हमारे शेष जीवन का कार्यक्रम और प्रयोजन

December 1969

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वही सिद्धांत लागू होता हैं। सृष्टि के आदि के लेकर अद्यावधि प्रत्येक आत्म-बल सम्पन्न को तपश्चर्या का ही अबल-स्वन लेना पड़ा हैं। देश-शक्तियों के वरदान अनुनय, विनय अथवा यत्किंचित कर्मकाण्ड मात्र से नहीं मिल जाते। साधन को अपनी पात्रता सिद्ध करनी होती हैं। उपासना के साथ साधना का समन्वय करना पड़ता हैं। तपश्चर्या हर प्रगतिशील और महत्वाकाँक्षी के लिए अनिवार्यतः आवश्यक हैं। इससे बचकर सरलतापूर्वक किसी के वरदान, आदर्शवाद स्वयं से कुछ महत्वपूर्ण कहीं जा सकने वाली उपलब्धि मिल सकना असम्भव हैं। यह तथ्य हमें किशोरावस्था के आरम्भ में ही समझा दिया गया था और बिना भटके- बिना समय गँवायें- अपने पथ प्रदर्शक के संरक्षण में गायत्री महामन्त्र के साथ अभीष्ट तपश्चर्या को सम्मिलित परिणाम उत्पन्न कर सकते हैं। कार्यों की गणना और उनकी व्यापकता एवं सफलता का उल्लेख करना यहाँ निरर्थक हैं। एक शब्द में इतना ही कहा जा सकता हैं कि अपने दन्ंक्त की यह अनोखी एवं अद्भुत प्रक्रिया चिरकाल तक अविस्मरणीय बनी रहेगी, नव-निर्माण के बहुमुखी कार्यक्रम को एक ऐतिहासिक और सफल अभियान गिना जाता रहेगा।

इस प्रगति में आदि से अन्त तक सारा श्रेय उस तप-साधना को हैं, जिसे हमने अति निष्ठापूर्वक सम्पन्न किया और अपने मार्ग-दर्शक की पूँजी का अनुदान मिलाकर उसे एक महतम सामर्थ्य के रूप में उपलब्ध एवं प्रयुक्त किया। तप की महता बहुत हैं। इस संसार में जो कुछ महत्वपूर्ण हो रहा हैं, वस्तुतः उसके पीछे तपश्चर्या की शक्ति ही उन्नति रहती हैं। हमारे-हमारे मिशन के साफल्य का किसी को मूल्याँकन करना हो तो इस तथ्य को स्मरण रखना चाहिये कि हमारे व्यक्तिगत प्रयास और जनसहयोग के पीछे एक मात्र श्रेय उस तपश्चर्या को है, जो एक महती शक्ति के रूप में प्रस्फुटित एवं परिलक्षित होती रही।

लोग-मंगल, भावनात्मक नव-निर्माण अभियान नैतिक एवं साँस्कृतिक पुनरुत्थान आन्दोलन के अतिरिक्त अपने विशाल परिवार की छुट-पुट समस्याओं की कठिनाई को सरल बनाने और उन्हें अभीष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति में जो सहायता कर सके वे यदि सिद्धि या चमत्कार के नाम से पुकारी जायें तो भी यही कहना चाहिए कि वे उपलब्धियां प्रस्तुत तपश्चर्या का ही प्रतिफल थीं। कुछ दिन बाद जब अध्यात्म-बल के आधार पर दिये जा सकने वाले अनुदानों का विवरण प्रकाश में आया तो लोगों को यह विश्वास करने में सरलता हो जायगी कि तपश्चर्या न केवल साधक का व्यक्तित्व ही निर्मल, प्रखर एवं सशक्त बनाती हैं वरन् उसके द्वारा दूसरों को भौतिक एवं आध्यात्मिक सहायताओं की एक महत्वपूर्ण श्रृंखला भी चल सकती हैं।

