त्यौहार और संस्कार प्रेरणाप्रद पद्धति से मनाये जायँ

December 1969

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[पं. श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित और युग-निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित ‘संस्कारों की पुण्य परम्परा’ एवं ‘पर्व और त्यौहारों से प्रेरणा ग्रहण करें’ पुस्तिकाओं का एक अंश]

पर्व, त्यौहारों का प्रचलन मात्र हर्षोत्सव मनाने के लिए विनिर्मित नहीं हुआ है, इनके पीछे समाज-निर्माण की एक अति महत्वपूर्ण प्रेरक प्रक्रिया सन्निहित हैं। चिन्हीं पौराणिक कथानकों की स्कृत मात्र के लिए अथवा किसी देवता की पूजा मात्र के लिए पर्वों को समय तथा धन खर्च कराने वाली पद्धति प्रचलित नहीं है। वरन् इनके पीछे मुख्य प्रयोजन यह है कि सामाजिक जीवन की हर समस्या को सुलझाने के लिए वर्ष में कई-कई दिन ऐसे रखे जायँ, जिन पर इकट्ठे होकर जनता को अपनी वर्तमान परिस्थितियों पर विचार करने और उनका हल खोजने का अवसर मिले।

हमारा प्रत्येक पर्व समाज की कुछ समस्याओं पर विचार करने और यदि वर्तमान में कुछ विकृतियाँ उत्पन्न हो गई हो तो उनका हल ढूँढ़ने की प्रेरणा देने आता हैं। प्राचीनकाल में हमारे त्यौहारों का यही स्वरूप था। पर्वों का हर्षोत्सव मनाने के लिए स्थानीय जनता एक स्थान पर एकत्रित होती थी। पूजा-प्रार्थना के धार्मिक कर्मचारी के साथ प्रत्येक वैयक्तिक एवं सामाजिक कार्य सम्पन्न हो यह अपनी प्राचीन परम्परा है, पर्वोत्सवों के सभ्य पर भी वैसा होता था। धर्मकृत्यों के बाद मनीषी विद्वान् उपस्थिति जनता का उद्बोधन करके सामाजिक सत्प्रवृत्तियों को अक्षुण्य बनाये रहने का उद्बोधन करते थे। तत्कालीन कोई उलझन इस संदर्भ से उत्पन्न हुई दिखाई पड़ती थी तो उसका हल बताते थे। इस प्रकार तत्कालीन सामाजिक गतिविधियों के सम्बन्ध में आत्म-निरीक्षण और परिष्कार परिमार्जन करने का सहज ही अवसर मिल जाता था। कोई विकृति आँक्ष से ओभस नहीं हो पाती थी। उठते हुए विकारों का तत्काल समाधान निकाल लिया जाता था और सामाजिक प्रखरता में कोई त्रुटि न जाने पाती थी। इस प्रकार पर्वोत्सवों का मनाया जाना एक वरदान सिद्ध होता था और उस माध्यम से राष्ट्रीय एवं सामाजिक सुदृढ़ता निरन्तर परिपुष्ट बनी रहती थी।

यों पर्व-त्यौहार अनेक हैं पर उनमें दस ऐसे हैं, जिन्हें प्रमुखता दी जानी चाहिये। इनमें से हर पर्व के पीछे कुछ महत्त्वपूर्ण सन्देश एवं प्रयोजन जुड़े हुए है। यथा-1. गुरु-पूर्णिमा-अनुशासन, मर्यादाओं का पालन। 2. श्रावणी-वृक्षारोपण, आत्म-निरीक्षण, भूलों का प्रायश्चित्त और सुधार, नैतिकता का व्रत धारण। 3. पितृ अमावस्या-बड़ों के प्रति श्रद्धा, सद्व्यवहार, कृतज्ञता, सत्पुरुषों और सत्प्रेरणाओं का अनुसरण। 4. विजयादशमी-स्वास्थ्य रक्षा, संगठन, मनोबल, शक्ति संचय, अनीति के विरुद्ध संघर्ष। 5. दीपावली-ईमानदारी और परिश्रमपूर्वक उपार्जन, मितव्ययतापूर्वक धन का सदुपयोग। 6.गीता जयंती-धर्मनिष्ठा, कर्त्तव्य परायणता, मानसिक संतुलन, दूर-दर्शिता। 7. बसन्त-पंचमी-शिक्षा, सद्ज्ञान, संगीत, साहित्य, कला, सुसज्जा। 8. शिवरात्रि-व्यापक सहयोग समन्वय, नशा निवारण। 9. होली-देश-भक्ति, स्वच्छता, समता विस्तार। 10. गायत्री जयन्ती (गंगा-दशहरा)-विवेकशीलता, सद्भावना, आस्तिकता, सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन।

