कुंडलिनी महाशक्ति की पौराणिक व्याख्या

December 1969

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कुण्डलिनी महाशक्ति को तन्त्र-शास्त्रों में द्विमुखी मर्णिणी कहा गया हैं। उसका एक मुख मल-मूत्र इन्द्रियों के मध्य मूलाधार चक्र में हैं। दूसरा मुख मस्तिष्क के मध्य ब्रह्म रन्ध्र हैं। पृथ्वी के उतरी दक्षिणी ध्रुवों में सन्निहित महान शक्तियों का परस्पर आदान-प्रदान निरन्तर होता रहता हैं, इसी में इस पृथ्वी का सारा क्रिया-कलाप यथ क्रम चल रहा हैं। इसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति के ऊपर और नीचे के-जननेन्द्रिय और मस्तिष्क अद्यःऊर्ध्व केंद्रों की शक्तियों का निरन्तर आदान-प्रदान होता रहता हैं। यह सवार किया मेरु-दण्ड के माध्यम से होती हैं। रीड़ की हड्डी इन दोनों केन्द्रों को परस्पर मिलाने का काम करती हैं। वस्तुतः स्थूल कुण्डलिनी का महासर्पिणी स्वरूप मूलाधार से लेकर मेरु-दण्ड समेत ब्रह्म-रन्ध्र तक फले हुए सर्पाकृति कलेवर में ही पूरी तरह देखी जा सकती है। ऊपर नीचे मुड़े हुए दो महान शक्तिशाली केन्द्र चक्र ही उसके आगे-पीछे वाले दो मुख हैं।

मेरु-दंड पीला हैं, उसके भीतर जो कुछ हैं, उसकी चर्चा शरीर शास्त्र के स्थूल प्रत्यक्ष दर्शन के आधार पर दूसरे दंक्त से की जा सकती हैं। शल्य-क्रिया द्वारा जो देखा जा सकता हैं, वह रचना क्रम दूसरा हैं। हमें सूक्ष्म प्रक्रिया के अंतर्गत योग-शास्त्र की दृष्टि से इस परिधि में सन्निहित दिव्य शक्तियों की चर्चा करनी हैं। योग-शास्त्र के अनुसार मेरु-दंड में एक ब्रह्म-नाड़ी हैं और उसके अंतर्गत पड़ा और मिला दो अंतर्गत शिरायें गतिशील हैं। यह नाड़ियां रक्त वाहिनी शिरायें नहीं समझी जानी चाहियें। वस्तुतः वे विद्युत धारायें हैं। जैसे बिजली के तार में ऊपर एक रबड़ का खोल चढ़ा होता हैं और उसके भीतर जस्ते तथा ताँबे का ठंडा-गरम तार रहता हैं, उसी प्रकार इन नाडियों की समझा जाना चाहिये। ब्रह्म-नाड़ी रबड़ का खोल हुआ, उसके भीतर पड़ा और पिंगला ठंडे-गरम तारों की तरह हैं। इनका स्थूल कलेवर या अस्तित्व नहीं हैं। शल्य-क्रिया द्वारा वह नाड़ियां नहीं देखी जा सकतीं। इस रचना क्रम के सूक्ष्म विद्युत धाराओं की दिव्य रचना ही कहना चाहिये।

मस्तिष्क के भीतरी भाग यों अतिशय ‘कोष्ठकों’ के अंतर्गत भरा हुआ सजा भाग ही देखन को मिलेगा। दुर्बीन से और कुछ देखा नहीं जा सकता पर सभी जानते हैं, उस दिव्य संस्थान के नगण्य से दीखने वाले घटकों के अंतर्गत विलक्षण शक्तियों भरी पड़ी हैं। मनुष्य का सारा व्यक्तित्व, सारा चिन्तन, सारा क्रिया-कलाप और सारा शारीरिक, मानसिक अस्तित्व इन घटकों के ऊपर ही अवलम्बित रहता हैं। देखने में सभी का मस्तिष्क लगभग एक जैसा दीखेगा पर उसकी सूक्ष्म स्थिति में पृथ्वी, आकाश जैसा कि अन्तर दीखता हैं, उसके आधार पर व्यक्तियों का घटिया-बढ़िया होना सहज ही आँका जा सकता हैं। यही सूक्ष्मता कुण्डलिनी के सम्बन्ध में व्यक्त की जा सकती हैं। मूलाधार, सहस्रार, ब्रह्म-नाड़ी, इड़ा, मिला इन्हें शल्य क्रिया द्वारा नहीं देखा जा सकता। यह सारी विश्वरचना ऐसी सूक्ष्म हैं, जो देखी तो नहीं जा सकती पर उसका अस्तित्व प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता हैं।

