देव शक्तियों का केन्द्र-बिन्दु -गायत्री

December 1969

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भारतीय अध्यात्म-शास्त्र में अनेक देवी देवताओं की चर्चा हैँ। कई स्वरूप और आकार-प्रकार के देवताओं का उल्लेख हैं। कई स्वरूप और आकार-प्रकार के देवताओं का उल्लेख हैं। उनके पृथक-पृथक पूजा विधान, स्वभाव और प्रतिफल भी बताये गये हैं। इस संदर्भ में यह जान लेना आवश्यक हैं कि वे सभी एकांकी एवं अपूर्ण हैं। शरीर में अनेक अवयव होते हैं। उनके स्वरूप एवं कार्य विधान भी अलग-अलग हैं। पर वे अन्नतः हैं एक ही शरीर के अंतर्गत। उन सब पर नियन्त्रण एक मस्तिष्क ही करता है एक हृदय ही उन सब का पोषण करता है। यों देखने पर को उनकी स्वतन्त्र सता दृष्टिगोचर होती है, पर वस्तुतः उनका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। समग्र शरीर के स्वस्थ, अस्वस्थ, सबल-निर्बल, जीवित अथवा मृत होने पर उन अवयवों की भी वही गति होती है। समस्त देवता एक ही महत्व के अंतर्गत हैं।

परब्रह्म की एक-एक शक्ति को एक-एक देवता के नाम से सम्बोधित किया गया है। जिस प्रकार जिह्वा में वाणी, नेत्रों में दृष्टि, मस्तिष्क में बुद्धि, भुजाओं में बल, पैरों में गति होती है, उसी प्रकार परब्रह्म की अगणित शक्तियाँ प्रथम-प्रथम देवताओं के नाम से कही गई है। यों उन्हें सशक्त बनाने के लिए, इन पृथक अवयवों की भी तेल-मालिश आदि पृथक-प्रथम क्रियायें भी की जा सकती है, पर वास्तविकता को समझने वाले शरीर की मूल जीवनी शक्ति, अधन-क्रिया, रक्त-शुद्धता आदि पर ही ध्यान केन्द्रित करते हैं। क्योंकि जड़ को सींचे से सभी पत्तियां, डालियाँ स्वयं-में हरी रह सकती हैं।

देवताओं का पृथक-पृथक पूजन भी उपयोगी हैं, उसमें कुछ हानि नहीं, पर दूरदर्शी जड़ सींचने की तरह परब्रह्म की मूल शक्ति पर ही ध्यान केन्द्रित करते हैं और पृथक दीखने वाले सभी अवयवों को सशक्त परिपुष्ट बनाते हुए, उनके द्वारा प्राप्त हो सकने वाले लाभों से लाभान्वित होते हैं।

गायत्री परब्रह्म की मूलभूत एवं अविच्छिन्न शक्ति हैं।

ब्रह्म तत्व में गतिशीलता उसकी ब्राह्मी-शक्ति गायत्री ही उत्पन्न करती हैं। उसी से अन्य सब अंश-अवयवों को देवताओं को पोषण मिलता है। इसलिए तत्वदर्शी जगह-जगह भटकने की अपेक्षा एक ही प्रमुख आश्रय का अवलम्बन करते हैं और जो दर-दर भटकने पर मिल सकता है, उसे ही एक स्थान पर प्राप्त कर लेते हैं। अन्यान्य देवताओं की पूजा-अर्चा से जो आंशिक लाभ मिल सकते हैं, उनकी अपेक्षा अनेक गुना लाभ मूल शक्ति की उपासना का है। गायत्री मूल है। देव शक्तियाँ उसकी शाखा-उपशाखा मात्र है। वे शक्तियाँ भी अपनी समर्थता मूल-केन्द्र से ही उपलब्ध करके इस योग्य बनती है कि अपना क्रिया-कलाप विधिवत जारी रख सकें, किसी साधक को अभीष्ट वरदान दे सकें।

इस तथ्य को पुराणों तथा साधना शास्त्रों में इस प्रकार वर्णन किया गया है कि सब देवता गायत्री की उपासना एवं स्तुति करते हैं और उसी महाभण्डार से जो उपलब्ध करते हैं, उसका अनुदान अपने क्षेत्र में वितरित करते रहते हैं। इस संदर्भ में उपलब्ध अनेक विवरणों में से कुछ नीचे प्रस्तुत किये जाते हैं-

पर्ववेद सारभूता गायत्रयास्तु समर्थना। ब्रह्मदयोऽपि संध्यायाँ ताँ ध्यायन्ति जपन्ति च॥

