दिव्य शक्ति, संवेदना और तेज की संग्राहक-शिखा

December 1970

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हिन्दू के जीवन में आस्तिकता को जितना महत्व मिला है शिखा प्रत्येक हिन्दू के लिये एक अत्यन्त पवित्र और अनिवार्य प्रतीक होता था। प्राण दिये जा सकते थे शिखा नहीं। गुरु गोविन्द सिंह के पुत्रों ने जीवित बलि दे दी पर चोटी न कटाई। इतिहास इस बात का साक्षी है। प्राण जैसी महत्वपूर्ण वस्तु हँसते-हँसते दे देना पर हिंदुत्व के प्रतीक शिखा को न कटवाना यह संकेत करता है कि चोटी रखने का कोई बड़ा भारी रहस्य हिन्दू-तत्वदर्शन में है। अन्यथा उस पर मनीषियों ने इतना जोर नहीं दिया होता।

आर्ष ग्रन्थों में लिखा है।

चिन्द्रूपिणि महामाये दिव्यतेज समन्विते।

  तिष्ठ देवि शिखा मध्ये तेजो वृद्धिं कुरुष्वमे॥

चेतना स्वरूप, महान महिमा वाली तथा दिव्य तेज प्रदान करने वाली, हे शक्ति! तुम हमारी शिखा में आओ बैठो और हमारे अन्दर तेजस्विता की वृद्धि करो।

      दीर्घापुष्प वाय बलाय वर्च से।

शक्तये शिखाये वषट् ॥

तुम दीर्घ जीवन, बल, ब्रह्मवर्चस्व और शक्ति का संवर्धन करने वाली हो।

इन मंत्रों में शिखा के सूक्ष्म रहस्यों और उसके महान महत्व का प्रतिपादन किया गया है। सर्वप्रथम यह मानवीय चेतना का सम्बन्ध सृष्टि की अनादि चेतन शक्तियों से जोड़ती है। किसी रेडियो स्टेशन से संदेश प्रसारित करने हों तो उसे विद्युत तरंगों द्वारा किसी शक्ति-शाली ट्रान्समीटर द्वारा निक्षेपित करना पड़ता है। अन्तःकरण की भाव तरंगें किन्हीं देवशक्तियों तक पहुँचाने का वैसा ही कार्य शिखा करती है। बाहरी सन्देश और रेडियो तरंगों को ग्रहण कर आवाज में बदलने के लिये प्रारम्भिक आवश्यकता “एरियल” की होती है। मनुष्य शरीर जैसे दिव्य रेडियो और टेलीविजन सेट में वह कार्य शिखा से ही सम्पन्न होता है। इस तरह बाह्य और आन्तरिक शक्तियों का मूल बिन्दु शिखा को ही मानना चाहिए।

बरगद की जटायें और पेड़ों की पत्तियां अपने सूक्ष्म छिद्रों से हवा और प्रकाश के कण खींचती हैं। जिससे उनमें “प्रकाश संश्लेषण” की क्रिया होती है। और वे अपना विकास करते रहते हैं। मनुष्य के बाल भी देखने में अत्यन्त बारीक दिखाई देते हैं पर वे भी छिद्र युक्त होते हैं। इस दृष्टि से तो शरीर के सभी बालों का महत्व है, पुराने जमाने में पंच केश रखने की प्रथा भी थी सिर, मूँछ, दाढ़ी, बगल और शरीर के गुप्त अंगों के बाल न कटवाने से इन सूक्ष्म संस्थानों की विद्युत शक्ति उत्तेजित और अस्त−व्यस्त नहीं होने दी जाती थी जिससे वह शक्ति स्वास्थ्य रक्षा, आत्म बल आदि के विकास में काम आती थी आज भी सिख लोग पंचकेश रखते हैं तो उनकी शक्ति तेजस्विता और नेतृत्व वाले गुण भी इस देश के अन्य प्रान्तों के निवासियों से पृथक स्पष्ट देखे जा सकते हैं। दूसरी ओर जिन जातियों और लोगों में हमेशा दाढ़ी मूँछ कटाते रहने और बारबार बाल बनाने की अधिकता है वे प्रायः कामुक और निम्न प्रवृत्तियों वाले देखे जाते हैं। पाश्चात्य देशों के लोगों ने गरिष्ठ भोजन पद्धति के अनुसार अपने शरीर में चर्बी और फैट्स चाहे कितने बढ़ा लिये हों उनमें शील, सज्जनता और मानवीय सद्गुणों की मात्रा अत्यल्प ही मिलेगी। यौन उच्छृंखलताएं और उसके दुष्परिणाम पश्चिम के लिये अपनी भुखमरी की तरह संकट बने हुए हैं उसमें बालों को महत्व न देने का भी हाथ है।