हमारे जीवन-कम के दो अध्यात्म लगभग पूरे होने को आये और तीसरे अध्याय का आरम्भ 18 महीने बाद आरम्भ होने की तैयारी हो चली। बालकपन के चौदह वर्षों की अबोध स्थिति के सामान्य क्रिया-कलापों को छोड़ कर 24 वर्ष की तपश्चर्या और 22 वर्ष की लोक-साधना को मिलाकर 60 वर्ष का वर्तमान कार्यकाल पूरा हो चला। यह अवधि ऐसी बीती, जिस पर गर्व नहीं तो संतोष अवश्य किया जा सकता हैं। आध्यात्मिकता निरर्थक नहीं है, इसे जो कसौटी पर कसना चाहतें हों और प्रत्यक्ष प्रमाण देखना चाहते हों, वे हमारी उपलब्धियों को गम्भीरतापूर्वक खोजें, समझें और परखें। भौतिक साधनों से जो सम्भव न था, वह आत्म-बल से सम्भव हो सका। इस तथ्य को समझकर यह विश्वास किया ही जाना चाहिए कि साधना को-तत्व ज्ञान को-विडम्बना मात्र नहीं कहा जा सकता। अविश्वासियों को विश्वास करने के लिए हमारा प्रमाण प्रस्तुत किया जा सकता हैं। साहित्य सृजन, जन-जागृति, संगठन, परिवर्तन की प्रक्रिया, व्यक्तित्व की प्रखरता एवं दूसरों की अद्भुत सहायतायें कर सकने की अद्भुत गतिविधियाँ हमारे द्वारा सम्भव हो सकीं तो उसका एक मात्र कारण आध्यात्मिकता एवं तपश्चर्या की शक्ति ही हैं। इस शक्ति को उपलब्ध करने के लिए अविश्वासियों में भी विश्वास और उत्साह का संचार हो सकता हैं। यदि ध्यान पूर्वक, गम्भीरता के साथ हमारे छोटे से जीवन की उपलब्धियों को आँका जा सकें।

हमारे जीवन का तीसरा अध्याय और भी अधिक महत्वपूर्ण हैं। यह प्रयोग का अन्तिम चरण हैं। इसके तीन प्रयोजन हैं और सभी एक से एक अधिक महत्वपूर्ण एवं आवश्यक कहे जा सकते हैं। इनकी चर्चा नीचे कर रहे हैं।

जनमानस का जागरण और समर्थ नेतृत्व का उदय

भारतीय अध्यात्मवाद का ज्ञान पक्ष तो देखने, सुनने को मिलता हैं, पर विज्ञान पक्ष एक प्रकार से लुप्त ही हो गया। कथा-प्रवचनों, आयोजन, सम्मेलनों अथवा धर्म साहित्य के माध्यम से हमें ज्ञान-पक्ष की यत्किंचित जानकारी मिलती रहती हैं। यह विचार संशोधन की दृष्टि से उत्तम हैं। इससे दोष दुर्गुणों को छोड़ने और सज्जनोचित गतिविधियाँ अपनाने में सहायता मिलती हैं। इस पक्ष का भी अपना स्थान हैं। पर कोई महत्वपूर्ण प्रयोजन केवल विचार मात्र से सम्भव नहीं हो सकते, उनके लिए आवश्यक शक्ति चाहिए। साँसारिक प्रयोजनों में धन-बल, तन-बल, बुद्धि-बल, जन-बल एवं अभीष्ट परिस्थितियों तथा उपकरणों की आवश्यकता पड़ती हैं। केवल सोचने या जानने भर से कोई प्रगति या उपलब्धि सम्भव नहीं होती।

सूक्ष्म-जगत को, जन-मानस को प्रभावित करने एवं आपत्तियों में प्रतिकूलताओं का सुविधाओं तथा अनुकूलता में बदलने के लिए प्रचण्ड आत्म-बल चाहिए। और उसे तपश्चर्या के अखाड़े में पाया, बढ़ाया जा सकता हैं। अभी बहुत काम करना बाकी हैं। ज्ञान-यज्ञ व नव-निर्माण आन्दोलन की मशाल जलाकर दूसरे मजबूत हाथों में थमाते हुए हम पूरा और पक्का विश्वास करते हैं कि अगले 30 वर्षों में वर्तमान परिस्थितियों में आमूल-धूल नहीं तो आकाश-पाताल जैसा अन्तर हो जायेगा। अनैतिकता और असामाजिकता और दूरदर्शिता से भरी वर्तमान परिस्थितियाँ देर डडडडडडड टिक सकेंगी। युग-निर्माण का महान आँदोलन प्रत्यक्ष डडडडडडड रूप से संसार के हर व्यक्ति को प्रभावित करेगा, डडडडडडड उठाकर खड़ा करेगा और जो उचित, डडडडडडड तथा विवेकपूर्ण हैं, उसे ही अपनाने को बाध्य करेगा।