-देवी भागवत 16।19। 25,

गायत्री उपासना वेदों का सारभूत तत्व हैं, ब्रह्म, विष्णु महेश आदि सभी देव सन्ध्या सहित गायत्री की आराधना करते हैं।

मा भयार्ता महेशाँन ब्रह्म विष्णु महेश्वराः। तिष्ठामि सततं देवा भित्याहरहमव्यया॥

सच्चिदानन्द रुपाहं ब्रहावाहं स्फुरन्प्रभम। मम नास्ति कदा निस्सदेहास्तु तिष्ठत॥

यदूपं दष्टमस्माकं युष्माभिः परमं मतम। ध्यात्वा यद्रू पममलम जपं कुरुत में मनुम॥

तदेव मंक्तलं लाभं भविष्यति महाप्रभम। इदानी ब्रह्मणो देहे विश विष्णो स्थिरो भव॥

अहो महेश दवेश ब्रहादेहे प्रवरय तु। यावत्सृष्टि कुरुष्वेशच्चेमाँ ज्ञानक्रियामयीम॥

अर्थ-देवगण। जब माता गायत्री के वियोग में करुणकन्दन करके प्रार्थना करने लगे तो माता ने उनसे कहा-’हे ब्राह्मण। हे विष्णु। हे महेश्वर। तुम लोग मुझे न देख पाकर भ्रम से पीड़ित मत होना। मैं सदा ही तुम्हारे समीप में ही संस्थित रहा करती हैं। मैं कहीं भी तुमको छोड़कर अन्यत्र नहीं जाया करती, क्योंकि मेरा स्वरूप नित्य एवं अविनाशी हैं। आप लोगों को भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि मैं ही सच्चिदानन्द स्वरूप प्रकाशयुक्त क्रांति से समन्वित ब्रह्म हूँ। मेरा नाश कभी भी नहीं होता हैं। मैं सर्वदा स्थित रहा करती हूँ- इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं हैं। आप लोगों ने जो मेरा परम निर्मल स्वरूप देखा हैं, उसी सुन्दर मेरे स्वरूप का ध्यान करके मेरे मन्त्र का भक्ति भाव से जाप किया करो। मन्त्र साक्षात मेरा ही स्वरूप तो है ही - मन्त्र (गायत्री) के जापी के पास मैं सदा विद्यमान रहती हूँ। इसी से गायत्री मन्त्र के जप से आपका परम संक्तल होगा। अब हे विष्णु। तुम ब्रह्म के देह में प्रवेश करके स्थिर रहो। हे महेश। तुम भी ब्रह्म की देह में प्रवेश करो। जब तक ईश्वर ज्ञान और क्रियामयी सृष्टि का आरम्भ नहीं करते हैं, तब तक आप लोग इनके ही देह में अपना निवास करके रहा। उस समय समस्त देवगणों को वेद जननी माता गायत्री देवी ने इस प्रकार से सान्त्वना प्रदान कर आदेश दिया तभी देवों को शान्ति हुई।

आवयोर्जगतौंच मंक्तलाय पदाम्बुजम। महामुक्ति प्रदं चैव त्वदीयमति निर्मलम॥

अदृश्यमपि योप्यं हि मातुराकार वर्जितम। कथन्तत्पूजयिष्यार्वः सर्वमंक्तलदायकम॥

भूमौ स्नानं, कल्पयस्त्र यजितुँ तत्पदाम्बुजम सर्वदा पूजयिष्यावो महामंक्तल कारणम॥

आवयोश्रौव सर्वेषाँ महामुक्ति फलाय च। तदावयो दनिवाद्याः किं करिष्यन्ति चाशुभम॥

अवश्य वै तरिष्या वो दुस्तरं त्वत्पदार्चनात।

अर्थ-एक बार ब्रह्म और विष्णु दोनों महान देवों ने सावित्री देवी का स्तवन किया था। इन दोनों देवेशों ने गायत्री देवी से कहा-’हे माता। हमारे और समस्त जगत के कल्याण के निर्मित आपके महामुक्ति प्रद, अत्यत निर्मल-अदृश्य और आकारहीन एवं गैप्य तथा परम मंक्तलदायक महान आपके चरणों की चर्चा हम किस प्रकार से करें। आप अपने चरण कमलों को पूजन के लिए पृथ्वी पर किसी स्थल की कल्पना करें। हम उसी स्थान पर एकत्रित होकर महान मंक्तल के कारणस्वरुप एवं महायुक्तिपद आपके चरण कमलों की अर्चना करेंगे। इससे हमारा, समस्त देवगणों का तथा सभी जीवों का महान मंक्तल होगा। आपके चरणों का वचन करने पर दानवादि हमारा कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकेंगे। हम आपके चरणों की पूजा परम दुस्तर दुःखों से भी निस्तार प्राप्त कर सकेंगे। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं हैं।’

