डडडडडडडडडडडडडड ध्वजायें उड़ाओ नहीं, कर्म में धर्म का ध्यान देते चलो। डडडडडडडडड जिन्दा नहीं, धर्म का ज्ञान हैं, ध्यान जिन्दा नहीं
लाश अपनी स्वयं ढो रहा आदमी, साँस चलती हैं, इंसान जिन्दा नहीं उठ रहा हैं धुंआ बढ़ रहा हैं घुटन, साँस रोके खड़े साधना के चरण
उक्त वातावरण के लिए कौन-सा, मुक्ति वरदान लाये हो देते चलो।
शान्ति के गीत गाना बढ़ा ही सरल, क्रान्ति के स्वर जगाना बड़ा ही सरल। कर्म कुरुक्षेत्र के कूदना ही कठिन, वाक जौहर दिखाना बड़ा ही सरल॥
कर उठे व्यंजना शुचि-गिरा कर्म की, शान्ति के मर्म की, क्रान्ति के धर्म को। चित डोले नहीं, शब्द बोले नहीं, कर्म में वेद व्याख्यान देते चलो॥
धर्म धारा गया है हृदय में सदा, वह उतारा गया हैं, क्रिया में सदा। सिर्फ व्याख्यान से धर्म फला नहीं, धर्म पीकर जिया, जिन्दगी की सुधा॥
धर्म कहता है- तुम धैर्य धारण करो, शान्ति से विघ्न सारे निवारण करो। धर्म देता नहीं भीरुता को जग, शौर्य का, शक्ति का दान देते चला॥
मंच से क्रान्ति की घोषणायें हुई, शब्द से शान्ति की व्यंजनायें हुई। क्रान्ति आई नहीं, शान्ति ठहरी नहीं, मन्दिरों में बहुत प्रार्थनायें हुई॥
जिन्दगी से जगें, क्रान्ति चिनगारियाँ, आत्मा से खिलें शान्ति-फलवारियाँ। पूर्वजों के चरित्र की दुहाई न दो, प्रज्ज्वलित एक पहचान देते चला॥
क्या हुआ साथ कोई तुम्हारे नहीं, आत्म विश्वास की शक्ति हारे नहीं। चाँद-सूरज अकेले चले जा रहे-रोशनी दे सके हैं सितारे नहीं॥
एक आगे चला, भीड़ पीछे चली, एक दीपक जलाता दीपावली। तुम घना देखकर थरथराओं नहीं, नव किरण के धनुष-धारण लेते चलो॥
जो कि सूने क्षणों में सहारा बनें, डूबते के लिए जो किनारा बनें। हर भटकती नजर को मिले रास्ता-घोर अंधियार में ज्योति धारा बनें॥
हारती सांस को दे सकें चेतना, जो उठे पाँव को दे सकें प्रेरणा। मंजिलों को छुपें गीत को गुनगुना-हर अधर को मधुर गान देते चलो॥
तुम जहाँ पर जियो, धर्म जीने लगे, तुम सुधा बाँट दो, विश्व पीने लगे। साथियों की यहाँ बाट जोहो नहीं, प्यार दो, हर दुखी को कि सीने लगे॥
अश्रु पोंछो किसी के तनिक आह भर, धर्म उतरे धरा पर नया रूप धर। वेद की ये ऋषायें भुलाओ नहीं, टूटती साँस को प्राण देते चलो॥
-लाखनसिंह भदौरिया,
*समाप्त*