मूलाधार में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति के अधो मणि की कुछ चर्चा पिछले अंक में की जा चुकी हैं। मल द्वारा और जननेन्द्रिय के बीच जो लगभग चार अंगुल जगह खाली पड़ी हैं, उसी के गहर में एक त्रिकोण परमाणु पाया जाता हैं। सारे शरीर में गोल कण हैं, वह एक ही तिकोना हैं। यहाँ एक प्रकार का शक्ति-भ्रमर हैँ। शरीर में प्रवाहित होने वाली तथा मशीनों में संचारित बिजली की गति का क्रम यह हैं कि वह आगे बहती हैं, फिर तनिक पीछे हटती है और फिर उसी क्रम से आगे बढ़ती, पीछे हटती हुई अपनी अभीष्ट दिशा में दौड़ती चली जाती हैं। किन्तु मूलाधार स्थित त्रिकोण कण के शक्ति मेबर में सन्निहित बिजली गोल घेरे में पेड़ से लिपटी हुई बेल की तरह जूमती हुई संचारित होती हैं। यह संचार क्रम प्रायः 3॥ लपेटों का हैं। आगे चलकर यह विद्युत धारा इस विलक्षण गति को छोड़कर सामान्य रीति से प्रवाहित होने लगती हैं।

यह प्रवाह निरन्तर मेरु दंड में होकर मस्तिष्क के उस मध्य-बिन्दु तक दौड़ता रहता हैं, जिसे ब्रह्म-रन्ध्र सा सहस्रार कमल कहते हैं। इस शक्ति-केन्द्र का मध्य अणु भी शरीर के अन्य अणुओं से भिन्न रचना का हैं। वह गल न होकर चपटा हैं। उसके किनारे चिकने न होकर खुरदरे हैं-भारी के दाँतों से उस खुरदरेपन की तुलना की जा सकती हैं, योगियों का कहना हैं कि उन दांतों की संख्या एक हजार हैं। अलंकारिक दृष्टि से इसे एक ऐसे कमल पुष्प की तरह चित्रित किया जाता हैं, जिसमें हजार पंखुड़ियां खिली हुई हों। इस अलंकार के आधार पर ही इस अणु का नामकरण ‘सहस्रार कमल’ किया गया हैं।

सहस्रार कमल का पौराणिक वरदान बहुत ही मनोरम एवं सारगन्ति हैं। कहा गया है कि क्षीरसागर में विष्णु भगवान सहस्त्र फन वाले शेषनाग पर शयन कर रहे हैं। उनके हाथ में शंख, चक्र, गंदा, पद्य हैं। लक्ष्मी उनके पैर दाबती हैं। कुछ पार्षद उनके पास खड़े हैं। क्षीरसागर मस्तिष्क में भरा हुआ, भूरा चिकना पदार्थ पैमेटर हैं। हजार फन वाला सर्प यह चपटा खुरदरा ब्रह्म-रन्ध्र स्थित विशेष परमाणु हैं। मनुष्य शरीर में अवस्थित ब्रह्म-सता का केन्द्र यही हैं। इसी से यहाँ विष्णु भगवान का निवास बताया गया हैं। यह विष्णु सोते रहते हैं। अर्थात् सर्वसाधारण में होता तो ईश्वर का अंश समान रूप से हैं पर वह जागृत स्थित में नहीं देखा जाता। आमतौर से लोग धृरिगत, हेय, पशु-प्रवृत्तियों जैसा निम्न-स्तर का जीवन यापन करते हैं। उसे देखते हुए लगता हैं कि इनके भीतर या तो ईश्वर हैं ही नहीं-अथवा यदि हैं तो वह प्रसुप्त स्थित में पड़ा हैं। जिसका ईश्वर जागृत होगा उसकी विचारणा, क्रियाशीलता, आकाँक्षा एवं स्थित उत्कृष्ट स्तर की दिखाई देगी। यह प्रबुद्ध और प्रकाशवान् जीवन जी रहा हैं, अपने प्रकाश में स्वयं ही प्रकाशवान् न हो रहा होगा वरन् दूसरों को भी मार्ग-दर्शन कर सकने में समर्थ हो रहा होगा। मानव तत्व की विभूतियाँ जिसमें परिलक्षित न हो रही हैं, जो शोक-संताप, दैन्य दारिद्र और चिन्ता-निराशा का नारकीय जीवन जी रहा हो, उसके बारे में यह कैसे कहा जाय कि उसमें भगवान् विराजमान हैं। फिर यह भी तो नहीं कहा जा सकता कि उसमें ईश्वर नहीं हैं। हर जीव ईश्वर का अंश है और उसके भीतर ब्रह्म-सता का अस्तित्व विद्यमान भी हैं।