अति संगुप्तभावेन ईप्सितं प्राप्यते फलम। देव दानव गन्वर्वेरन्यैरपि महामते॥

यथा न शायते कैश्वियथार्चा त्वं कुरुष्व मे। पर्वायदभयः परित्राणं कारष्यामि चते सदा॥

अर्थ- भगवती वेद जननी ने कहा-’अत्यन्त गुप्तभाव से पूजा करने पर अभीष्ट फल की प्राप्ति होती हैं। देवदानवादि अन्य सभी को पूजा करने पर फल की प्राप्ति होती है-इसमें सन्देह नहीं है। जिसको दूसरा मनुष्य न जादू सके, उसी भाँति मेरी पूजा करो। ऐसा करने पर सभी आपदाओं से मैं रक्षा करूंगी।

इत्युक्त्वा वै सुरान्वेधा निगमानादि देश है। देहयुक्तान स्थितानग्रे सुरकार्याथँ सिद्वये॥

स्तुवतु परमाँ देवी ब्रह्मविद्याँ सनातनीम। गूढांक्ती च महामायाँ सर्व कार्याथ् साधनीम॥

इस प्रकार से ब्रह्मा जी ने देवगणों को भगवती की आराधना करने का उपदेश प्रदान कर फिर वेदों को आदेश दिया था, जो उनके सामने देह धारण करके देवगण के कार्य करने की सिद्धि के लिये उपस्थित थे। ब्रह्म ने कहा-’हे निगमो। आप सब परात्परा, सनातनी, मूढ अंक्तों वाली सम्पूर्ण कार्यों को सिद्ध करने वाली महामाया ब्रह्मविद्या देवी का स्तवन करो।

नमो देवि महामाये विश्वोत्पतिकरे शिवे। निर्गुणे सर्वभूतेशि मातः शंकर कामदे॥

त्व भूमि सर्वभूतानाँ प्राणः प्राणवताँ तथा। घीः श्रीः कान्तिः क्षमा शान्तिः श्रद्धा मेधा

धृतिः स्मृतिः॥

त्वभुत्गीथेऽर्धमात्रासि गायत्री व्याहतिस्तथा। जया च विजयाधात्री लज्जा कीर्तिः स्पृहा दया॥

त्वाँसंस्तुम्वोऽम्य भुवनत्रय संविधानदक्षाँ दयारस युताँ जननी जनानाम। डवद्याँ शिवा सकललोकहिताँ वरेण्याँ वाग्वीज वासनिपुणाँ भवनाश कर्त्रीम॥

ब्रह्म हरः शौरि सहस्र नेत्र वाग्याह्रि सूर्याभुवनाधिनाथा। ते त्वत्कृताः सन्धि ततो न मुख्या माता यतस्त्वंस्थिरजंक्तमानाम॥

अर्थ-सम्पूर्ण मूर्तिमान वेदों ने ब्रह्म का आदेश पाकर देवी का स्तवन किया था। उन्होंने कहा-’हे देवि। हम सब आपको प्रणाम करते हैं। आप महामाया हैं और हे शिवे। आप इस समस्त विश्व की उत्पत्ति को करने वाली हैं। आप गुणों के विकार से रहित और समस्त भूतों की स्वामिन हैं। हे माता। आप शंकर की कामनाओं को पूर्ण करने वाली हैं। सब भूतों की आप भूमि अर्थात् आधार हैं तथा प्राणधारियों को प्राण-स्वरूपा हैं। आप ही बुद्धि, घी, कान्ति, क्षमा, शान्ति, श्रद्धा, मेधा, धृति, स्मृति हैं और आप उदगोथ अर्धमात्रा हैं। आप गायत्री हैं तथा आप ही व्याहते हैँ। आपका स्वरूप ही जया-विजया, घात्री, लज्ला, कीर्ति, स्पृडा और दया के रूप में होता हैं। हे अंबे। तीनों सुवनों के विद्या में कुशल-दयासे परिपूर्ण और समस्त प्राणियों की जननी आपकी हम सब स्तुति करते हैं। आप ही विद्या है-शिवा और सम्पूर्ण लोकों का उपकार करने वाली हैं। आप वरेण्य-वाग्वीज में निवास करने में दक्ष इस संसार के नाश करने वाली हैं। ब्रह्म, शिव, विष्णु, इन्द्र, वाणी, अग्नि और सूर्य ये सब भुवनों के अधिनाथ हैं, किन्तु इन सबको बनाने वाली आप ही हैं और इनकी मुख्यता कुछ भी नहीं हैं, क्योंकि आप इस विश्व के स्थावर और जंक्तम अर्थात् जड़-चेतन माता उत्पन्न करने वाली हैं।