सन् 2000 तक वह सब कुछ दीखने लगेगा, जिसके अनुसार युग परिवर्तन का प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सके। जिस बीच महती घटनायें घटेंगी, भारी संघर्ष होंगे, पाप बढ़ेगा और उसकी प्रतिक्रिया नये सिर से सोचने और नई रीति-नीति अपनाने के लिए जन-साधारण को विवश करेगी। बदलाव के अतिरिक्त और कोई मार्ग न रहेगा। मनुष्य को अपने तौर-तरीके बदलने होंगे। युग-निर्माण की वर्तमान चिनगारियां विश्व-व्यापी दावानल की तरह प्रचण्ड होंगी और उसमें आज की अनीति एवं अवाँछनीयता जल-जलकर होलिका दहन की तरह नष्ट हो जायगी। नया युग प्रातः काल के उदीयमान सूर्य की तरह अपनी अरुणिमा अब कुछ ही समय में प्रकट करने जा रहा हैं। एक अभिनव आन्दोलन को जन्म देकर, उसमें गति भर कर, उस मोर्चे की कमान मजबूत योद्धाओं के हाथ सौंपकर हम जा रहें हैं। नये-नये शूर-वीर इस मुहीम पर आते चले जायेंगे। और युग-निर्माण की प्रगति अपनी निर्धारित गति से- सुव्यवस्थित क्रम-बद्धता के साथ-अग्रगामी होती रहेगी।

जिन हाथों में नव-निर्माण की मशाल थमा दी गई हैं तथा इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए लोक-नायकों की जो एक विशाल सेना उमड़ती चली आ रही हैं, उसे आवश्यक बल, साहस और साधन उपलब्ध कराने का काम शेष हैं। अभीष्ट शक्ति के बिना वे भी क्या कर सकेंगे। उनके लिए अभीष्ट शक्ति जुटाना आवश्यक था, सो इसका साधन जुटाना अधिक महत्वपूर्ण समझकर हमें उसके लिए नयना पड़ेगा। आज का लोक नेतृत्व बहुत दुर्बल हैं। राजनीति, समाज तथा धर्म के सभी क्षेत्रों में ऐसा नेतृत्व दीख नहीं पड़ता, जो जन-मानस को हिलाकर रखने और अपनी प्रखरता के बल पर लोगों को अपनी गतिविधियाँ बदलने के लिए प्रभावित तथा विवश कर सकें। वाचालता लोकेषणा और छल-छल का आधार लेकर चलने वाले स्वार्थी और संकीर्ण डडडडडडड के लोग अवाँछनीयता को बदल सकने में समर्थ नहीं हो सकते। वे अपने लिए धन, यश तथा पद कमा सके हैं, पर आन्तरिकता प्रखरता के बिना युग परिवर्तन की आवश्यकता पूर्ण नहीं की जा सकती। परिस्थितियों की माँग हैं कि हर क्षेत्र में प्रखर नेतृत्व का उदय हो। यह आत्म-बल की प्रचुरता से ही सम्भव हो सकता है। इस अभाव की पूर्ति करना भी हमारे अगली तपश्चर्या का एक प्रयोजन हैं।

डेढ़ वर्ष बाद हम एक अति प्रचण्ड तपश्चर्या के लिए अविज्ञात दिशा में प्रयाण करने वाले हैं। उसका एक उद्देश्य एक ऐसे लोक-सेवी वर्ग का उद्भव करना है, जो अपने चरित्र, व्यक्तित्व, आदर्श, प्रभाव से ऐसे लोक नेतृत्व की अभाव पूर्ति कर सके, इन दिनों महापुरुषों की एक बड़ी श्रृंखला अवतरित होनी चाहिए, जो युग परिवर्तन की महान सम्भावना को साकार कर सकें। गंगा का अवतरण कठिन न था, कठिनाई भागीरथ के उत्पन्न होने में थी। मनुष्य महान हैं। यदि उसमें महानता की अभीष्ट मात्रा प्रकट हो सके तो वह सच्चे अर्थों में भगवान् का पुत्र और प्रतिनिधि सिद्ध हो सकता हैं। अगल दिनों ऐसे भागीरथों की आवश्यकता पड़ेगी, जो संसार का काया-कल्प करने और शाँति की सुरसरी का अवतरण सम्भव बना सकने में समर्थ तथा सफल हो सकें।

