जीवन-मुक्ति की साधना

December 1969

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बहुत समय तक राज्य-सुखों का उपभोग करते रहने के बाद रघुवंश-शिरोमणि राजा इक्ष्वाकु का मन संसार से हटने लगा। उन्हें लगा कि सुख पदार्थों में नहीं वरन् वह मन की एक शक्ति है, जब मन और इन्द्रियाँ अशक्त हो जाती है तो वही वस्तुयें जो पहले सुखद लगती थी, बोझ बन जाती है, उनमें कुछ रस शेष नहीं रहना। मृत्यु की चिन्ता ने उन्हें और भी आहत किया। इसलिये एक दिन वे गुरु वशिष्ठ के पास जाकर बोले- “भगवन्! अब तक अनात्म कर्मों से घिरा मैं इक्ष्वाकु आत्म-कल्याण की इच्छा से समित्पाणि उपस्थित हुआ हैं, मुझे उपदेश दीजिये, क्या करना चाहिये।”

इक्ष्वाँकु की श्रद्धा से प्रसन्न गुरु वशिष्ठ ने समझाया- “तप से ही आत्मोत्कर्ष और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।”

इक्ष्वाकु ने तप प्रारम्भ किया। उन्होंने भगवान् मनु की उपासना की। मनु इक्ष्वाकु की श्रद्धा से द्रवीभूत होकर उनके पास आये और पूछा- “राजन्! कहो मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूँ?” इक्ष्वाकु ने भगवान् मनु को सादर प्रणाम करते हुए निवेदन किया-”प्रभु! आत्म-कल्याण की इच्छा से मैंने गुरु वशिष्ठ से दीक्षा ली, उन्होंने मुझे तप करने की प्रेरणा दी। मैंने उपासना तो प्रारम्भ कर दी पर तप का स्वरूप अभी तक मेरी समझ में नहीं आया।”

मनु बोले- “स्वाध्याय-सत्संग।” और यह कहकर के अन्तर्धान हो गये। इक्ष्वाकु घर लौटे और शास्त्रों, उपनिषदों से लेकर महापुरुषों के उपसानों का संकलन किया और उनके स्वाध्याय में जुट गये। स्वाध्याय से उनको विश्व-प्रपंच और विश्व के अनेक सूक्ष्म रहस्यों का पता चला। कई बार ऐसे विलक्षण प्रश्न के अनेक सूक्ष्म रहस्यों का पता चला। कई बार ऐसे विलक्षण प्रश्न उठते जिनका समाधान स्वाध्याय से नहीं हो पाता था, फलस्वरूप इक्ष्वाकु ने धर्म समाये आयोजित करनी प्रारम्भ की। उन सभाओं में विद्वान-पुरुषों को आमन्त्रित किया जाता। राजा स्वयं श्रद्धा-भाव से उनकी सेवा करते और उनके सत्संग का लाभ प्राप्त करते, उससे उनके मन की पवित्रता बढ़ अवश्य पर भीतर ही भीतर से क्षुब्ध भी कम न थे, क्योंकि उससे उनको मुक्ति का मार्ग न मिला। इस तरह एक वर्ष पूरा हो गया।

नवरात्र उन्होंने फिर बन में बिताये। भगवती का अनुष्ठान इक्ष्वाकु पीछे करते सर्वप्रथम भगवान् मनु का आवाहन अवश्य करते। अन्तिम दिन भगवान् मनु पुनः प्रकट हुए और बोले-”विचारणा।” बम इतना कहकर वे पुनः अदृश्य हो गये। इक्ष्वाकु फिर पर लौटे और विचार करना प्रारम्भ कर दिया। अभी तक उन्होंने स्वाध्याय और सत्संग से सीखा और ज्ञान तो बहुत प्राप्त किया था पर वह ऐसा ही था, जैसे कोई रोटी के सम्बन्ध में ज्ञान तो बहुत रखे पर उसे खाये बिना ही शक्ति प्राप्त करने की बात सोवे। इक्ष्वाकु उस ज्ञान को विचार और व्यावहारिक जीवन में स्थान नहीं दे पावे थे, इसलिये उससे अब तक उन्हें कोई लाभ न मिला था। पर जब उस प्राप्त ज्ञान का विचार और आचरण में अभ्यास करना प्रारम्भ किया तो उनकी मानसिक प्रसन्नता भी बढ़ी और शक्तियों का विकास भी। आचरण की कसौटी पर इक्ष्वाकु का जीवन धीरे-धीरे निखरने लगा। इस तरह एक वर्ष और बीत गया पर मुक्ति का आनन्द इक्ष्वाकु तब भी न से सके।

इक्ष्वाकु ने पुनः भगवान् मनु की शरण ली। भगवान मनु प्रकट तो हुए पर एक क्षण रुके बिना केवल ‘असंभव’ कहकर पुनः विलीन हो गये। इक्ष्वाकु घर लौटे घर की व्यवस्था से राज्य-काज तक पहले भी निबटाते थे, उसमें कुछ भूलें होती थीं, कई आकर्थन आते थे। उन सभी विषयों में ‘मैं कर्त्ता हूँ’ ऐसा भाव होने के कारण उसके अच्छे-बुरे परिणाम से भी वे जुड़ जाते थे। इसलिये दुःख, चिन्ता और उद्विग्नतायें घेरे रहती थीं पर अब उन्होंने देखा-अपना किया कुछ नहीं, मन में विचार और प्रेरणायें भी कोई और ही भरता है। इक्ष्वाकु अब भी सब काम करते थे पर असंग भाव के समावेश से पूर्ण अनासक्त भाव से करते थे। किसी कर्म में उन्होंने कामनाओं को नहीं थोड़ा। न्याय, विवेक, सत्य की प्रतिष्ठा के लिए वह सभी काम करते थे, इससे पहले वाला, विषयों में आसक्त रहने वाला मन अनेक चिन्ताओं और उद्विग्नताओं आदि से मुक्त हो चला। कठोर से कठोर दंड देते हुए भी वे उतने ही निस्पृह रहते जितना बड़े से बड़ा धार्मिक आयोजन करते समय।