प्रस्तुत त्यौहारों के पीछे जो इतिहास जुड़े हुए हैं तथा जिन क्रिया-कृत्यों के साथ उन्हें मनाया जाता हैं, उन पर पैनी दृष्टि डालने से यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें मनाये जाते के पीछे, किस प्रेरणा एवं प्रशिक्षण की भूमिका सन्निहित है। उस मूल प्रयोजन की रक्षा की जानी चाहिए, जिसके कारण इनका प्रचलन किया गया था। लकीर पीटने से काम न चलेगा। हमें उस प्राचीन परम्परा को पुनर्जीवित करना चाहिए और पर्वों को उसी प्रकार पुनः मनाना आरम्भ करना चाहिए, जैसे कि वे पूर्वकाल में मनाये जाते थे। हर पर्व को मनाने की विधि और व्यवस्था यों छोटी पुस्तिकाओं के रूप में छापी जा चुकी हैं। पर संक्षिप्त में यह जान लेना आवश्यक हैं कि पर्व वाले ‘दन व्यक्तिगत रूप से परों में जो भी क्रिया-कृत्य किया जाता हो, उसके अतिरिक्त सामूहिक रूप से ऐसी व्यवस्था की जानो चाहिए जिससे अधिकाधिक जनता भाग ले, मिलजुल कर धार्मिक कर्मकाँड सम्पन्न किया जाय और इसी सुसज्जित धर्म मंच से पूर्व के साथ जुड़ी हुई प्रेरणा पर समझे हुए विचारों द्वारा प्रकाश डाला जाय। यदि इस संदर्भ में इन दिनों कुछ चल पड़ी हीं तो उन्हें सुधारने के लिए लोगों से कहा जाय और उस सुधार का व्यावहारिक मार्ग बताया जाय। इस प्रकार प्रेरक पद्धति से मनाये गये, वह पर्व-त्यौहार लोक-शिक्षण की अति महत्वपूर्ण भूमिका संपादित कर सकते हैं। सामाजिक उत्कर्ष के लिए ऐसे लोक-शिक्षण की आज जितनी आवश्यकता हैं, उतनी पहने कजी नहीं रही। इसलिये प्रवृद्ध व्यक्तियों की धर्म मन्त्र के माध्यम से भारतीय जनता का अभीष्ट मार्ग-दर्शन करने के लिए उन पुत्र्य परम्परा जी को पुनर्जी अंत करने के लिए प्रश्न प्रयत्न करना चाहिये।

समाज शिक्षण की जी आवश्यकता पर्वोत्सवों द्वारा पूरी हो सकती है, वही परिवार प्रशिक्षण के लिए संस्कारों द्वारा सम्पन्न की जा सकती हैं। जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत भारतीय धर्मानुयायी अपने संस्कार कराते रहते हैं। ताकि उनकी संस्कारवान् परम्परा एवं सुसंस्कृत मनोभूमि को निरन्तर अक्षुब्ध रखा जा सके। प्राचीनकाल में सोलह संस्कार हंसे हैं। अब उनमें से कितने ही असामयिक ही गये। ‘गर्भाधाय’ व संपन्न नहीं रहा। इसी प्रकार ‘कर्णभेध’ अनुपयोगी समझा जाने लगा। आज की स्थिति के अनुरूप बस संस्कार पर्याप्त हैं। - पर कँचे उन्हें ठीक तरह अनाया जाके लगे तो उस व्यक्ति को तो सुसंस्कारी बनने का अवसर मिलेगा ही घर परिवार के सदस्यों तथा समारोह में उपस्थित लोगों को जी अपने कौटुंबिक कर्त्तव्यों की जानकारी एवं प्रेरणा मिलेगी, वह प्रशिक्षण पारिवारिक समस्याओं को सम्भालने तथा संयुक्त प्रणाली को उपयोगी बनाये रखने में बहुत सहायक सिद्ध होगा।