हमारी आगामी तपश्चर्या का प्रयोजन संसार के हर देश में जन-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भागीरथों का सृजन करना हैं। उनके लिए अभीष्ट शक्ति, सामर्थ्य का साधन जुटाना हैं। रसद और हथियारों के बिना सेना नहीं लड़ सकती। नव-निर्माण के लिए उदीयमान नेतृत्व के लिए पर्दे के पीछे रहकर हम आवश्यक शक्ति तथा परिस्थितियाँ उत्पन्न करेंगे। अपनी भावी प्रचण्ड तपश्चर्या द्वारा यह सम्भव हो सकेगा और कुछ ही दिनों में हर क्षेत्र में, हर दिशा में, सुयोग्य लोक-सेवक अपना कार्य आश्चर्यजनक कुशलता तथा सफलता के साथ करते दिखाई पड़ेंगे। श्रेय उन्हीं को मिलेगा और मिलना चाहिए। नव-निर्माण आन्दोलन संस्था नहीं एक दिशा हैं। सो अनेक काम लेकर इस प्रयोजन के लिए अनेक संगठनों तथा प्रक्रियाओं का उदय होगा। भावी परिवर्तन का श्रेय युग-निर्माण आन्दोलन लग को मिले यह आवश्यक नहीं। अनेक नाम रूप हो सके हैं और होंगे। उससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। मूल अयोन विवेकशीलता की प्रतिष्ठापना और सद्वृत्तियों का अभिवर्धन से हैं। सो हर देश, हर समाज, हर धर्म हर क्षेत्र में इन तत्वों का समावेश करने के लिए अभिनव नेतृत्व का उदय होना आवश्यक हैं। हम इस महती आवश्यकता की पूर्ति के लिए अपने शेष जीवन में उग्र लग्न तपश्चर्या का सहारा लेंगे। उसका स्थान और स्वरूप क्या होगा यह तो हमारे पथ-प्रदर्शक को बताना है पर दो प्रयोजनों में से एक उपरोक्त हैं, जिसके लिए हमें सघन जन-संपर्क छोड़कर नीरवता की और कदम बढ़ाने पड़ रहें हैं।

अध्यात्मवाद के विज्ञान पक्ष का प्रत्यक्षीकरण

हमारी भावी तपश्चर्या का दूसरा प्रयोजन आध्यात्मिकता के विज्ञान पक्ष को मृत, लुप्त तथा विस्मृत दुःख परिस्थितियों में से निकाल कर इस स्थिति में लाना हैं कि उसके प्रभाव और उपयोग का लाभ जनसाधारण को मिल सकना सम्भव हो सके। भौतिक विज्ञान का लाभ जनसाधारण को मिल सका और उनसे अपनी महता जनमानस पर स्थापित कर सका, बाज विज्ञान सम्मत बातों को ही सच माना जाता है, जो उस कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं, उन्हें मिथ्या घोषित कर दिया जाता हैं। आस्तिकता, धार्मिकता तथा आध्यात्मिकता की मान्यताओं को हमें विज्ञान के आधार पर सही सिद्ध करने का प्रयत्न करना पड़ रहा हैं। वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की एक नई दिशा का निर्माण करना पड़ रहा हैं। इस विवशता का कारण यही हैं कि लोग विज्ञान सम्मत बातों को ही सच मानते हैं।

पिछले दिनों विज्ञान ने ईश्वर और आत्मा का अस्तित्व मानने से इनकार कर दिया तो देखते-देखते नास्तिकता की लहर सारे विश्व में फल गई और प्रबुद्ध मस्तिष्कों को उसने कसकर जकड़ लिया। यदि विज्ञान के आधार पर ही अध्यात्म तथ्यों का प्रतिपादन, परीक्षण और प्रत्यक्षीकरण सम्भव हो सके तो निश्चित रूप से आज के मस्तिष्क और अविश्वासी, फल ही आस्तिक और धर्म विश्वासी हो सकते हैं। उस युग ने बुद्धिवाद और प्रत्यक्ष बाद की कसौटियाँ स्वीकार की हैं, अतएव धर्म धर्म और अध्यात्म को-ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व को उसी आधार पर सिद्ध करना होगा। और यह किया जा सकना सर्वथा सम्भव हैं। सत्य को किसी भी कसौटी पर कसा जा सकता हैं। वास्तविकता हर जगह खरी जहर सकती हैं। आवश्यकता प्रयत्न करने भर की हैं। वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की परिपुष्टि का जो क्रम अखण्ड-ज्योति व्रत एक वर्ष से आरम्भ किया हैं, उसे आगे भी जारी रखा जायेगा और पूर्णता के उस स्तर तक पहुँचाया जायेगा, जहाँ हर, परख और हर कसौटी पर सचाई को कसे जाने के लिए प्रस्तुत किया जा सकें।

सिद्धांतों को बौद्धिक स्तर पर प्रतिपादन की साहित्यिक प्रक्रिया अखण्ड-ज्योति ने चलाई हैं और यह आगे भी चलती रहेगी। हम जहाँ भी रहेंगे, उसके लिए आवश्यक विचार सामग्री, प्रस्तुत करते रहेंगे। अध्ययन से ही नहीं, यह सामग्री चिन्तन, मनन और दिव्य दृष्टि से भी उपलब्ध की जा सकती हैं। तप साधा इस प्रयोजन को भी बड़े सुंदरता के साथ पूरा कर सकती है और करेगी। हम इस प्रसंक्त को इस स्तर तक पहुंचा देंगे कि संसार भर कि विचारशील लोगों को अध्यात्मवा को ‘गरिमा’ सचाई और उपयोगिता को स्वीकार करके उसकी शरण में आने के लिए विवश होना पड़े।

