मनुष्य और कीट-पतंगों में कितना अन्तर?

December 1970

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य जीवन की सर्वांगपूर्णता में कोई सन्देह नहीं हैं, पर यदि वह अपनी क्षमताओं और बुद्धि कौशल का उपयोग भौतिक और लौकिक सुखों के सम्पादन में ही करता है, इन्हीं के चक्कर में पड़ा रहता है, तो यही कहा जायेगा कि मनुष्य और अन्य छोटे-छोटे जीवों में कोई अन्तर नहीं। जीव शास्त्र के पन्ने पलटते चलिये, मनुष्य की बौद्धिक क्षमता को लजाने वाले एक से एक अनोखे उदाहरण मिलते चलेंगे पर उन सबमें एक भी तो ऐसा नहीं होता जो पार्थिव देह में प्रविष्ट आत्मा के रहस्यों को जान पाता और अपना जीवन धन्य कर सका होता। यह क्षमता केवल मनुष्य में ही है कि वह आत्मा के रहस्यों को उघाड़कर जीव मात्र के कल्याण का पथ प्रशस्त करे, पर दुःख है कि वह अपनी इन विभूतियों को भी मानवेत्तर जीवों की भाँति ही खर्च करता रहता है।

सृष्टि के अन्य जीवों में मनुष्य की सैकड़ों विशेषतायें हैं। वह सफाई पसन्द करता है, करना भी चाहिये क्योंकि जो साफ-सुथरा रहता है, गन्दगी से बचता है, वही केवल स्वस्थ व नीरोग रह सकता है। स्वास्थ्य विज्ञान की लम्बी जानकारियों के आधार पर यह नियम बनाया गया है, पर मधुमक्खी के पास इस तरह का ज्ञान देने वाला कोई विद्यालय नहीं, स्वास्थ्य के नियमों का उसे पता नहीं, रोग कौन-कौन से होते हैं इसका उसे कोई ज्ञान नहीं; फिर मधुमक्खी के उपनिवेश में सफाई का उतना ही ध्यान रखा जाता है, जितना रानी की सुरक्षा का। कोई मधुमक्खी मर जाये तो उसके सड़ने-गलने और बदबू फैलाने से पूर्व ही मधुमक्खियाँ उसके शव को छत्ते से 15-20 गज की दूरी पर बाहर फेंक आती हैं। उनमें एक क्रम रहता है, प्रतिदिन नियत समय पर मक्खियाँ उड़ान करती हैं और छत्ते से बाहर टट्टी कर आती हैं। इसका अर्थ है कि यदि मकान की सफाई न रखी गई, उनमें गन्दगी फैलने दी गई तो उससे सारी कालोनी में महामारी फैल सकती है। यह ज्ञान शरीर का नहीं, उस आत्मा का है, जो मनुष्य और मधुमक्खी दोनों में एक समान है।

श्री रक्षपाल लिखित पुस्तक “कीटों में सामाजिक जीवन” नामक पुस्तक में बताया गया है कि यदि कोई चूहा किसी दीमक के किले में घुस जाता है, तो रक्षक दीमक उस पर अपने डंकों का प्रहार करके उसे मार डालते हैं। संगठित आक्रमण और प्रकृति प्रदत्त साधनों के उपयोग से वे शत्रु पर विजय पा जाते हैं, पर बेचारे कण-कण के कीट उतने वजन के चूहे के शव को बाहर किस तरह करें। जब तक वह सड़-गल कर समाप्त हो तब तक तो उनके कमरे में इतनी बदबू फैल सकती है, जो उन सबका ही नाश कर दे, इसलिये वे दूसरी युक्ति से काम लेते और मनुष्य से अधिक चतुरता का परिचय देते हैं। लोग तो जंगल- टट्टी जाते हैं और टट्टी खुली छोड़ आते हैं, जिससे वातावरण दूषित होता है, उसे गड्ढा खोद कर टट्टी करने और उसमें मिट्टी पटक देना भी लज्जास्पद लगता है, इस दृष्टि से अधिक बुद्धिमान दीमक हैं, क्योंकि वे तुरन्त एक प्रकार का द्रव प्रोपासिल बनाते हैं और उसकी मोटी परत वाली वार्निश उसके शरीर में कर देते हैं, इससे उसकी गन्दगी का एक झोंका भी बाहर नहीं आ पाता। एक बार कपूर की डली इनके महल में फेंककर देखा गया। जितनी देर में कपूर की गन्ध उपनिवेश में फैले दीमकों ने उसे इस द्रव से कीलित कर दिया।

मनुष्य बड़ा भारी इंजीनियर है, भाखड़ा से लेकर चन्द्र राकेट तक की डिजाइनिंग में उसने जो बुद्धि खर्च की है, उसे देखकर लगता है, यह दूसरा परमात्मा है, पर यदि यही योग्यता किसी तुच्छ प्राणी में हो तो उसे भी परमात्मा का अंश न कहा जायेगा। जीव-वैज्ञानिक डॉ. वेल्ट ने हिमालय की 4000 फुट ऊँची एक चोटी पर चढ़कर एक ऐसे चींटी परिवार का अध्ययन किया जो गृह-निर्माण कर रहा था। बिल से निकाली हुई मिट्टी नीचे गिर जाती थी और इस कारण मकान सहन उम्दा नहीं बन पा रहा था। अन्त में इस स्थिति से निपटने का काम कुछ विशेषज्ञ चींटियों की टीम को सौंपा गया। उन्होंने उस स्थान का विधिवत् निरीक्षण कर एक योजना बनाई। उस योजना के अनुसार मजदूर चींटियों को भीतर के काम से हटाकर पहले छोटी-छोटी कंकड़ियाँ बीनकर लाने का आदेश दिया गया। वह सब कंकड़ बीनकर लाईं और इस तरह पहले एक मजबूत मंच बना दिया गया तब आगे का काम प्रारम्भ हुआ। अब मिट्टी को लुढ़कने की कोई गुञ्जाइश नहीं रही।

