धर्म प्रथाओं में नहीं, सदाचरण में है।

December 1970

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धर्म के विषय में दुनिया में जितना मतभेद देखने में आता है, उतना और किसी विषय में शायद ही मिल सके। यह भेद अज्ञानियों में ही नहीं समझदार और उन्नतिशील लोगों में भी देखने में आता है। हिन्दू गौ का एक रोम भूल से भी दूध के साथ पेट में चले जाने पर घोर पाप समझते हैं, मुसलमान उसी गाय को खुदा के नाम पर काट कर खा जाने में बड़ा पुण्य बतलाते हैं, ईसाई बिना पाप-पुण्य के झगड़े में पड़े नित्य ही उसके माँस को एक साधारण आहार की तरह ग्रहण करते हैं। यहूदी भगवान की उपासना करते समय मुँह के बल लेट जाते हैं, कैथोलिक ईसाई घुटनों के बल झुकते हैं, प्रोटेस्टेंट ईसाई कुर्सी पर बैठ कर प्रार्थना करते हैं, मुसलमानों की नमाज में कई बार उठना-बैठना पड़ता है और हिन्दुओं की सर्वोच्च प्रार्थना वह है जिसमें साधक, ध्यान मगन होकर अचल हो जाय। यदि यह कहा जाय कि इन सब में एक ही उपासना-विधि ठीक है, दूसरी सब निकम्मी हैं, तो भी काम नहीं बनता। अन्य में भी अनेक व्यक्ति बड़े सन्त, त्यागी महात्मा हो गये हैं। धार्मिक-क्षेत्र के इसी घोर वैषम्य को देखकर ‘ओरिजन एण्ड डेवलपमेंट आफ रिलीजस विलीफ’ (धार्मिक विश्वास की उत्पत्ति और विकास) नामक ग्रन्थ के लेखक एस. बैरिंग-गाल्ड ने लिखा है-

“संसार में समस्त प्राचीन युगों से अनगिनत ऐसे धार्मिक विश्वास पाये गये हैं जो एक दूसरे से सर्वथा विपरीत हैं और जिनकी रस्मों तथा सिद्धान्तों में जमीन-आसमान का अन्तर है। एक प्रदेश में मन्दिर का पुजारी देव मूर्ति को मानव रक्त से लिप्त करता है और दूसरे ही दिन अन्य धर्म का अनुयायी वहाँ आकर उसे तोड़कर गन्दगी में फेंक देता है जिनको एक धर्म वाले भगवान मानते हैं, उन्हीं को दूसरे धर्मानुयायी शैतान कहते हैं। एक धर्म में धर्म याजक भगवान की पूजा के उद्देश्य से बच्चों को अग्नि में डाल देता है, और दूसरे धर्म वाला अनाथालय स्थापित करके उनकी रक्षा करता है और इसी को ईश्वर-पूजा समझता है। एक धर्म वालों की देव मूर्ति सौंदर्य का आदर्श होती है और दूसरे की घोर वीभत्स और कुरूप। इंग्लैण्ड में प्रसव के समय माता को एकान्त स्थान में रहना पड़ता है, पर अफ्रीका की ‘बास्क’ जाति में सन्तान होने पर पिता को कम्बलों से ढककर अलग रखा जाता है और ‘लपसी’ खिलाई जाती है। अधिकाँश देशों में माता-पिता की सेवा सुश्रूषा करके उनके प्रति श्रद्धा-भक्ति प्रकट की जाती है, पर कहीं पर श्रद्धा की भावना से ही उनको कुल्हाड़ी से काट दिया जाता है। अपनी माता के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के उद्देश्य से फिजी का एक मूल निवासी उसके माँस को खा लेता है जबकि एक योरोपियन इसी उद्देश्य से उसकी एक सुन्दर समाधि बनवाता है।”

विभिन्न धर्मों और मतों के धार्मिक विश्वासों में अत्यधिक अन्तर होने का यह बहुत ही अल्प विवरण है। फ्रेजर नामक विद्वान ने इस विषय पर “गोल्डिन वो” नाम की प्रसिद्ध पुस्तक सोलह बड़े-बड़े खण्डों में लिखी है, पर उसमें भी पृथ्वी तल पर बसने वाले अनगिनत फिर्को जाति में सम्प्रदायों में पाये जाने वाली असंख्यों धार्मिक प्रथाओं और रस्मों का पूरा वर्णन नहीं किया जा सका है। ये सिद्धान्त, विश्वास और रस्में हर तरह के हैं। इनमें निरर्थक, उपहासास्पद, भयंकर, कठोर, अश्लील प्रथाएं भी हैं और श्रेष्ठ, भक्तिपूर्ण, मानवतायुक्त, विवेकयुक्त और दार्शनिकता के अनुकूल विधान भी पाये जाते हैं।