गायत्री उपासना का सर्वसाधारण के लिए जितना प्रयोग सरल और उपयुक्त था, उसे हम गत 20 वर्षों कसे सिखाते, समझाते चले आ रहे हैं। जिन विद्या की उच्च स्तरीय साधना के दो पक्ष हैं-(1) योग, (2) तन्त्र योग-मार्ग में उच्च-स्तरीय गायत्री साधना पंच-कोशों के अनावरण की हैं, जिसकी ‘घोड़ी’ चर्चा गायत्री महाविज्ञान के तृतीय खंड में हैं और थोड़ा-सा मिश्रण अखण्ड-ज्योति के माध्यम से तीन वर्ष तक कर चुके हैं। अभी इस विद्या को सांक्तोपांक्त बताया जाना शेष हैं। उसी प्रकार तन्त्र मार्ग की गायत्री कुण्डलिनी कहलाती हैं। इसकी छुट-पुट चर्चा इन दिनों हम कर रहें हैं। अगले दिनों नैतिक साधकों को योग मार्ग की पंचकोश अनावरण साधना और तन्त्र मार्ग को कुण्डलिनी जागरण की समग्र शिक्षा भी अखण्ड-ज्योति के पूजा पर ही मिलेगी। अनुभव के आधार पर प्रस्तुत किया जा वह शिक्षण सर्वथा सार्थक होगा और उससे अनेक प्रतिष्ठान भारी लाभ उठा सकेंगे।

अध्यात्म विज्ञान की प्राचीन काल में असंख्य धारायें के और वे लगभग सभी लुप्त हो गई। बढ़िया मशीनें ही बढ़िया काम करती हैं, उसी प्रकार बढ़िया व्यक्तित्वों पर ही आध्यात्मिक विद्या का ‘प्रयोग उद्भव’ एवं प्रकटीकरण हो सकता हैं। प्राचीनकाल में योग-मार्ग के साधक अपने अपने मन एवं अन्तःकरण को ‘जीवन’ साधना द्वारा उत्कृष्ट बनाते थे, तब उस भली प्रकार जीती हुई भूमि में चमत्कारी अध्यात्म विद्याओं की कृषि उगाई जाती थी। लोग धीरे-धीरे आलसी, असंयमी, स्वार्थी और संकीर्ण होते हैं। मात्र साधना सिद्धांत के आधार पर कोई व्यक्ति आत्म-बल से सम्पन्न नहीं हो सकता। जन्त्र–मन्त्र में घटिया स्तर के लोग कुछ सिद्धि, चमत्कार प्राप्त भी कर लें तो उनके द्वारा घटिया प्रयोजनों की ही पूर्ति हो सकती हैं और उनकी स्थिरता एवं सफलता भी स्वल्प कालीन एवं संदिग्ध बनी रहती हैं। यही कारण है कि प्रयोग करने पर भी लोगों को अध्यात्म विज्ञान के चमत्कारी लाभों से वंचित रहना पड़ता हैं। धूर्तता के आधार पर सिद्धि दिखावे और चमत्कार बताने की प्रवंचना कितने ही लोग करते रहते हैं और भोले लोगों को बहकाते रहते हैं पर वस्तुतः जा आत्म बल प्रकट करने और उसका उपयोग सिद्ध करने की चुनौती स्वीकार कर सकें, ऐसे लोग नहीं के बराबर हैं। भारत में समाधि लगाने और गडे में बैठने की बाजीगरी बहुत से लोग दिखाते हैं पर सचाई परखने की चुनौती जब वैज्ञानिकों ने दी ता कोई भी परख की आग पर खड़ा होने की तैयारी न हुआ। नकलीपन जादूगरी, मनोरंजन कर सकता है पर वस्तुस्थिति सिद्ध करने के लिए, उसको सचाई हर परीक्षा से कसे जाने की तैयारी घोषित करनी पड़ेगी।

