प्रतिशोध कथा

December 1969

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आज भगवती कात्यायनी का मन्दिर इस तरह सजा था, जैसे नव-वधू श्रृंगार करके ससुराल जाती है। युवराज श्रादित्य सेच दर्शनार्थ आने वाले थे, उन्हें के लिये यह साज-सज्जा की गई थी। दूर से आती हुई गज-घण्टा ध्वनि क्रमशः समीप होती आ रही थी। देव-भवन के सभी परिवार सन्नद्ध खड़े हो गये।

आदित्य सेन मन्दिर के सामने आकर रुके। चरण पादुकार्षे उन्होंने द्वारपाल चित्रक के संरक्षण में छोड़ी और स्वयं देवी के दर्शनों के लिये मन्दिर में प्रवेश कर गये। चित्रक ने देखा युवराज की रेशम मढ़ी हुई पादुकाओं ने लोस कणों के साथ कुछ धूल कण भी आ गये हैं, सो उसने उन्हें उठाकर अपने उत्तरीय वस्त्र (भिगोये) से पोंछ देने का यत्न किया। द्वारपाल का वस्त्र मैला था, उससे पादुकायें और नन्दी हो गई।

युवराज दर्शन करके बाहर लौटे। पादुकाओं की और देखा तो भौंहें तन गई। कड़ककर पूछा-”किसने मैली की है यह पादुकायें?” चित्रक भयभीत हो उठा, बोला-”क्षमा करें महाराज यह भूल।” वाक्य जब तक पूरा हो, चित्रक के कपाल पर उसी पादुका का तीव्र प्रहार हुआ। मस्तक फट गया, रक्त बहने लगा। आदित्य सेन को थोड़ी-सी भूल भी सहन न हुई। युवराज राजभवन चले गये और चित्रक-अपमानित चित्रक प्रतिशोध की ज्वाला में जनता हुआ अपने घर पहुँचा।

कई दिन तक उसने न अन्न लिया, न जल। वह किसी प्रकार युवराज आदित्य सेन से प्रतिकार लेना चाहता था। सप्ताहों वह इसी प्रतिशोध की ज्वाला में जलता रहा। चित्रक की पत्नी कुशला ने समझाया-”स्वामी! प्रतिशोध की भावना अग्नि की तरह है, वह जहाँ भी रहती है, जलाती और शक्ति नष्ट करती है। यदि आपको युवराज से बदला ही लेना है तो उसका उपयुक्त मार्ग में बताती है, उठिये और वह मलिनता परित्याग कर स्वस्थ हो गये।”

चित्रक उठे। स्नान किया, भोजन किया। स्वच्छ वस्त्र धारण कर बैठक में आये। कुशला वहाँ पहले से उपस्थित थी। उसने पहले ही प्रबन्ध कर रखा था। चित्रक को विद्याध्ययन के लिये वारणसकी भेज दिया।

भगवान विश्वनाथ के चरणों की छाया में बैठकर चित्रक ने दस वर्ष तक कठोर विद्याध्ययन किया। जड़ तक वह पुनः वाराणसी से लौटें, तब तक उनके पीडित्य की ख्याति सारे देश में फैल गई थी। चित्रक वह आचार्य चित्रक बन गये थे।

युवराज आदित्य सेन भी बड़ महाराज आदित्य सेज हो गये थे। इन दिनों राजमाता अस्वस्थ थीं। आँखों के सारे उपचार निरर्थक हो गये थे, सो उनके उपचार के लिये यज्ञ आयोजित किया गया। उनका ब्रह्मा चित्रक को नियुक्त किया गया।

उन दिनों आचार्य को लोग महाराभावों के अधिक सम्मान देते थे। चित्रक चाहते तो आदित्य सेन से बदला से सकते थे। पर ऐसा करने की अपेक्षा उन्होंने आदित्य सेन की वह पुरानी चरण-पादुकायें माँग लीं और प्रतिदिन उनकी पूजा करने लगे। एक दिन आदित्य सेन ने पूछा-”आचार्य प्रवर! पुरानी पादुकायें भी कोई पूजा की ग्रस्त है, फिर मैं आपका गुड़ भी तो नहीं है, उन पाडुकार्यों से आपका लगाव समझ में नहीं आया।”

चित्रक ने कहा-”महाराज! इनकी कृपा से ही जाज मैं इस पद पर विभूषित हुआ हूँ।” आपने एक दिन यही पादुकायें मेरे सिर पर जारी थीं। मैं प्रतिशोध से जल उठा था। सम्भव था आवेश में मुझसे कोई अपराध हो जाता। मेरी धर्मपत्नी ने प्रतिशोध के लिये मुझे वाराणसी भेजा, उसी का फल है आपका द्वारपाल आज इस यज्ञ का ब्रह्मा है। इस विलक्षण प्रतिशोध से आदित्य सेन पराभूत हो उठे। उन्होंने चित्रक का बड़ा सम्मान किया और उन्हें राजपुरोहित कर पद प्रदान किया।


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