संस्कारों में से प्रत्येक में बहुत कुछ शिक्षा एवं प्रेरणा भरी पड़ी हैं, यथा-1. पुँलवन-गर्भवती स्त्री को उन दिनों की शारीरिक मानसिक स्थिति ठीक रखने सम्बन्धी शिक्षा तथा पर वाली को तत्सम्बन्धी वातावरण उत्पन्न करने की प्रेरणा। 2. नामकरण-परिवार के बालक को सुसंस्कृत बनाने की विधि व्यवस्था का शिक्षण 3. अन्न प्राशन-बालक के आहार सम्बन्धी सतर्कताओं की जानकारी। 4. मुण्डन-बालक के बौद्धिक एवं सिद्धान्तों की विवेचना और बालक के लिए उपयुक्त शिक्षा योजना बनाकर देना। 6. यज्ञोपवीत-मानवता के मूल-भूत आदर्शों, कर्त्तव्यों एवं आधारों को समझना और पशुता की दुष्प्रवृत्तियों से बचने की शिक्षा। 7. विवाह-विवाह के उद्देश्य, कर्त्तव्य एवं सफलता के सिद्धांतों से पति-पत्नी को परिचित कराना। गृहस्थ के दायित्वों को निबाहने की परिस्थितियां उत्पन्न करने की दोनों परिवारों को शिक्षा देना। 8. वानप्रस्थ-बच्चों के समर्थ होने पर डालती आयु लोक-सेवा के लिए समर्पित करने की प्रतिज्ञा, उपार्जन का दायित्व पर के समर्थ नये सदस्यों पर छोड़कर स्वयं परमार्थ कार्यों में लगाना। 9. अन्त्येष्टि-मृत शरीर का यज्ञ संस्कार। मानव-जीवन के अमूल्य अवसर का सदुपयोग करने की उपस्थित लोगों को शिक्षा। 10. मरणोत्तर संस्कार-मृत्यु के उपरान्त घर, परिवार की यज्ञ आदि से शुद्धि, दिवंगत आत्मा के सद्गुणों की शिक्षा, उसके छोड़े हुए उत्तरदायित्वों को पूरा करने की योजना एवं व्यवस्था।

इन संस्कारों का भी पर्वों की भाँति ही विस्तृत कर्मकाँड ओर विधान हैं। जिनकी छोटी पुस्तिकायें, युग-निर्माण योजना द्वारा प्रस्तुत की गई हैं। उन्हें स्थानीय लोकाचार के अनुरूप बनाया जा सकता हैं। प्रमुखता कर्मकाँड की नहीं लोक शिक्षण की है। यह उद्देश्य ध्यान में रखा जाय और उपस्थिति लोगों को उस अग्रसर से सम्बन्धित समस्या को हल करने के लिए प्रशिक्षित किया जाय।

सारे मुहल्ले गाँव को इकट्ठा करे सामूहिक रूप से यदि पर्व मनावें जाने लगे और उसमें धर्म श्रद्धा के आधार पर लोग इकट्ठे होने लगे तो उस एकत्रीकरण में त्यौहार के छिपे हुए समाज निर्माण के रहस्यों को चतुरवक्ता भली प्रकार समझा सकता हैं। और सामाजिक कुरीतियों एवं विकृतियों के उन्मूलन तथा स्वस्थ परम्पराओं की स्थापना के लिए महत्त्वपूर्ण पृष्ठभूमि बना सकता हैं।

इसी प्रकार पारिवारिक धर्म गोष्ठियों का सिलसिला संस्कार मनाने की परम्परा पुनर्जीवित करके बड़ी आसानी से प्रचलित किया जा सकता है। घर परिवार एवं पड़ौस के थोड़े लोग इकट्ठे हो तो भी उन्हें व्यक्ति निर्माण एवं परिवार निर्माण की रीति-नीति में परिणत किया जा सकता हैं।


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