योग की अनेक चमत्कारिक शक्तियाँ और सिद्धियां हमारे पूर्वपुरुषों को प्राप्त थीं। वे उनके द्वारा जहाँ अपनी महानता का अभिवर्धन करते थे, वहाँ पर विद्या द्वारा विश्व मानव की महती सेवा भी करते थे। भौतिक विज्ञान के अन्वेषणों और यन्त्रों ने मनुष्य जाति की सेवा की हैं और अपना वर्चस्व समर्पित किया हैं। अध्यात्म विज्ञान की मान्यता तब तक सिद्ध नहीं हो सकती, जब तक वह अपने अरितत्व की वास्तविकता को प्रत्यक्ष एवं प्रमाणित न करें। भौतिक विज्ञान से अध्यात्म विज्ञान के चमत्कार हजारों लाखों गुने अधिक हैं। उसकी शक्ति से मानव जाति को सुख-सुविधाओं में भौतिक विज्ञान की अपेक्षा लाखों गुनी वृद्धि हो सकती हैं। पर यह सम्भव तभी हैं, जब वे विद्यायें जादूगरी की धूर्तता की तरह नहीं, एक सचाई और वास्तविकता की तरह प्रस्तुत हों। पार्श्चय सभ्यता भौतिक विज्ञान के साथ बढ़ी हैं। आध्यात्मिक सभ्यता की प्रतिष्ठापना एवं अभिवृद्धि के लिए हमें योग विद्या के विज्ञान पक्ष को भी प्रस्तुत करना पड़ेगा। आध्यात्मिकता का ज्ञान पक्ष प्रस्तुत करके ही हमें संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिये वरन उसका विज्ञान-पक्ष भी प्रस्तुत करना चाहिए। आज की यह महती आवश्यकता हैं। यदि इसे पूरा किया जा सका तो निस्संदेह हम फिर सतयुग की तरह आध्यात्मिकता की शरण में समस्त मानव-जाति को ला सकने में सफल हो सकते हैं। हमारी भावी तपश्चर्या का दूसरा प्रयोजन यही हैं। हमने लम्बी अवधि में अपने शरीर, मन और अन्तःकरण को इस योग्य बना लिया हैं कि उसमें दिव्य शक्तियों का अवतरण और लुप्त विद्याओं का प्रयोग, परीक्षण एवं उद्भव संभव हो सकें। अस्तु हम समाज सेवा के मनोरंजक कार्यों को छोड़कर ऐसी नीरवता और कष्ट साध्य प्रशालीकावरण करने जा रहें हैं, जा दुष्कर तो हैं पर मानव जाति के उज्ज्वल भविष्य के निर्माण में उसकी आवश्यकता एवं उपयोगिता असाधारण हैं। हम जीवन भर असाधारण और दुस्साहसपूर्ण कार्य ही करते रहें हैं। जीवन के अन्तिम अध्याय में यदि ऐसा उत्तरदायित्व नियति ने सौंपा हैं, तो उसे हँसी-खुशी से ही वहन करेंगे। अपने पथ-प्रदर्शक के हाथी हम अपने को बेच चुके हैं। उसकी इच्छा और प्रसन्नता ही हमारी इच्छा एवं प्रसन्नता हैं। सो अठारह महीने बाद अपने प्रिय परिजनों से बिछुड़ने के कठिन प्रसंक्त को सहन कर सकने लायक अपनी छाती मजबूत करने का एक विलक्षण प्रयोग हम इन दिनों कर रहें हैं।

परिजनों से ऋण मुक्ति

सदा से से हमारी प्रवृत्ति अति कोमल रही हैं। प्यार ही जीवन भर हमने बांटा और समेटा हैं। इसी बाँटने-समेटने के क्रिया-कलाप ने एक विशाल परिवार बनाकर खड़ा कर दिया। मोह-ममता ग्रसित दुर्बल मानव प्राणियों की तरह हमें भी अपने इन स्वजन, सम्बन्धियों से बहुत ममता हैं। उन्हें सदा के लिए छोड़ते समय अपना मन भारी होना स्वाभाविक हैं। पिछले दिनों वह व्यथा बहुत बेचैन करती रही पर काम उससे भी चलने वाला न था सो मन को कड़ा और कठोर बनने के लिए कितने ही दिन से समझते चले आ रहे हैं। सफलता तो आँशिक हो मिल सकी हैं और पूरी मिलने की आशा भी नहीं हैं। इस व्यथा को सहते सुलझाते हमारा ध्यान पूरी तरह इस बात पर केन्द्रीभूत हैं कि जिनसे जितना स्नेह, सद्भाव पाया हैं, उनका पूरा नहीं तो अधूरा ऋण चुकाकर अपनी कृतज्ञ भावना को व्यक्त करने एवं किसी कदर उस ऋण से उऋण होने का प्रयत्न करें।

अपने स्वजनों को-बालकों को आते और जाते समय बड़े लोग कुछ देकर जाते हैं। हम भी कुछ वैसा ही करना चाहते हैं। स्वजनों की कठिनाई को सरल बनाने और सुख-सुविधाओं का अभिवर्धन करने के लिए हमारी बहुत आकाँक्षा हैं। यों अब तक भी हर परिजन का भार हल्का करने में कुछ सहारा निरन्तर देते रहें हैं और जिनका बोझ कम था, उन्हें तो राहत मिली पर अधिक बोझ वालों को कुछ पता भी न चला। अधिक देने को तप साधना की पूँजी भी उतनी मात्रा में शेष नहीं बची थी। अस्तु हर एक के हिस्से में थोड़ा-थोड़ा ही आया। इससे न उन्हें सन्तोष हो सका न हमें।