एक बार देव गुरु गृहस्थातिजी ने देवसमझामें अपने शिष्य देव पुरुषों को गायत्री का महात्म्य बताते हुए कहा कि देव लोक पहुँचाने और देवत्व को स्थिर रखने का श्रेय गायत्री माता को ही प्राप्त हैं। उसी का आश्रय लेकर आत्मा को अन्धकार भरे नरकों से छूटकर सुरलोक का आनन्द प्राप्त होता हैं। पर और अपरा विद्या के रूप में भगवती के सुविस्तृत आवरण की उन्होंने चर्चा की और कहा कि आप लोगों की तरह ही जो अन्य लोग इस अवलम्बन को ग्रहण करेंगे, वे उच्च लोगों को भूमिका प्राप्त करेंगे और आत्मानन्द का सुख भोगेंगे।

दुःखस्यान्तोऽद्य युष्माँक दृश्यते नात्र संशक्तः तस्मिन शैले सदा देवी तिष्ठतीति मयाश्रुतम॥

स्तुता सम्पूजिता सद्यो वाँच्छितार्थान्प्रदास्यति। निश्चयं परमं कृत्वा गच्छध्वं वै हिमालयम॥

सुराः सर्वाणि कार्याणि सावः कामं विद्यास्यति।

अर्थ-सुरगुरु ने देवताओं से कहा-’आज मुझे तुम्हारे दुःखों का अन्त दिखलाई देता हैँ। इसमें लेख मात्र भी कोई संशय नहीं हैं। मैंने ऐसा सुना हैं कि उस परम पावन पर्वत पर वह देवी सदा निवास किया करती हैं। जब वहाँ आपके द्वारा संस्तत एवं भली-भाँति समर्चित होगी तो वह आपको अभीष्ट अवश्य ही प्रदान कर देगी। इसलिए पूर्ण और पक्का निश्चय करके आप लोग हिमालय पर देवी की समाराधना के लिये चले जाइये।

देवताओं ने सुर गुरु बृहस्पति जी के आदेशानुसार हिमालय पर जाकर भगवती की उपासना की और उसके फलस्वरूप प्राप्त अनुभवों के आधार पर अपने भाव व्यक्त करते हुए स्तवन किया-

इति तस्य वचः श्रुत्वा देवास्ते प्रययुगिंरिम। हिमालयं महाराज। देवी ध्यान परायणाः॥

माया बीजं ह्रदा नित्यं जपन्तः सर्व एवं हि। नमश्चक्रु महामायाँ भक्तानामभय प्रदाम॥

तुष्टुकुः स्तोत्रमंत्रैश्च भक्तया परमयायुताः।

अर्थ-इस प्रकार का उनका वचन सुन कर वे समस्त देवगण गिरिराज हिमालय पर चले गये। हे

महाराज। वहाँ पर सब देवता देवी के ध्यान में तत्पर हो गये और माया बीज का हृदय में ध्यान करके मन्त्र का जाप करने लगे। अपने परम भक्तों को अभय प्रदान करने वाली महामाया को नमस्कार किया तथा अत्यन्त भक्ति की भावना से संयुक्त होकर स्तोत्रों और मन्त्रों के द्वारा उसका स्तवन किया।

ते किं न मन्दमतयो यतयो विमूढास्त्वाँ ये न विश्व-जननीं समुपाश्रयन्ति। विद्याँपरा सकल काम फलप्रदाँ ताँ मुक्ति प्रदाँ विबुधवृन्द सुविन्द लाडिध्रम।

अर्थ-देवों ने स्तुति की-’ हे देवि। ये यतिगण मन्द बुद्धि वाले ही हैं और महामूढ़ हैं, जो समस्त विश्व की जननकी आपका आश्य नहीं लेते हैं। आप तो परा विद्या हैं, सब कामनाओं को पूर्ण करने वाली-मोक्ष प्रदान करने वाली हैं। सब देवगण आपके चरणों की वन्दना करते हैं।’

