मन्दिर पहाड़ की चोटी पर था। फिर भी दर्शनार्थी ऊपर जा रहे थे। “दर्शन करना अवश्य है” इसलिये लोग बराबर चढ़ाई चढ़ते जा रहे थे। एक महात्मा जी भी थे, वह भी भगवान की मूर्ति के दर्शनों के लिये ऊँची-नीची घाटी चढ़ते जा रहे थे, पर थकावट के कारण उनका बुरा हाल था, इतनी चढ़ाई कैसे पार होगी यह वे समझ नहीं पा रहे थे। बार-बार थक कर बैठे जाते थे। भगवान के मिलन में आनन्द है तो उसकी साधना में आनन्द क्यों नहीं उनके मन में एक तर्क उठा-एक तर्क ने उनका मन ढीला कर दिया।
पीछे मुड़कर देखा तो एक आठ-नौ वर्षीय बालिका भी पहाड़ की चढ़ाई चढ़ रही थी। उसकी पीठ पर दो वर्ष का एक बालक था, तो भी उसके मुख-मण्डल पर थकावट का कोई भी चिन्ह नहीं था। हँस-मुख बालिका कभी बच्चे को थपथपाती, चूमती चाटती और कभी नाराज सी होकर उससे बातचीत करती। बच्चा उसे शिकायत वाली मुद्रा में देखता तो बालिका कहती- “बुद्ध”, और हँसती हुई फिर दुगुने उत्साह से चढ़ाई चढ़ने लगती।
मन तो विचारों का भण्डागार है, अभी थोड़ी देर पहले तर्क उठा था अब वह कौतूहल में बदल गया। मेरे पास कोई बोझ नहीं, शरीर भी पुष्ट है फिर भी थकावट और इस नन्हीं सी बालिका की पीठ पर सवारी है, तो भी उसके मुख पर थकावट का कोई चिन्ह नहीं। उन्होंने पूछा-बालिके! तुम इतना बोझ लिये चल रही हो, थकावट नहीं लगी क्या?
बोझ नहीं है बाबा! लड़की ने महात्मा को चिढ़ाने वाली बात बनाकर कहा-यह मेरा भाई है देखते नहीं, इसके साथ अठखेली करने में कितना आनन्द आता है-यह कहकर बालिका ने शिशु के कोमल कपोल चूमे और एक नव-स्फूर्ति अनुभव करती हुई फिर चढ़ाई चढ़ने लगी।
महात्माजी ने अनुभव किया यदि भगवान को प्राप्त करने की साधना कठोर और कष्टपूर्ण लगती है तो यह दोष भगवान का नहीं, अपनी जीवन नीति का है। वस्तुतः लौकिक हो तो क्या यदि प्रेम निश्छल वासना रहित और पवित्र बना रहता है तो कठिन कर्त्तव्य और कठिनाइयों से भरे जीवन में भी मस्ती का आनन्द लिया जा सकता है। यही नहीं व्यक्तित्व के निर्माण और पूर्णता का लाभ भी इसी तरह हँसते थिरकते प्राप्त किया जा सकता है। अपने जीवन में इस सत्य की गहन अनुभूति के बाद तभी तो प्रसिद्ध वैज्ञानिक जूलियन हक्सले ने लिखा है- “व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिये सौंदर्य पर प्रेम, सुन्दर व आश्चर्यजनक वस्तुओं के प्रति प्रेम भी आवश्यक है क्योंकि उससे भावी जीवन में आगे बढ़ने की भावना जागृत होती है।”
भारतीय संस्कृति में मोह और आसक्ति, वासना और फलाशा की निन्दा की गई है, पर ऐसा कहीं नहीं बताया गया कि मनुष्य लौकिक कर्त्तव्यों का परित्याग करें। ईश्वर दर्शन, आत्म-साक्षात्कार, स्वर्ग और सद्गति, पुण्य और परमार्थ मानव-जीवन के अन्तिम लक्ष्य हैं, अपूर्णता से पूर्णता की ओर तो उसे बढ़ना ही चाहिये। उसे लौकिक हितों से बढ़कर माना जाये तो भी कोई बुरा नहीं पर यह मानकर कि साँसारिक जीवन में कठिनाइयाँ ही कठिनाइयाँ, अवरोध ही अवरोध भार ही भार है, उसे छोड़ना या उसे झींकते हुये जीना भी बुरा है, बुराई ही नहीं एक पाप और अज्ञान भी है क्योंकि ऐसा करके वह अपने रचयिता को “अमंगल” होने का प्रमाण प्रस्तुत करता है। संसार में भी पाप विकार और ध्वंसात्मक वृत्तियाँ पनपीं वह हँसी “नासमझ” का परिणाम है, जो वहाँ से प्रारम्भ होती हैं, जहाँ से मनुष्य “प्रेम” से पदच्युत होता है। प्रेम एक शक्ति है जो उच्च आकाँक्षाओं की पूर्ति करता है और यदि उसे कुपित न होने देकर, जीवन में विचारों और भावनाओं के समावेश द्वारा उसे पवित्र बनाये रखा जा सके तो पता चले कि प्रेम सृष्टि का सबसे अनोखा निर्माण है। मनुष्य तुच्छ से तुच्छ वस्तुओं तक में अपना सच्चा प्रेम आरोपित करके सुख और सद्गति प्राप्त कर सकता है।