अगली तपश्चर्या का एक प्रयोजन यह भी हैं कि अपने प्राण-प्रिय परिजनों को कुछ ऐसे अनुदान देकर जायं, जिन्हें वे चिरकाल तक स्मरण करते रहें। इससे उन्हें हमारी स्मृति बनी रहेगी और हम भी उपलब्ध श्रद्धा सौजन्य पाकर जितने ऋणी हुए हैं, उससे एक सीमा तक उऋण हो जायेंगे। हमारे शेष साधनात्मक जीवन का एक तीसरा प्रयोजन यह भी है कि जिन्हें पिछले दिनों से सुख-शान्ति, अगति और उज्ज्वल भविष्य के आश्वासन देते रहें हैं, उन अभिवचनों को पूरा कर सकने योग्य सामर्थ्य इकट्ठे करते। निश्चित रूप में हमें अपने लिए किसी उपलब्धि की अपेक्षा नहीं हैं। यहाँ तक कि स्वर्ग मुक्ति भी हमें नहीं चाहिए। जो अन्तःभूमि उपलब्ध हैं, वह अपने आप भी अमृत जैसी मधुर और प्रकाश जैसी निर्मल हैं, उसे पाकर और कुछ पाने को इस पंच-तत्वों से बने संसार में पानी शेष भी क्या रह जाता हैं? कल्पना के नाप पर यदि कुछ शेष हैं तो उसमें देश, धर्म समाज, संस्कृति के उत्कर्ष के अतिरिक्त व्यक्तिगत आकाँक्षा एक ही हो कि अपने प्रिय परिजनों के लिए कुछ ऐसे उपहार दे सकने में समर्थ हों, जो उनके आँसू पोंछने और मुसकान बढ़ाने के लिए कारगर सिद्ध हों।

भावी तपश्चर्या का एक अंश अपने परिवार को सुखी समुन्नत बनाने के लिए निश्चित रूप से देंगे। हमें धरती, आकाश पर कहीं भी रहना पड़े, अपनी कोमलता और ममता को अक्षुण्य बनाये रहेंगे। जिनकी आत्मीयता हमारे साथ, जितने परिमाण में जुड़ी हुई हैं,वे उसी अनुपात से हमें अपने समीप रखते और सहकार करते और स्नेह बरसाते हुए, अनुभव करते रहेंगे। हमारा सूक्ष्म शरीर अपने परिवार की शाँति और सुरक्षा की चौकीदारी अपनी सामर्थ्य के अनुरूप निरन्तर करता रहेगा।

हमारे शेष जीवन के अन्त तक चलने वाली साधना का प्रयोजन और स्वरूप संक्षेप में बता दिया गया। वो हम सदा ही अपने मार्ग-दर्शक की कठपुतली रहे हैं और उन्हीं के इशारे पर नाचते रहे हैं, सो शेष, जीवन की रूपरेखा बनाने तथा निभाने में भी हमारा कोई वश नहीं है जो उनसे अब तक कहा और कराया सो हम करते रहे और बिना अपनी व्यक्तिगत इच्छा का समावेश किये, आगे भी करते रहेंगे। अभी जो संकेत प्राप्त हुए हैं और जो निश्चय किया गया हैं, उसकी रूप-रेखा उपरोक्त पंक्तियों में व्यक्त कर दी गई।

परिवार को इतना पूछना और जानना उचित था, सो उनकी जिज्ञासा का समाधान करने के लिए वर्तमान स्थिति को स्पष्ट कर दिया गया। आगे जो होता है, उसे हर कोई देखता रह सकेगा। ही कदम आप भी बढ़ायें-

दुख विदाई की बेला में हम दो उत्तरदायित्व प्रिय परिजनों को साँकर जा रहे हैं। (1) ज्ञान-यज्ञ में निरन्तर आहति देते रहने से कोई जी न चुराये। (2) युग परिवर्तन के लिए अनिवार्य संघर्ष में अपना भाग पूरा करने से सुख न छिपायें। जो हमें प्यार करते हों-हमारे प्रति उगता और आत्मीयता सचमुच ही रखते हों। वे यह दोनों ही बातें नोट कर लें। हम हर परिजन की वास्तविकता इसी कसौटी पर कसकर परखते रहें।