इन धार्मिक प्रथाओं ने धीरे-धीरे कैसे हानिकारक और निकम्मे अन्धविश्वासों का रूप धारण कर लिया है, इस पर विचार करने से चकित हो जाना पड़ता है। डॉ. लैंग ने आस्ट्रेलिया के एक मूल निवासी से उसके किसी मृत सम्बन्धी का नाम पूछा। उसने मृतक के बाप का नाम, भाई का नाम, उसकी शक्ल-सूरत, चाल-डाल, उसके साथियों के नाम आदि सब कुछ बता दिया पर मृतक का नाम किसी प्रकार उसकी जबान से नहीं निकल सका। इस सम्बन्ध में अन्य लोगों से पूछने पर पता लगा कि ये लोग मृतक का नाम इसलिये नहीं लेते कि ऐसा करने से उसका भूत इनके पास चला आवेगा! भारत के गाँवों में जब कोई उल्लू बोल रहा हो तो उसके सामने किसी का नाम नहीं लिया जाता, क्योंकि लोगों को भय होता है कि उस नाम को सुनकर उल्लू उसका उच्चारण करने लगेगा और इससे वह व्यक्ति बहुत शीघ्र मर जायगा!

हमारे देश में अनेक लोग अब भी स्त्रियों के पर्दा त्याग करने के बहुत विरुद्ध हैं और जो लड़की विवाह शादी के मामले में अपनी सम्मति प्रकट करती है या अपनी इच्छानुसार विवाह के लिये जोर देती है तो उसे निर्लज्ज कुलंकिणी आदि कहकर पुकारा जाता है। पर उत्तरी अफ्रीका के “टौर्गस” प्रदेश में पुरुष बुर्का डाल-कर रहते हैं और स्त्रियाँ खुले मुँह फिरती है। वहाँ पर स्त्रियाँ ही विवाह के लिये पुरुष ढूंढ़ती हैं, प्रेम प्रदर्शित करती हैं और उसे विवाह करके लाती हैं। ‘बिली’ नाम की जाति में कुमारी कन्याओं को मन्दिर के पुजारियों को दान कर दिया जाता है, जिनका वे उपभोग करते हैं। हमारे यहाँ दक्षिण भारत के मन्दिरों में ‘देव दासी’ की प्रथा का भी लगभग ऐसा ही रूप है, काँगो में कुमारी कन्याओं का मनुष्याकार देव-मूर्ति के साथ संपर्क कराया जाता है। ‘बुदा’ नामक जाति के समस्त फिर्के वाले गाँव की चौपाल में इकट्ठे होते हैं और उनका धर्म गुरु वहाँ चारों हाथ-पैर से चलता हुआ स्यार की बोली बोलता है और अन्य सब लोग उसकी नकल करते हैं। मलाया में जिस लड़की को कोई प्यार करता है वह उसके पदचिह्न के स्थान की धूल को उठा लाता है और उसे आग पर गर्म करता है। उसका विश्वास होता है कि ऐसा करने से उसकी प्रेमिका का हृदय पिघलेगा और वह उसकी पत्नी बनने को राजी हो जायगी। संसार के कुछ भागों में ऐसी भी प्रथायें हैं जिनमें फिर्के के ‘भगवान’ का ही बलिदान कर दिया जाता है। कुछ फिर्के वाले, यदि उनकी फसल नष्ट हो जाती है तो अपने राजा तथा पुरोहित को ही मार देते हैं। इस प्रकार संसार भर में धर्म के नाम पर अनगिनत अन्ध-विश्वास, हानिकारक और घृणित प्रथायें प्रचलित हैं और मानवता के उद्धार के लिये उनका मिटाया जाना आवश्यक है।