मनुष्य की सर्वोत्तम उपलब्धि है- प्रेम, प्रेम जैसे देव गुण के कारण ही वह धरती को स्वर्ग बनाता और स्वर्ग मुक्ति की परवाह न करके बार-बार पृथ्वी पर लौट-लौटकर जन्म लेता है। पर यह दिव्य गुण भी केवल मनुष्य की ही विशेषता हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता, अन्य जीव भी प्रेम करते हैं, प्रेम ही नहीं, शुद्ध और नितान्त पवित्र प्रेम। उदाहरण के लिये कुछ गर्म देशों के समुद्र में मछली की सी आकृति का एक जीव पाया जाता है, उसे मनाती कहते हैं। उसे अपने बच्चे से इतना प्यार होता है कि कैसी भी परिस्थिति में वह उसे अपने से अलग नहीं करती, उसके शरीर में दो झिल्लियाँ होती हैं, जो हाथों का काम देती हैं, इनसे ही वह अपने बच्चे को छाती से चिपकाये रहती है और उसे हमेशा दूध पिलाती रहती है। कभी-कभी इसका बच्चा छूट जाता है तो वह ऐसे रँभाती है जैसे लवाई (हाल की ब्याई) गाय अपने बच्चे के लिये रँभाती है। सम्भवतः इसी गुण के कारण उसे समुद्री गाय (सी काऊ) भी कहते हैं। 1 टन वजन से भी भारी मनाती संसार के दुर्लभ जीवों में से है, इसीलिये उसकी रक्षा के लिये कड़े नियम बनाये गये हैं, अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अंतर्गत इसे अवध्य कर दिया गया है।

मनुष्य अपने आपको सामाजिक प्राणी कहला सकता है तो छोटे-छोटे जीव कम सामाजिक नहीं। यह केवल प्राकृतिक प्रेरणा से ही नहीं, उनकी बुद्धिमत्ता से भी होता है। मनुष्य तो अपनी बुद्धि का उपयोग अपने निजी स्वार्थ में ही अधिक करता है। पर जीव इतने अज्ञानी नहीं होते, वे जानते हैं कि शान्ति और सुविधा का जीवन जातीय एकता, समानता, सहयोग और सामाजिकता के आधार पर ही जिया जा सकता है, इसलिये वे परस्पर मिल-जुलकर ही जीने में प्रसन्न होते हैं।

उत्तरी योरोप का बीवर जन्तु इसका बहुत अच्छा उदाहरण है। यह बड़ा बुद्धिमान जीव है, पानी में बाँध बनाकर रहता है। बाँध बाँधने में तो इंजीनियर भी चकराते हैं, फिर उन्हें भी परेशान होना चाहिये पर नहीं। कई बीवर मिलकर योजना बनाते हैं, एक लबड़ी इकट्ठा करता है तो दूसरे छोटी-छोटी डालियाँ, कुछ मिट्टी ढोते हैं, कुछ खोदते हैं। पत्थरों के भार से ये लट्ठों को पानी में डुबा देते हैं और फिर उन पर मिट्टी थोप कर अपने लिये कमरे बना लेते हैं। एक दूसरे से मिलते-जुलते रहने के लिये यह कमरों में दरवाजे भी रखते है। एक इंजीनियर जैसी व्यवस्था यह सब मिलकर कर लेते हैं। चींटी, मधुमक्खी, दीमक, मनाती, बीवर आदि के शरीर में अवतरण, निश्चित रूप से अज्ञान, अन्धकार और अचेतनता में जन्म लेना है, पर यह एक विलक्षण सत्य है कि इस नन्हें से शरीर में रहने वाली नन्हीं सी चेतना में भी वह सारी क्षमतायें भरी पड़ी हैं, जो किसी भी योग्य मनुष्य में सम्भव है। शरीर जीवन साधनों के यन्त्र हैं और प्रत्येक जीव को उसकी प्रकृति और स्वभाव के अनुरूप मिले होते हैं, यह मनुष्य शरीर की ही विशेषता है कि उसमें प्रकृति के परम्परागत विषयों को भी विजय करने की क्षमता है, यदि वह ऐसा न करके अन्य जीवों का साही निम्नगामी जीवन जीता है और अपने स्वभाव को ऊर्ध्वमुखी नहीं बनाता तो निश्चित रूप से उसे भी अज्ञान, अन्धकार और अचेतना में भटकता हुआ एक सामान्य गुण मात्र समझना चाहिये, जबकि वह एक शाश्वत सर्वव्यापी और सनातन पराशक्ति है, यदि वह अपने इस रूप को समझ ले तो भगवान् हो जाये पर यदि वह महत्वाकाँक्षाओं में ही भटकता है, तब तो उसे भी कीट-पतंगे की श्रेणी का ही एक जीव कहना चाहिये।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118