इतना करते हुए भी मन की वासनायें शान्त नहीं की था सकीं। अपनी इच्छायें प्रायः जुड़ जाने से इक्ष्वाकु दीनता और आत्म-दौर्बल्य अनुभव करते। जब तक अशक्तिही मनुष्य परमानन्द की प्राप्ति भी कैसे कर सकता है। सो वह पुनः योग-पीठ पहुंचे और भगवान् को कातर स्वरों से जा पुकारा।

साधना मार्ग पर उत्तरोत्तर अग्रसर होते हुए इक्ष्वाकु के मन की बात जानने वाले मनु ने शिष्य के शीश पर हाथ फेरा और कहा- ‘विलापिनी’ अर्थात्- “वासनाओं का परित्याग कर।” इक्ष्वाकु ने अब अपनी इन्द्रियों पर कठोर प्रतिबन्ध लगाकर उन्हें वशवर्ती बनाना प्रारम्भ कर दिया। अस्वाद व्रत से जिह्वा पर विजय प्राप्त ही, उससे कामेन्द्रिय पर सहज ही नियन्त्रण हो गया। यह दो हो इन्द्रियाँ सशक्त थीं, उनके नियन्त्रण में आते ही इक्ष्वाकु का मन ईश्वरीयभूत होने लगा। वे घण्टों तन्मयतापूर्वक ब्राह्मी स्थिति में बैठे विचार-समाधि’ में विचरण करने लगे। उस अवस्था में कई बार गतिरोध उत्पन्न होता। इक्ष्वाकु आनन्द के स्वरूप को समझने लगे तो एक दिन भगवान् मनु स्वयं प्रकट हुए। इक्ष्वाकु ने उन्हें प्रणाम कर पूछा- “भगवान्! शिष्य के द्वार आपका आना मंगलकारक है, सेवा का निर्देश दें?”

मनु बोले-’तात्! मोक्ष की इच्छा वाले प्रत्येक साधक को लक्ष्य तक पहुँचाना मेरा धर्म हैं, तूने भगवान् की शरण ली है ता मेरा कुशन क्षेम भी उन्हें ही वहन करना था, मैं उन्हीं की प्रेरणा से तुझे यह बताने आया हूँ कि तू केवल प्रेम का अभ्यास कर उससे तेरी आनन्द रूपा स्थिति परिपक्व होगा।” यह कहकर मनु अपने लोक को चले गये।

इक्ष्वाकु ने सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणियों को एक ही चेतना के विभिन्न रूप मानकर उनसे प्रेम भावनाओं का विकास प्रारम्भ किया। सारे संसार को वे अपना स्वरूप देखने और सबसे प्रेम करने लगे, उससे उन्हें शुष्क और नीरस, अनुपयोगी और तुच्छ वस्तुओं में भी आनन्द की झलक मिलने लगी। पाँचवीं भूमिका इक्ष्वाकु ने प्रेम भावनाओं के विकास द्वारा पार की। अब वे जीवनमुक्त अवस्था में सर्वत्र विचरण करने लगे।

घूमते हुये इक्ष्वाकु की आत्मा मनु लोक में जा पहुँची। लोग उनके जागृत शरीर को पृथ्वी में देखते वे पर इक्ष्वाकु की आत्मा स्वप्नावस्था के समान कहीं और थी। भगवान् मनु ने उनका स्वागत करते हुए, छठी भूमिका- “स्वयं-संवेदन रूपा” स्थिति पर पदार्पण कर आदेश दिया। तब इक्ष्वाकुने अनुभव किया, यह जो संसार है, यह सब ब्रह्म तत्त्व से ही प्रकट हुआ। ब्रह्म ही अपने भीतर से अनेक प्रकार की

निश्चयहीन मनुष्य के लिये यह कभी नहीं कहा जा सकता कि वह खुद अपना स्वामी है। वह समुद्र की एक लहर की तरह है या उड़ते हुए पंख की तरह जिसे हर झोंका इधर से उधर उड़ा देता हैं। -जोने फास्टर,

सृष्टि पैदा करता हैं। उन्होंने अपने ‘अहं’ भाव को सच्चिदानन्द स्थिति में विकसित कर छटवों भूमिका भी पार कर ली। अब उनकी चिर-जागृत अवस्था थी। स्वप्न और जागृत अवस्था में कोई अन्तर न था। वे आत्मा में आत्मा की अनेक सृष्टियों को बनाने, बिगाड़ने का आनन्द लेने लगे।

अब तक शरीर में रहते हुए उन्होंने सब अनुभव किया था पर ब्रह्म तो अशरीरी, अजन्मा, अव्यक्त, अनाम, अरूप है, उसे उसी रूप में ही पाया जा सकता हैं। इसलिये एक दिन इक्ष्वाकु ने अपने जर्जर तन का परित्याग किया और ‘परिप्रौढ़ा’ अवस्था को प्राप्त कर ब्रह्म-लोक को चले गये।


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