लौकिक सुख का सच्चा आधार प्रेम है। नम्रता के साथ गर्व, धैर्य के साथ शान्ति, स्वार्थ के साथ आत्म-त्याग और हिंसा की भावनाओं को भी कोमलता में बदल देने की शक्ति प्रेम में है। यह इन्द्रिय वासनाओं को प्रसन्नता एवं पूर्ण जीवन में बदल सकता है, किन्तु आवश्यक है कि प्रेमी का सर्वोच्च लक्ष्य प्रेममय होना ही रहे।
प्रेमास्पद के प्राणों में अपने प्राण, अपनी इच्छा और आकाँक्षायें घुलाकर व्यक्ति उस “अहंता” से बाहर निकल आता है तो पाप और पतन की ओर प्रेरित कर ऐसे दिव्य मनुष्य को नष्ट करता रहता है। प्रेमी कभी यह नहीं चाहता मुझे कुछ मिले वरन् वह यह चाहता है कि अपने प्रेमी के प्रति अपनी निष्ठा कैसे प्रतिपादित हो इसलिये वह अपनी बातें भूलकर केवल प्रेमी की इच्छाओं में मिलकर रहता है, जब हम अपने आपको दूसरों के अधिकार में डाल देंगे तो पाप और वासना जैसी स्थिति आवेगी ही क्यों और तब मनुष्य अपने जीवन-लक्ष्य से पतित ही क्यों होगा? सच्चा प्रेम तो प्रेमी की उपेक्षा से भी रीझता है। प्रेम की तो व्याकुलता भी मानव अन्तःकरण को निर्मल शान्ति प्रदान करती है।
मन जो इधर-उधर के विषयों और तुच्छ कामनाओं में भटकता है, प्रेम उसके लिये बाँध देने को रस्सी की तरह है। प्रेम की सुधा पिये हुये मन कभी भटक नहीं सकता, वह तो अपना सब कुछ त्याग करने को तैयार रहता है। जो समर्पित कर सकता है, पाने का सच्चा सुख तो उसे ही मिलता है। प्रेमी को भोग तो क्या स्वर्ग भी आसक्त नहीं कर सकते और परमात्मा को पाने के लिये भी तो यह सन्तुलन आवश्यक है। प्रेम साधना द्वारा मनुष्य लौकिक जीवन का पूर्ण रसास्वादन करता हुआ पारमार्थिक लक्ष्य पूर्ण करता है। इसलिये प्रेम से बड़ी मनुष्य-जीवन में और कोई उपलब्धि नहीं।
उपल वरषि गरजत तरजि डारत कुलिस कठोर।
चितव कि चातक मेघ तजि कबहुँ दूसरी ओर॥
पवि पाहन दामिनि गरज झरि झकोर खरिखीझि।
रोष न प्रीतम दोष रखि तुलसी रागहिं रीझि॥
चढ़त न चातक चित कबहुँ प्रिय पयोद के दोष।
“तुलसी” प्रेम पयोधि की ताते माप न जोख॥
स्वाति नक्षत्र के बादल चातक के मुख पर क्या चुपचाप जल बरसा जाते हैं? नहीं, वे गरज कर कठोर ध्वनि करते और डराते हैं। पत्थर ही नहीं कई बार तो रोष में भरकर बिजली भी गिराता है, वर्षा और आँधी के थपेड़े क्या कम कष्ट देते हैं किन्तु चातक के मन में अपने प्रियतम के प्रति क्या कभी नाराजी आती है? तुलसी दास ने बताया कि यह प्रेम की ही महिमा है कि चालक पयोद के इन दोषों में भी उसके गुण ही देखता है।
अमंगल सी दिखने वाली भगवान की सृष्टि में कठिनाइयों के झंझावात कम हैं, न अभाव और कष्ट-पीड़ायें, एक-एक पग भार है और लक्ष्य प्राप्ति का बाधक है, पर यह केवल उनके लिये है जिन्होंने प्रेम तत्व को जाना नहीं। प्रेम तो समुद्र की तरह अगाध है, उसमें जितने गहरे पैठा जाये उतने ही बहुमूल्य उपहार मिलते और मानव-जीवन को धन्य बनाते चले जाते हैं।