देवि। त्वदंिक्तभजने न जवा रताये संसार कूप पलिताः पतिताः किलामी। ते कुष्ठ गुल्म शिर आधियुक्ता भवंति दारिद्रय दैन्य सहिता रहिता सुखौद्यैः॥ ये काष्ठभार बहने यवसावहारे कार्थ्ये भवन्ति निपुणा धनदारहीनाः जानीमहेऽपमतिभिभेवदधि सेवा पूर्वे भवे जननि। तैने कृता कदापि॥ किमत्रास्ति चित्रं यदम्बासुतें स्वं मुदा पालयेत्पोषयेत्स्तप्यगेव। यतस्त्वं जनित्री सुराणाँसहाया कुरुष्वैक चिन्तेन कार्य समग्रम। ननाते गुणानामियताँ स्वरुपं वयं देवि। जानीमहे विश्ववन्धे। कृपामा त्रमित्येव मत्वा तथास्माँन् भेयभ्यः सदा पाहिपाँतु समर्थे॥

अर्थ- देवगण ने प्रार्थना की हे देवि। जो मनुष्य इस संसार में आकर आपके चरणों का सेवन करने में रति नहीं रखते हैं, वे निश्चय ही इस संसार रूपी कूप में गिरे हुए महान् पतित हैं। ऐसे पुरुष सदा कुष्ठ-गुल्म और मस्तक की आधि से युक्त रहा करते हैं और सर्वदा दरिद्रता-दीनता आदि से घिरे हुए रहकर सुखों के सागर से वंचित ही रहा करते हैँ। जो काष्ठ के भार बहन करने और भवसागर के कार्य में निपुण होते हैं, वे धन और दारा से हीन हुआ करते हैं। हम ऐसा समझते हैं, उन अल्पमति वालों ने है जननि। अपने जन्म में आपके चरणों का आश्रय नहीं लिया हैं। इसमें कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं हैं कि माता अपने पुत्र पर प्रेम कर उसका पोषण एवं पालन करती हैं। आप तो देवों की जननी हैं और सदा सहायता करने वाली रही हैं। देवगणों का सभी कार्य आप एक चितता के साथ किया करती हैं। हे देवि। आपके इतने अनन्य शुभ गुण हैं कि उनकी गणना नहीं की जा सकती हैं और हे विश्व के द्वारा वन्दना करने के योग्य माँ। हम लोग आपके पूर्ण स्वरूप का भी ज्ञान नहीं रखते हैं। हम तो केवल अपने आपको आपकी कृपा का पात्र ही समझते हैं। आप रक्षा करने में पूर्ण समर्थ हैं। अतएव सब प्रकार के भागों से सर्वदा हमारा धारण करती रहें-यही हम समस्त देवगणों का आपके श्री चरणों की सेवा में एकमात्र विनम्र निवेदन हैं।

जलादि सकलं तत्वं ब्रह्मण्डादिक विस्तरम। देवादि सकलं पूर्ण दिग्विदिक च चराचरम॥

कार्थ्य च कारणं सर्व तथो विष्णोंः समुदभवः। सर्प जानाति हि ब्रह्म मत्कृत मायया पुनः।

किन्तु सर्व हि मिथ्यैव मातुर्माया हि केवलम। ताँ मायाँ कि भजन्ति ये तत्पंर यान्ति ते नराः॥ तुष्टा सा परमा माया मुक्ति मात्रं प्रयच्छति॥ रुष्टा सा परमा माया भूमियोगं प्रयच्छति॥

तस्याः पदास्तु जे नूनं वश्या मुक्तिः समाग्रिता। यस्य तुष्टा महादेवी मम माता महेश्वरी॥ ददौ तस्मै च त्वं मुक्ति महामाया देवेश्वरी॥

अर्थ-सर्व जल प्रभूति तत्व और ब्रह्मांड आदि समस्त विस्तार-सम्पूर्ण देवगण आदि एवं चराचर तथा कार्य कारण तथा विष्णु की उत्पत्ति यह सभी कौशल ब्रह्म को माता गायत्री कहती हैं कि मेरी माया से ही अब गत हुआ हैं। किन्तु यह सभी मिथ्या हैं, केवल गायत्री माता की माया का ज्ञान ही प्राप्त करना चाहिये। जो मनुष्य उसकी माया महिमा को भजता हैं, वह साँसारिक माया को पार कर लेता है अर्थात् उसका सर्वतोभाव से परम कल्याण होता हैं। यदि वह मातेश्वरी परम तुष्ट हो जाती है तो निस्सन्देह मुक्ति प्रदान किया करती हैं। यदि वह रुष्ट होती है तो फिर योनि योग प्रदान करती हैं। उसके चरण कमलों में मुक्ति वश्या होकर आश्रय किया करती हैं। वह माता गायत्री देवी जिस पर सन्तुष्ट होती है। उसी को प्राप्त होती हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118