प्रेममय परमेश्वर

December 1969

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मुझे शक्ति दो सर्वशक्तिमान्! यह संसार शक्तिशाली को पूजता और प्यार करता हैं, मुझे लोग प्रेम करें इसलिये मैंने शक्ति माँगी। वह सब कुछ मुझे दो जिससे संसार में मेरी महत्ता बनी रहे सर्वेश! यह संसार महत्ता को गले लगाता है, इसीलिये मैंने तुझसे रहता की कामना की।

अब जब न मेरे पास धन है, न बल, सौंदर्य है न प्रभुता तब मुझे कोई अपना नहीं दिखाई देता, सर्वेश्वर! भटकता हुआ आज फिर तुम्हारे ही द्वार आ खड़ा हुआ हैं, अब मुझे धन, बल, पुत्र-कलत्र पद-प्रतिष्ठा कुछ नहीं चाहिये। भक्ति चाहिये, प्रेम चाहिये, मुझे भक्ति दो, प्रेम दो प्रभुवर! मुझे शक्ति दो, शाँति दो, बस और कुछ नहीं नाथ!

तुम तो प्रेम के वश हुये द्वार-द्वार भटकते हो, प्रेमी के हाथों थोड़े से दामों में बिक जाते हो। विशुद्ध प्रेम देखकर तुम्हें अपनी प्रभुता का भी तो ज्ञान नहीं रहता। जैसे बच्चा अपनी माँ के पीछे-पीछे घूमा और दुग्धपान के लिये रोता-बिलखता है, वैसे ही तुम प्रेम के प्यासे होकर भक्त के पीछे-पीछे चल पड़ते हो। कितना निश्छल प्रेम हैं तुम्हारा, तुम प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं चाहते।

संसार में जो कुछ भी रस है, वह तुम्हीं हो। रस के उत्पादक तुम्हीं हो, उसका आनन्द लेने वाले रसिक भी तो तुम्हीं हो। संसार में जो कुछ भी रस-सौंदर्य हैं, तुम उसके पूर्ण ज्ञाता हो। किन्तु यह कैसी छलना हैं प्रभु! वही रस जब तुम्हारे लिये मेरे हृदय में जागृत हुआ, तब तुम अपने रस-रस को भूल गये। मुझे नहीं ज्ञात कि तुम मुझमें क्या देखते हो, मैं तो तुम्हारी रसिकता में खो गया हूँ।

तुम गुणों की खान हो। गुणों के ज्ञाता भी तुम्हीं हो। संसार को सद्गुण बाँटने वाले भी तुम्हीं हो। एक क्षण के लिये भी जो तुम्हारे समीप आ जाता है, श्रद्धा और भक्ति के सरोवर में डूब जाता है, ऐसा है। तुम्हारा गुणागार स्वरूप। किन्तु जब तुमने अपने भक्त में सद्गुण की एक छोटी-सी ही रेखा देखी तो ऐसा क्या था, जो तुमने उस एक गुण के लिये अपने आपको न्यौछावर कर दिया। तुम्हारा प्रेम बड़ा रहस्यमय हैं, प्रभुवर!

जब तक मैं संसार में सुख और संतोष ढूँढ़ता रहा, तब तक तुम्हें जानकर भी नहीं जान पाया। वह तो तुम्हारी ही कृपा थी, जो मेरे अन्तःकरण में श्रद्धा लगी। वैराग्य प्रस्फुटित हुआ। भक्ति उमड़ पड़ी। अपना सम्पूर्ण और सर्वस्व तुम्हारे चरणों में समर्पित करता हैं। अब तुम मेरे पास आ गये, तुम्हें पाकर अब कुछ और पाने की इच्छा शेष नहीं रही।

प्रेम के लिये प्यासे दीन-हीन मुझ में कोई रस नहीं है, जो मैं तुम्हें सादर भेंट करता। मुझमें एक गुण दी तो नहीं है, जिससे तुम्हें रिझाने का प्रयत्न करता। मुझमें दोष ही दोष भरे हैं। मुझमें दुर्गुण ही दुर्गुण भरे हैं। साँसारिकता को मैं कहाँ छोड़ पाता हूँ? बार-बार आकर्षणों में भटकता रहता हूँ पर तुमने मुझे कितना प्यार दिया। एक ही बार तो डबडबाई आँखों से श्रद्धापूर्वक तुम्हारी ओर देखा था। एक क्षण के लिये ही भक्ति का प्रकाश अन्तःकरण में प्रस्फुटित हुआ था, तब से तुम अपनी ममता मुझ पर उड़ेलते मेरे पीछे-पीछे फिर रहे हो तुम्हारी इस कृपा का, इस अनन्त अनुग्रह का मूल्य कैसे चुकाऊँ।

बहुत सरल हो तुम, बहुत भोले हो तुम, तुम्हारी उदारता अवर्णनीय हैं। कैसा मधुर स्वभाव है, तुम्हारा कि दोषी में भी गुणों का भाण्डागार देखते हो। मुझे तो तुमसे भाँति-भाँति की याचनायें हैं, पर तुमने बिना किसी इच्छा शेर आकाँक्षा के मुझे इतना प्रेम और ममत्व प्रदान किया है। यह देखकर मेरे अन्तःकरण में कब से अन्तर्द्वन्द जाम पड़ा हैं, अब मुझे संसार नीरस लगता हैं। तुम्हारे प्रेम के लिये मैं दर-दर भटकने के लिये संसार हूँ। मुझे कहीं भी से चलो। चाहे कैसी भी अवस्था में में रखो किन्तु अपने प्रेम से वंचित न करना प्रभुवर! मेरी सास अब तुम्हारे ही हाथ हैं। बड़े तूफान उठ रहे है, बड़ा विषमत्व हैं जीवन में। आधार एक मात्र तुम्हीं हो चाहे पर लगा दो, चाहे डुबा दो और अब मैं जाऊँ भी तो किसके दरवाजे जाऊँ।