शरीर के अन्य भागों के बाल जहाँ शरीर के विभिन्न अंगों को पोषण और प्रकृति के परिवर्तन से होने वाले तापमान की घट-बढ़ से सुरक्षा रखते हैं वहाँ सिर के बाल मस्तिष्क की शक्तियों को प्रबुद्ध और प्रखर बनाते हैं स्त्रियाँ लम्बे बाल इसीलिये रखती हैं क्योंकि उससे उनके मुखमंडल को तेजस्व की प्राप्ति होती रहती है और वे देखने में सुन्दर आकर्षक लगती हैं। अनिष्टकारी प्रभावों से रक्षा, अवसाद से रक्षा ‘मनोबल की वृद्धि’ वासना की कमी तथा मानसिक शक्तियों के पोषण में यों सिर के सभी बालों का महत्व है पर शिखा-स्थान का महत्व इन सबसे अधिक है। जिस तरह शरीर के प्रत्येक अंग के विकास में शक्ति खर्च होना आवश्यक है उसी प्रकार बालों को बार-बार काटने से शारीरिक शक्तियों को बालों के “टिशूज” (कोश जाल या ऊतक) भी बनाने पड़ते हैं, जिस तरह शरीर के प्रत्येक अंग की एक सीमा होती है उसी प्रकार बालों की लम्बाई की भी एक सीमा होती है। उससे आगे उनका बढ़ना बन्द हो जाता है। शिखा चूँकि शक्तियों को खींचने और प्रेषण करने का सबसे संवेदनशील स्थान है इसलिये यहाँ से स्वभावतः अधिक ही शक्ति खर्च होती है। बार-बार बाल कटवाने से उनके बढ़ने के लिये बार-बार शक्ति खर्च होती है पर यदि शिखा रखाकर उस शक्ति का अपव्यय रोक देते हैं तो उसी से मानसिक शक्तियों का पोषण होने लगता है। वही शक्ति मनुष्य की (1) विवेक शक्ति (2) दूरदर्शिता (3) दृढ़ता (4) संयम ओर प्रेम शक्ति के रूप में विकसित होकर मनुष्य जीवन में शक्ति और सफलता सुख और शान्ति के द्वार खोलने में मदद करती है।

शिखा रखना अब-तक श्रद्धा और विश्वास का विषय था। हम हिन्दू लोग हमेशा से उसी आधार पर चोटी रखते आये और उसके दिव्य लाभों से लाभान्वित होते रहे हैं। धर्म-ध्वजा की तरह उसकी रक्षा को जातीय गौरव और प्रतिष्ठा का चिन्ह मानते रहे हैं पर आज, जब कि लोगों में सूक्ष्म बौद्धिक क्षमता का अभाव हो चला है, लोगों की कल्पना और विचार शक्ति स्थूल जानकारियों तक ही सीमित हो गई है, यह प्रश्न उठाया जाने लगा है कि आखिर शिखा रखने का वैज्ञानिक अर्थ क्या है? श्रद्धा-पोषित सीधे-सादे पुरोहित उसका भला क्या उत्तर दें? लेकिन सच यह है कि आज विज्ञान भी मानने लगा है कि शिखा-स्थान का मानव जीवन से महत्वपूर्ण सम्बन्ध है। एक समय था जब हमारे बच्चे प्राण दे सकते थे पर चोटी नहीं, एक दिन आज है जब कि हमारे ही बच्चे स्वेच्छा से चोटियाँ कटवाते चले जा रहे हैं। चोटी उनके लिये उपहास की वस्तु है। कोई पढ़ा-लिखा चोटी रखता है तो उसे अपने मित्रों द्वारा उपहास का भय और लाज लगती है। एक दिन वह आने वाला है जबकि भारत वर्ष से चोटी बिलकुल ही उठ सकती है पर एक वैज्ञानिक सत्य है कि जिस तरह धीरे-धीरे हमारे बच्चे चोटी कटाते चले जायेंगे दूसरे देशों के लोग उसके वैज्ञानिक महत्व को समझते चले जायेंगे। कल के विदेशी चोटी रखने वाले हों तो इस भविष्यवाणी को अत्युक्ति न समझा जाये।