नव-निर्माण के लिए आवश्यक विचार-धार हमने अपने अंतरंग का निशर खोद कर प्रवाहित की हैं, उससे जन-जन के मन को खींचने का कार्य हमारे उत्तराधिकारी करेंगे। विचार-क्राँति की मशाल हम उन्हें दे रहे हैं, जो अपनी अपनी बात ध्यानपूर्वक पढ़ते हैं। यह मशाल जलती रहनी चाहिये, यह प्रकाश दूर-दूर तक फलता रहना चाहिए। ऐसा न हो कि सहयोग का स्नेह न पाकर हमारी यह अमानत अपना अस्तित्व खो बैठे। छोटे ट्रैक्टों और विज्ञप्तियों में हमने अपना दर्द भर दिया हैं, उसे हर हृदय और मस्तिष्क में बोया, उगाया जाना चाहिए। जिसकी जहाँ तक पहुँच हो-अपने घर, परिवार से लेकर मित्र-परिचितों तक उस विचार-धारा को पहुँचाया, फलाया जाना चाहिए। झोला पुस्तकालय हर कर्मल व्यक्ति को पूरी लगन और तत्परता के साथ चलाना चाहिए। अखंड-ज्योति हमारी वाणी हैं। हमारी आवाज अधिक लोगों तक पहुँच सकें। इसके लिए अपने प्रभाव और दबाव का उपयोग छाया जाना चाहिए। अखंड-ज्योति अभी बहुत सीमित संख्या में छाती हैं। उसका क्षेत्र बढ़ाना चाहिए। यदि सचमुच हम उसे प्यार करते हो तो फिर बढ़ने और सींचने के लिए कुछ परिश्रम भी करें।

इस अंक के साथ प्रायः सभी का चन्दा समाप्त होता हैं। नया वर्ष अगले अंक से आरम्भ होता हैं, यदि हम ठान-ठान लें तो चुनाव प्रचार को तरह मित्रों की मण्डलियाँ बनाकर समझदार लोगों के पास पहुँचे और एक वर्ष के अंक दिखाकर उनमें से बहुतों को नया ग्राहक बना लें। यदि सचमुच हम लोग सच्चे मन से इस नव-निर्माण की विचार धारा और हमारी वाणी को व्यापक बनाना चाहें तो इन्हीं दिनों कुछ नये सदस्य भी बना सकते हैं और अखंड-ज्योति का कार्य क्षेत्र देखते-देखते दूना-चौगुना हो सकता हैं। ज्ञान-यज्ञ में यदि हमारी निष्ठा हो-उससे जी न चुराये तो कोई कारण नहीं कि हममें से प्रत्येक अपने प्रभाव और परिचय क्षेत्र के कुछ नये व्यक्तियों को इस विचार-धारा के संपर्क में ला सकने में सफल न हो सकें।

संघर्ष के लिए आत्म-शोधन तो प्रथम हैं ही। अपनी दुर्बलताओं को दूर किया ही जाना चाहिए। साथ ही सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध ही लड़ने को हमें कटिबद्ध हो जाना चाहिए। विवाहोन्माद विरोधी अभियान में हमें में से हर एक अपने बैठ से योगदान करे। अपने बच्चों के विवाह बिना दहेज और बिना जेवर के अति मादगी और मितव्ययिता के साथ कने का निश्चय करे और दूसरों को भी उसकी प्रेरणा दें। जहाँ भी अपनी सलाह की पहुँच हों सके, वहाँ ऐसी ही प्रेरणा देनी चाहिए। विवाह योग्य लड़की-लड़के तथा उनके अभिभावकों को अपनी विचारधारा से परिचित और प्रभावित करने के लिए एकाकी और मजबूत रूप से निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए। अपने समाज को दरिद्र और बेईमान बनाने में खर्चीले विवाह ही प्रधान कारण है। यदि विवाहोन्माद का असुर मर जाय तो अपना समाज देखते-देखते सुखी-समृद्ध और सद्भावना सम्पन्न हो सकता हैं। उस मोर्चे से हम युग परिवर्तन की विचार-क्राँति आरंभ करें और उसे क्रमशः इतना व्यापक बना दें कि एक भी नैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनैतिक दुष्टता को जीवित रहना और साँस लेना असम्भव हो जाय।

हम अपनी तपश्चर्या की तैयारी सजाने और भावी जीवन की रूप-रेखा बनाने में संलग्न हैं। प्रिय परिजनों को अपने उपरोक्त दो उत्तरदायित्व सँभालने के लिए तत्पर होना चाहिए। जब तक हम जीवित हैं, यह बताते रहेंगे कि क्या कर रहें हैं, साथ ही आप सबसे भी यह पूछने रहेंगे कि सौंपे हुए दो उत्तरदायित्वों का किस हद तक पालन किया जाय?


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