जाने यह मेरी ही भावना है कि सत्य-पर मुझे ऐसा दिखाई दे रहा हैं कि तुमने मेरे लिये अपनेपन का विशेष पक्षपात किया हैं। मेरी भूलों पर दण्ड मुझे ही भुगतना चाहिये था पर तुम तो उसे निरन्तर क्षमा ही करते जा रहे हो। सारा संसार ही तो कहता हैं कि मैं दोषी हूँ, मैंने बड़े अपराध किये हैं, तुम तब भी मेरे लिये क्षमा भरा उदार पक्षपात करते ही, तुम्हारी इस ममता के लिये मुझे बार-बार जन्म लेकर तुम्हारे चरणों में पड़ा रहना पड़े तो भी मुझे स्वीकार है, तुम्हारा जैसा निर्बाध और निश्छल प्रेम और कहाँ मिलेगा।

तुमने मुझे अपना मान लिया हैं। अब मैं भी तुम्हें अधिकारपूर्वक देखता हूँ। मुझे दिन-रात तुम्हीं दिखाई देते हो, तुम्हीं मेरे जीवन के सर्वस्व, प्राणाधार और प्रियतम हो, अपने ही प्रेम-स्वरूप से मुझे इतना प्यार देने वाले प्रभु! तुम मुझसे अलग न हो जाना। मैं सदैव तुम्हारे ही प्रेम की आथित तुम्हारे ही गुण गाया कारूं।

तुम्हारे ही विश्वास के सहारे जी रहे हैं, अपने प्राणों की डोर तुम्हारे हाथों सौंपकर निश्चिन्त हो गये हैं। उत्सुक नेत्रों से तेरी लीला देखने में ही मन रम गया है। संसार कितना बड़ा हैं, इस सबमें सर्वत्र तुम्हारा प्यार ही तो छलक रहा है। समुद्र लहराता हैं, वह तुम्हारे प्यार को मस्ती है, पर्वत हरियाली की यदि में छुपे ऊपर उठते जा रहे हैं, वह तुम्हारा ही प्रेम का आकर्षण है, फूलों का सौंदर्य तुम्हारा प्रेम ही है, उनकी सुगन्ध के रूप में तुम्हारा प्रेम ही दिग्-दिगन्त में भी रहा है। सूर्य, चन्द्रमा और तारागण तुम्हारे ही प्रेम की यश गाथा गा रहे हैं। तुम तुझे दिखाई नहीं देते पर तुम्हारी यह छवियाँ मेरे नयनों में सब गई हैं। मेरा रोम-रोम तुम्हारे प्रेम की अनुभूति से पुलकित हो रहा है। कभी तो वह दिन आयेगा, जब मेरे प्रेम की पीड़ा तुम्हें उतनी दूर से खींचकर ले आयेगी। जब मेरे प्राण-पक्षी आशा के पिंजरे से मुक्त हो जायेंगे, तब तुम्हारे प्रेम के सागर में डूबकर संसार की भव-बाधाओं से भी मुक्त हो जाऊंगा।

कभी तो तुम्हारे दर्शन होने ही, इसी आशा से अब तुम्हारा नाम ले लेकर जी रहे हैं। अन्तःकरण में तुम्हारे प्रेम की पीड़ा विरह बरसात बनकर घुमड़ रही हैं अन्न-काट छा गया है। कुछ सूझता नहीं है प्रभु। तुझसे मिलने के लिये टीस, तड़पन और कसक भर गई है। अपनी कृपा की एक किरण का सहारा देते रहना प्रभु। तुम्हारा राही मध्य मार्ग में भटकने न पाये।

कृपा के सिन्धु करुणा के सागर प्रेम-धान तुम्हारी कृपा, करुणा और प्रेम ही मेरे लिये उर्वस्व है। तुम शेषमय हो, अपने अन्तःकरण में मिलाकर मुझे भी प्रेमास्पद बना दो, मुझे भी प्रेम करना सिखा दो, जिससे शुद्र वासनाओं में फिर न भटकूँ, फिर जगत् के मिथ्यात्व में विवरण न कारूं।

एक बार एक साधु ने आकर गाँधी जी से पूछा-”हम ईश्वर को पहचानते नहीं फिर उसकी सेवा किस प्रकार कर सकते हैं।” गाँधी जी ने उत्तर दिया- “ईश्वर को नहीं पहचानते तो क्या हुआ, उसकी सृष्टि को तो जानते हैं। ईश्वर की सृष्टि की सेवा ही ईश्वर की सेवा हैं।”

साधु की शंका का समाधान हुआ वह बोला- “ईश्वर की तो बहुत बड़ी सृष्टि है, इस सबकी सेवा हम एक साथ जैसे कर सकते हैं?” “ईश्वर की सृष्टि के जिस भाग से हम भली-भाँति परिचित हैं और हमारे अधिक निकट हैं, उसकी सेवा तो कर ही सकते हैं। हम सेवा कार्य अपने पड़ौसी से प्रारम्भ करें। अपने आँगन को साफ करते समय यह भी ध्यान रखें कि पड़ौसी का भी आँगन साफ रहे। यदि इतना कर लें तो वहीं बहुत हैं।” गाँधी जी ने गम्भीरतापूर्वक समझाया। साधु उससे बहुत प्रभावित हुये।


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