मस्तिष्क पर हुई वैज्ञानिक शोधों ने शिखा-स्थान की वही महत्ता प्रतिपादित की है जो हम हिन्दुओं ने उसे श्रद्धा वश प्रदान की थी। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक नेल्सन ने अपनी विश्व ख्याति की पुस्तक “ह्यूमन मशीन” में तंत्रिका जाल (रेटीक्युलर फार्मेशन) पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए बताया है कि शरीर में सतर्कता के सारे कार्य-क्रमों का नियमन उसी स्थान से होता है। अपने आस-पास के वातावरण जल-वायु आदि में तनिक भी परिवर्तन आता है तो उसे समझता, ग्रहण करता और परिवर्तन के अनुसार शरीर में समायोजित (एडजस्ट) करता है। उदाहरण के लिये गर्मी या सर्दी का बढ़ना, हवा में पानी की मात्रा बढ़ाना आदि। फिजियोलॉजिस्ट (शरीर-रचना विज्ञान-वेत्ता) ने पता लगाया है कि इस क्रिया का सम्बन्ध तंतु जाल से है। हमारे मस्तिष्क के पार्श्वभाग में तृतीय शून्य स्थान (थर्ड वेन्ट्रिकल) की सतह मेडुला आब्लाँगेटा (सुषुम्ना शीर्ष) से लेकर हाइपोथैलेमस (थर्ड वेष्ट्रिकल की सतह से नीचे वाले भाग) तक एक रचना पाई जाती है। जिसका नाम “रेटीक्युलर फार्मेशन है” रेटीक्युलर का अर्थ है जाल। यह जाल सारे रीढ़ धारी जानवरों में पाया जाता है।

इस जाल का निर्माण बहुत से नाड़ी तन्तुओं के समानान्तर रूप से एक ही केन्द्र की ओर जाने से होता है यह रचना दो भागों में बँटी है (1) जब सभी नाड़ी तन्तु अलग-अलग इन्द्रियों जैसे आँख, कान, नाक, स्पर्शेन्द्रियों, संकुचन और प्रसरण वाली माँस-पेशियों से निकाल कर ऊपर बढ़ते हैं तो वे सब मध्य मस्तिष्क में नाड़ी गुच्छक की तरह एक स्थान पर मिल जाते हैं। इसे ‘सेन्ट्रीफ्युगल’ फार्मेशन कहते हैं (2) पुनः उसी भाग से नाड़ी जाल ऊपर की ओर सेन्ट्रीपीटल रूप (फार्म) में ऊपर की ओर “सेरेव्रल कारटेम्स” जो शरीर की सम्पूर्ण संवेदनाओं को ग्रहण नियमन और नियंत्रण करने वाला आश्चर्यजनक मस्तिष्क का भाग है उधर की ओर चलता है और उसमें सर्वत्र फैल जाता है। दोनों नाड़ी जाल सिर बिन्दु तक पहुँचते हैं उससे 90 डिग्री का कोण बनाते हुए एक रेखा ऊपर को खींची जाये तो यही भाग चोटी का होगा। इससे यह स्पष्ट प्रकट है कि वाह्य परिवर्तनों का संग्राहक और व्यवस्थापक ही नहीं अनेक विलक्षण अनुभूतियों का मार्ग भी यह चोटी वाला स्थान है इसे ही सूक्ष्म रेडियो तरंगें प्रभावित करती हैं इसलिये यदि यह कहा जाये कि समाधि अवस्था के, अतीन्द्रिय ज्ञान, ध्यान द्वारा आकाश स्थित सूक्ष्म शक्तियों का आकर्षण का मूल बिन्दु यही है तो उससे किसी को आश्चर्य न होना चाहिए।

