इस अस्थिर संसार में सुख ढूँढ़े दुःख होय।

December 1970

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कल तक जिस पिंगला के यौवन और सौंदर्य की चर्चा घर-घर हुआ करती, धनाढ्य युवक उसकी कृपा की एक किरण पर लाख-लाख स्वर्ण मुद्रायें न्यौछावर कर दिया करते थे, आज उस नगर वधू के भव्य-भवन में एक भी तो अतिथि नहीं आया।

रात का प्रथम प्रहर बीत गया। अब सड़कों पर कहीं-कहीं ही कोई दृष्टिगोचर होता था। सारा नगर निद्रा देवी की गोद में जा चुका था, पर पिंगला की आँखें पथरा गई थीं, नींद भी उसे त्याग कर चली गई लगती थी।

एक क्षीण सी आशा लिये वह पुनः दुआरी पर आकर खड़ी हो गई। राज-पथ पर उसने दूर तक दृष्टि दौड़ाई। कुछ लोग उधर ही चले आ रहे थे। कोई सम्पन्न व्यक्ति लगते थे। निराशा आशा में बदलने लगी। निश्चय ही लोग मेरे पास आ रहे हैं। रंग-मंच सजेगा, पाँव थिरकेंगे और उसके बाद धन, विलासिता के सब सुख एक-एक कर शृंखलाबद्ध एक क्षण में पिंगला की आँखों के आगे नाच गये। कल्पना का सुख भी क्या अजीब है, मनुष्य को कहाँ-कहाँ की सैर करा लाता है। पिंगला की देह में हलकी सी सिहरन उठी, पर जैसे ही दूसरी दृष्टि पुनः राजपथ की ओर घूमी कि अब तक की आशा फिर निराशा में बदल गई, वह जो उधर आ रहे थे, जिन्हें पिंगला अपना अतिथि समझ रही थी वह किसी गली की ओर मुड़ चुके थे, अब उधर से कुछ कुत्तों के भौंकने की आवाज ही आ रही थी, मानो वे धिक्कार रहे हों पिंगला की आसक्ति को, पर उसे इस “दर्शन” से क्या सम्बन्ध। वह तो अब भी किसी प्रेमी की प्रतीक्षा में काष्ठवत् खड़ी क्षणिक सुख की कल्पना में डूबी हुई थी।

दासी शाँता पास आई और बोली-”मालकिन! बुरा न मानें तो एक बात कहूँ।” कह शान्ता कुछ तू ही कह-उदास शब्दों में आज्ञा तो दे दी, पर उसकी दृष्टि अब भी राजपथ पर ही अटकी हुई थी।

फिर वह चौंकी, बोली-यह क्या शान्ता तू तो कुछ कह रही थी, अब यह दर्पण क्यों दिखा रही है।”

“मुझे जो कुछ कहना है वह इस दर्पण में लिखा है, देवी! किंचित् उसमें अपनी मुखाकृति डालकर तो देखें” शान्ता ने बहुत कोमल शब्द कहे और वहाँ से चुपचाप पीछे हट गई।

पिंगला ने दर्पण में देखा-आज न तो वह रूप था, न सौंदर्य, यौवन था न आकर्षण जो कभी युवा प्रेमियों को गली-गली से खींच लाता था, उसे पहली बार लगा कि जैसे वह शरीर, यह सौंदर्य और तरुणाई सब चार दिन के नाशवान् मेहमान हैं, उसी प्रकार संसार के सुख-भोग, वासनाओं का आनन्द भी कितने दिन भोगा जा सकता है। आज पहली बार उसे सुख और संसार से विरक्ति हुई। उसके हृदय में पहली बार आत्मग्लानि उठी और मन पश्चाताप से भर गया। जिस जीवन को मुक्ति जैसे महान् लक्ष्य में नियोजित किया जा सकता था, उसे थोड़े से सुख के लिये खोखला कर देने की बात वह जितनी ही सोचती उतना ही हृदय दुःख से भर जाता।

एक दृष्टि फिर उठी। उसने देखा भिक्षुओं की टोली आ रही है। महापुरुष बुद्ध उसके आगे हैं, शिष्यगण “बुद्धं शरणं गच्छामि” “धर्म शरणं गच्छामि” कहते हुये आ रहे हैं। पिंगला का गुबार आँखों से बह निकला। यही तो वह सत्य है, जिसे मनुष्य जान नहीं पाया। “धर्मं शरणं गच्छामि” का मंत्रोच्चारण करती हुई वह नीचे उतरी और तथागत के चरणों पर लेट गई उसके मुँह से इतना ही निकला प्रभु! नारकीय जीवन की इन यन्त्रणाओं से उबारो और प्रकाश दो। अब मैं भूलकर भी उस सुख की कल्पना न करूं जिसमें सुख के नाम पर दुःख ही दुःख भरा है।


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