह दिखलाना और खोये हुए को घर पहुँचा देना भी तो पुण्य परमार्थ के ही अंतर्गत आता है। इसके लिए न धन की आवश्यकता है और सम्पत्ति की। यह सत्कर्म बिना धन के थोड़े शारीरिक श्रम द्वारा भी किए जा सकते हैं। धन का बहाना-बहाना मात्र ही है। इसके पीछे न तो कोई तथ्य है और न सत्य!

समयाभाव का बहाना भी इसी तरह का थोथा बहाना मात्र है और कुछ नहीं। एक दिन के चौबीस घंटों और गुजर गये जीवन की लम्बी अवधि में ऐसी कौन सी व्यस्तता रही हो सकती है जिसके कारण थोड़ा सा पुण्य परमार्थ, कोई छोटा सा सत्कर्म करने का भी समय न मिल सका। खाने, पीने, सोने, जागने, मनोरंजन करने और व्यापार व्यवसाय के बीच से क्या थोड़ा सा भी समय नहीं निकाला जा सकता जो कि किसी सत्कर्म में लगाया जा सके।

माना, व्यापार व्यवसाय के व्यस्त समय में कटौती नहीं कि जा सकती। ऐसा करने से सम्भव है कि किसी हानि का सामना करना पड़ जाये। तथापि विश्राम एवं मनोरंजन के समय में से तो कुछ समय ऐसा निकाला जा सकता है तो पुण्य परमार्थ के कर्म में लगाया जा सके! गद्दी पर बैठे बैठे दान किया जा सकता है। रास्ता चलते-चलते किसी की सहायता की जा सकती है। किसी समय थोड़ा सा समय देकर कुछ ऐसे विद्यार्थियों की परीक्षा ली जा सकती है जो सहायता के पात्र हों और उसी समय से उनको छात्रवृत्ति देकर एक साल तक परोपकार के उस कार्य को चलाया जा सकता है।

इसके अतिरिक्त मनोरंजन के उपायों में परमार्थ परक गतिविधियाँ और कार्यक्रम शामिल किए जा सकते हैं। बहुत बार जहाँ सैर सपाटे के लिए यात्राओं पर जाया जा सकता है, वन-विहार और जल विहार के लिये प्रस्थान किया जा सकता है तो एक बार किसी दीन-हीन और पिछड़ी बस्ती की और भी जाया जा सकता है। उनकी आवश्यकताएँ और दुःख दर्द का पता लगाया और सहायता की जा सकती है। जहाँ सौ बार संगीत सुना जा सकता है वहाँ एक बार दुखियों की पुकार भी सुनी जा सकती है। जिस प्रकार उस पर खर्च किया जा सकता है, उसी प्रकार उन गरीबों पर भी किया जा सकता है, कहने का तात्पर्य यह है कि यदि परोपकार की भावना सच्ची हो और कुछ करने का उत्साह हो तो समय का प्रभाव आड़े नहीं आ सकता! हजारों ऐसे परोपकार के कार्य हो सकते हैं जो घूमते-चलते और बैठते-उठते किए जा सकते हैं।

अवसर न मिलने की बात भी व्यर्थ है। इसमें भी कोई तथ्य नहीं है। कोई आवश्यक नहीं कि परोपकार के लिए कोई बड़ी योजना बनाई जाये और खास तौर से उसका प्रबंध किया जाये। परमार्थ कोई बड़ा यत्न करने अथवा विश्वविद्यालय खड़ा करने में ही नहीं है और न गरीबों की बस्ती का पुनः-निर्माण करने मात्र में ही है। कहीं भी चल रहे इन आयोजनों में योगदान करने से भी परमार्थ का प्रयोजन पूरा हो जाता है। किसी के आयोजित यज्ञ में कुछ दे देने और किसी संस्था के निर्माण में सहयोग करने में भी उतना ही बड़ा पुण्य है जितना कि स्वयं उसका आयोजन करना! जिस प्रकार खड़े-खड़े व्यावसायिक सौदे कर लिए जाते हैं बैठे-बैठे, बड़े-बड़े कारोबार चला लिए जाते हैं, वैसे ही चलते-चलते किसी जन-निर्माण में चुपके से अपना अंश-दान भी लिखाया जा सकता है। बिना कहे साधन सामग्री भी भेजी जा सकती है। ऐसे कार्यों के लिए किसी अवसर की तलाश करना, किसी तीर्थ यात्रा की प्रतीक्षा करते रहना एक बहाने के सिवाय और कुछ नहीं है। श्रद्धापूर्वक अच्छे और निष्काम मन से किया हुआ एक छोटा सहयोग भी परमार्थ के बड़े आयोजन की तरह ही पुण्य प्रतापी होता है।