दीमक दिन भर काम करती रहती है और पानी बरसने को हुआ कि वह एक घंटे पहले ही जान जाती है और अपना कारोबार समेट कर बिल में घुस जाती है यह जानकारी उन्हें तन्त्रिका जाल (रेटीक्युलर फार्मेशन) से ही मिलती है। चींटी और मकड़ी भी इसी तरह मौसम के प्रत्येक परिवर्तन को अनुभव करती हैं यदि इस क्षेत्र की संवेदनशीलता को बढ़ा दिया जाये तो और भी सूक्ष्म अनुभूतियाँ होते पाया गया है। इंग्लैंड में छपने वाली साइंस पत्रिका “नेचर” के पिछले एक अंक में दो अमेरिका वैज्ञानिकों का एक लेख छपा है जिसमें एक प्रयोग का हवाला देकर यह सिद्ध किया गया है कि यदि मस्तिष्क के उस केन्द्र को अत्यधिक संवेदनशील बना लिया जाये जो सभी ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनाओं को ग्रहण करता और उनके अनुरूप अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है तो जो कार्य आंखें, नाक, कान, त्वचा आदि करती हैं वह अपने आप (अतीन्द्रिय) रूप में किया जा सकता है। अर्थात् तब देखने के लिये आँखें आवश्यक न रह, सुनने के लिये कानों की जरूरत न रह जाये आदि। समाधि अवस्था का यथार्थ ज्ञान और स्वप्नों की सत्य अनुभूतियाँ इसी संवेदन शीलता का परिणाम होती हैं। राजा रणजीत सिंह और जनरल बेन्टुरा की उपस्थिति में संत हरदास ने एक माह की समाधि लगाई थी जब वे बाहर निकले थे तब डाक्टरों ने उनकी जाँच करते समय पाया था कि उनकी चोटी वाले स्थान का तापमान इतना अधिक था कि उसे छुआ भी नहीं जा सकता था इससे उन्होंने अनुमान लगाया था कि समाधि की स्थिति में श्वांस लेने और शरीर के कोषों की उत्सर्जन क्रिया (शरीर के हर सेल बदलते रहते हैं उसे उत्सर्जन क्रिया कहते हैं।) रोक कर उन्हें यथावत स्थिति में रखने का काम तक इस संस्थान द्वारा किया जा सकता है इस अवस्था में शरीर का सारा पोषण सूक्ष्म आकाश से होता है साथ ही आत्म-चेतना का बाह्य जगत से मुक्त सम्बन्ध तक जुड़ जाता है। यह इस बात के प्रमाण हैं कि अनन्त की अनन्त शक्तियों से संपर्क और दूरानुभूतियों का केन्द्र भी शिखा-स्थान ही है। इस स्थान को भारतीय उपासना पद्धति में बहुत अधिक संवेदनशील बनाने का इसीलिये अनिवार्य विधान रखा गया है।

इन दोनों अमेरिकी वैज्ञानिकों ने एक बिल्ली के इसी तन्त्रिका जाल वाले बिन्दु पर स्टेनलैस स्टील के महीन तार जोड़ दिये और उसकी छाती पर गीगर काउंटर (यह एक यंत्र है जिससे रेडियो विकरण की माप की जाती है) बाँध दिया। इसके बाद कमरे के एक कोने में एक छोटा सा विकिरण स्रोत लगा दिया जब तक बिल्ली उस विकिरण यंत्र से दूर रही तब तक उसकी स्थिति सामान्य रही पर जैसे ही वह इस स्रोत से पाँच फुट की दूरी पर आई कि उसे एकाएक झटका लगा और वह पीछे डरकर हट गई। इस प्रयोग से इन वैज्ञानिकों ने भी यही निष्कर्ष निकाला कि मस्तिष्क की आँख सूक्ष्म विकिरण तक देख सकने में समर्थ है। हमारे यहाँ उसे ही सहस्रार कमल में बैठे हुए भगवान् या शिखा-शक्ति (आत्मा) कहा है वही देखता सुनता चलता-फिरता और समस्त कार्यों का कर्माध्यक्ष है इसलिये इस केन्द्र को जितना अधिक संवेदनशील बना सकते हैं संसार के रहस्यों, आत्मा के रहस्यों भूत और भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं की सत्य जानकारियों को उतना ही अधिक स्पष्ट और सच-सच देख सुन एवं अनुभव कर सकते हैं। शुद्ध हुए इस संस्थान की सहायता से ही योगी एक-एक दिन की भविष्यवाणी कर सकने में समर्थ होते हैं। चूँकि यह कार्य शिखा के बालों के माध्यम से ही होता है। ब्रह्माण्ड के लिये एरियल और ट्रान्समीटर वही है इसलिये इसे आध्यात्मिकता का मूल बिन्दु मानकर इतना महत्व दिया गया। आज चूँकि लोग इसके महत्व को भूल गये हैं इसीलिये हमारी बौद्धिक क्षमतायें कुँठित पड़ी हैं। हमारी दूरदर्शिता हमें छोड़कर न जाने कहाँ भाग गई। लोग मानवेत्तर जीवों की भाँति ही स्थूल इन्द्रियों के चक्कर में पड़े रहते हैं।