किसी मजहब या सम्प्रदाय में तो भगवान के पुत्र, पौत्र, पत्नी आदि की कल्पना को भी सत्य माना जाता है और दूसरी जाति (रूस, चीन आदि) में ईश्वर की गणना केवल एक ‘विश्व-नियम’ से रूप में की जाती है। एक धर्म वाला संगीत और वाद्य को ईश-प्रार्थना का आवश्यक अंग मानता है और दूसरा धर्म इसे महापाप बतलाता है। बिहार के सखो-सम्प्रदाय के अनुयायी ईश्वर-भक्ति के लिये स्त्री की तरह रहना, यहाँ तक कि मासिक-धर्म की भी नकल करना बहुत बड़ी साधना समझते हैं। इसका उद्देश्य यह होता है कि जिस प्रकार स्त्री अपने पति से प्रेम करके उसमें तन्मय जो जाती है उसी प्रकार ईश्वर में भी तन्मयता प्राप्त कर ली जाय।

इसी प्रकार देश में ऐसे ताँत्रिक सम्प्रदाय भी पाये जाते हैं, जिनमें मद्यपान, माँस भक्षण, पशु वध और मैथुन भी ‘धर्म’ का एक अंग माना जाता है। दूसरी ओर जैन-धर्म जैसे मत हैं जिनमें ब्रह्मचर्य-पालन के लिये अठारह हजार प्रकार की अश्लीलता से बचने का उपदेश दिया गया है। अगर एक सम्प्रदाय किसी मानव शरीरधारी को ‘भगवान’ मानता है (जैसे बल्लभ सम्प्रदाय में) तो दूसरा सम्प्रदाय (जैसे वेदान्ती) ईश्वर के अस्तित्व से ही इनकार करता है।

सभी मजहबों या धर्मों के भीतर इतने सम्प्रदाय या फिर्के पाये जाते हैं कि उनको गिनना भी कठिन है। लोगों को प्रायः रहस्यवाद में बड़ा आकर्षण जान पड़ता है। इसलिये सदा नये-नये गुरु उत्पन्न होते रहते हैं, जो साधना या उपासना की एक भिन्न विधि निकालकर एक पृथक सम्प्रदाय स्थापित कर देते हैं, उनका एक नवीन मन्दिर बन जाता है। इस प्रकार के हजारों नये-नये मत और धार्मिक फिर्के जंगली कहे जाने वाले प्रदेशों में ही नहीं वरन् योरोप, अमरीका, एशिया के साक और सुसंस्कृत देशों में भी पाये जाते हैं। ऐसी कोई पूजा-पद्धति नहीं है जिसका आविष्कार और प्रचलन संसार में कहीं न कहीं न हो चुका हो। आप कैसी भी विचित्र अथवा असंगत उपासना पद्धति की कल्पना क्यों न करें, वह इस विस्तृत पृथ्वी पर किसी जगह अवश्य ही क्रिया रूप में होती मिल जायगी।

हमारा आशय यह नहीं है कि संसार में विभिन्न धर्मों का होना कोई अस्वाभाविक बात है या मनुष्य की गलती है। जिस प्रकार जलवायु और देश भेद से मनुष्यों की भाषा और आकृति में अन्तर पड़ जाता है, उसी प्रकार परिस्थितियों की भिन्नता के कारण विभिन्न जातियों की संस्कृति में भी अन्तर हो सकता है। पर ऐसी बातें जो प्रत्यक्ष में हानिकारक, क्रूरतापूर्ण और अशिष्टता सूचक हैं, किसी धर्म के नाम पर माननीय नहीं हो सकती। उदाहरण के लिये अपने यहाँ प्रचलित कितने ही देवी देवताओं के मंदिरों में होने वाले पशु-बलिदान का उल्लेख कर सकते हैं। धर्म के नाम पर बकरी, मुर्गों, भैंसों आदि का काटना किसी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता। यही बात अनेक धर्मों में प्रचलित अश्लीलता और नशे की प्रथाओं के लिये कही जा सकती है।

जैसा भारत के मूर्धन्य विद्वान श्रीराधा कृष्णनन् ने कहा है किसी भी धर्म और सभ्यता की श्रेष्ठता के लिये उसमें सच्चाई, आत्मीयता और उदारता के गुणों का होना आवश्यक है। अब पुरोहितों द्वारा स्वार्थ-साधन के लिये केवल बाहरी पूजा-पाठ के दिन समाप्त हो गये। अब लोग धर्म में वास्तविकता के दर्शन करना चाहते हैं। वे जीवन को गहराई में उतरना चाहते हैं, उस पर्दे को हटा देना चाहते हैं जिसने “आदि-सत्य को छिपा रखा है और उसे जानना चाहते हैं जो जीवन के लिये, सत्य के लिये और न्याय के लिये आवश्यक है।”



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