पुण्य परमार्थ के अवसर अथवा भावना को टालने वाले जीवन में भारी भूल करते हैं। परमार्थ अथवा परोपकार की भावना अथवा अवसर का उदय होना किन्हीं पूर्व पुण्यों का उदय ही समझना चाहिए। अन्यथा इस प्रपंच एवं प्रवंचनापूर्ण संसार में, इसके दूषित वातावरण में ऐसे अवसर और ऐसी कल्याणकारी भावनाएं सुलभ ही कहाँ होती हैं। यदि आये हुए उत्साह को कार्यान्वित न करके आगे के लिये टाल दिया गया तो कोई ठीक नहीं कि वह भावना फिर उठे या न उठे, वह अवसर फिर आये न आये। इस नश्वर संसार में जीवन का भी कोई ठिकाना नहीं। आज है कल नहीं भी रह सकता। तब तो पुण्य परमार्थ का एक अवसर भाग्यवश आया था उसके भी लाभ से वंचित रहना पड़ेगा! परमार्थ अथवा पुण्य-कार्य में तत्परता करने का महत्व समझने के लिए महाभारत का यह उपाख्यान बड़ा उपयोगी तथा शिक्षाप्रद है।

एक बार एक भिक्षुक ने महाराज युधिष्ठिर के सम्मुख उपस्थित होकर कुछ याचना की। महाराज युधिष्ठिर उस समय किसी अन्य कार्य में व्यस्त थे। निदान उन्होंने उससे दूसरे दिन आने को कह दिया। भिक्षुक चला गया!

उस अवसर पर भीम वहीं उपस्थित थे! भिखारी के चले जाने पर वे उठे और हर्ष सूचक दुन्दुभी बजाने लगे उसका संकेत स्वर सुनकर नगर में खुशी के बाजे बजने लगे। युधिष्ठिर ने सुना और भीम से पूछा। भीम यह हर्ष सूचक वाद्य सहसा क्यों बज उठे। भीम ने उत्तर दिया-वह इसलिए कि हमारे महाराज युधिष्ठिर ने काल को जीत लिया है!

भीम की बात सुनकर महाराज युधिष्ठिर बड़े चकित हुए। बोले- “भीम यह तुम क्या कह रहे हो-मैंने काल को जीत लिया है। क्या कोई मनुष्य काल पर भी अधिकार कर सकता है।” भीम ने कहा क्यों नहीं महाराज-यदि आपने काल को न जीत लिया होता तो क्या उस भिक्षुक को कल के लिये कह कर वापस कर देते। ज्यादा तो नहीं कल के लिए तो आपने काल को अपने वश में कर ही लिया है।” महाराज युधिष्ठिर भीम का आशय समझ गये। उन्होंने अपनी भूल पर लज्जित होते हुए तुरन्त ही भिखारी को बुलाया और दान देकर कहा-भीम तुम ठीक कहते हो। पुण्य परमार्थ का कोई अवसर टालना नहीं चाहिए। क्योंकि अगले क्षण यह रहे न रहे! क्या ठिकाना।

अस्तु, पुण्य परमार्थ के बिना मनुष्य का कल्याण नहीं और जब तक उसे जीवन का अनिवार्य अंग नहीं बना लिया जावेगा उसका बन पड़ना सम्भव नहीं होगा! साथ ही उसके करने में न तो विलम्ब करना चाहिए और न प्रमाद! मानव जीवन की सार्थकता और आत्मा का कल्याण इसी में है।



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