प्रसिद्ध जीव शास्त्री जेम्स ओल्डस के शिष्य डॉ. डब्लू. जी. पेनफील्ड ने एक बार एक चूहे के मस्तिष्क के इसी भाग में इलेक्ट्रोड से हलकी विद्युत प्रवाहित कर एक नाड़ी को छुपाया तो चूहे में प्रसन्नता के लक्षणों का विकास हुआ वह एक यंत्र का पैंडल चलाने में मस्त हो गया सामने रखा जाना उसने छुआ भी नहीं, एक इसकी नस में विद्युत प्रवाहित करके सामने बिल्ली आने दी तो भी चूहा डरा नहीं, एक अन्य केन्द्र पर विद्युत प्रवाहित करते ही चूहा एक चींटी को देखकर ही डर गया। ऐसे अनेक परीक्षण फ्रान्सीसी वैज्ञानिक प्रो. डेल्गाडो ने भी करके यह सिद्ध करके दिखा दिया कि समस्त सुख दुःखों का केन्द्र मस्तिष्क के इसी भाग से सम्बन्ध रखता है। जिसे हम शिखा-स्थान कहते हैं और वैज्ञानिक रेटीक्युलर फार्मेशन।

“हारमोन विज्ञान” ने यह सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य की प्रसन्नता ही नहीं शारीरिक स्वास्थ्य तक भावनाओं और विचारों के अच्छे-बुरे होने पर निर्भर है। नीच विचार कुत्सित भावनाओं से शरीर में दूषित रसायनों का स्राव होता है जबकि पवित्र और अच्छी भावनाओं से अच्छे हारमोन जो कि शरीर को स्वस्थ और संतुलित रखते एवं जीवन को सुखी बनाते हैं इन सब का केन्द्र भी तंत्रिका जाल ही है। इसकी विशेषता यह है कि हम लगातार एक ही विषय के सैकड़ों तरह के विचार एकत्रित कर सकते हैं। प्रयोग से देखा गया है कि यदि रक्त में कार्बनडाइऑक्साइड या एड्रिनलीन की मात्रा बढ़ा दी जाये तो इस जाल की क्रियाओं पर असर पड़ता है उससे इसकी गति तीव्र हो उठती है, जिससे चित्त की चंचलता और अस्थिरता बढ़ जाती है तथा समाचार जल्दी-जल्दी आने-जाने लगते हैं। नेलसन ने इस जाल की गतिविधियों को उत्तेजना की गति का समानुपाती माना है अर्थात् यह भाग जितना अधिक सूक्ष्म-संवेदन शील होगा बाह्य जगत की सूक्ष्म संवेदनाओं से भी हम उतने ही अधिक प्रभावित होंगे। यह प्रभाव केवल मस्तिष्क पर ही नहीं पड़ता जैसा कि ऊपर बता चुके हैं कि इस केन्द्र से मस्तिष्क और शरीर की सभी ज्ञानेन्द्रियों एवं माँसपेशियों से सीधा सम्बन्ध है अतएव यह केन्द्र सारे शरीर को प्रभावित कर सकने और इन्द्रियों व शरीर की सामर्थ्य बढ़ाने में समर्थ है।

शिखा व्यक्ति को ब्रह्म से, व्यष्टि से, समष्टि और अपनी सूक्ष्म क्षमताओं को अनन्त क्षमताओं से जोड़कर लाभान्वित होने का माध्यम है उसकी जितनी महिमा गाई जाये कम है और आज जो लोग इस महत्व को भूलते जा रहे हैं शिखायें कटाकर अहिन्दू होते जा रहे हैं इसके लिए जितना दुःख किया जाये वह उतना ही कम है।




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