इस विसंगति की संगति मिलाने के लिए यही कहा जा सकता है कि उसमें भगवान है तो पर सीधा पड़ा है। क्षीर जैसे उज्ज्वल विचारणाओं के सागर में भगवान निवास करते हैं। क्षीरसागर हो उनका लोक हैं। जिस मस्तिष्क में क्षीर जैसे धवल स्वच्छ, उज्ज्वल प्रवृत्तियां, मनोवृत्तियां भरी पड़ी हो समझना चाहिए कि उसका अंतरंग क्षीर-सागर हैं और उसे भगवान का लोक ही माना जायेगा। क्षीरसागर में सहस्र फन वाले शेषनाग पर विष्णु भगवान के शयन करते रहने का यही पौराणिक रहस्य हैं।

विष्णु के हाथ चार आयुध। शंख अर्थात् ध्वनि, वाक शक्ति, दूसरों को जगाने-उठाने एवं प्रभावित करने की क्षमता। चक्र अर्थात् गतिशीलता, क्रिया, स्थिति के अनुरूप परिवर्तन कर सकने की शक्ति। गदा अर्थात् प्रताड़ना, अवाँछनीय, अनुपयुक्त परिस्थितियों को दबाने-मिटाने एवं सुधारने की सामर्थ्य। पद्य अर्थात् सौंदर्य, शोभा, सुगन्ध, मधुरता, सौम्यता, सज्जनता सहृदयता, उदारता, संयमशीलता आदि सद्गुणों का बाहुल्य। विष्णु भगवान् के चार हाथों में यह चार आयुध हैं। भगवान् अपने साथ यह विशेषतायें धारण किये हैं। जिनका भगवान् जागृत, सक्रिय होगा, उनमें उपरोक्त चारों विशेषतायें भी प्रत्यक्ष परिलक्षित होंगी। लक्ष्मी विष्णु की पत्नी हैं। जहाँ भगवान् रहेगा, वहाँ विभूतियाँ, सिद्धियां, विशेषतायें, सफलतायें, सद्भावनायें प्रचुर परिमात्र में दृष्टिगोचर होंगी। लक्ष्मी अर्थात् विभूति। वह विष्णु की पत्नी हैं। महापुरुषों के पास महान् विभूतियाँ भी प्रस्तुत रहती हैं। दरिद्रता तो दुर्जनों के हिस्से आई हैं, सज्जन अपरिग्रही हो सकते हैं, यह उनकी स्वेच्छा, सुविधा एवं अमीरी हैं। वैसे कोई अभाव उनके ऊपर थोपा हुआ नहीं होता।

नारद हयग्रीव आदि दूसरे पार्षदों की उपस्थिति का आधार यह है कि विष्णु और लक्ष्मी के साथ-साथ अनेक दैवी शक्तियाँ भी सहायता के लिए उपस्थित रहती हैं। सात्विक शक्तियों के ज्ञान-विज्ञान और वर्चस्व के प्रतीक नारद माने जाते हैं। और बल, पराक्रम, पुरुषार्थ, वैभव, साहस एवं सकाम महता के प्रतिनिधि हयग्रीव हैं। सतोगुण का बाहुल्य और रजोगुण का मात्रिध्य सदा विध्रणु और लक्ष्मी की उपस्थिति के साथ जुड़ा रहेगा। जो ईश्वर भक्त, आस्तिक एवं आत्म-दर्शी हैं, उसे विष्णु लक्ष्मी, पार्षद, क्षीर -सागर शेषनाग जैसी दिव्य सत्ताओं को अपने अंतरंग में प्रतिष्ठित देखने का अवसर मिलेगा। उसके प्रबुद्ध मस्तिष्क में उपरोक्त सारी विशेषतायें विद्यमान रहेगी। उसका व्यक्तित्व प्रकाशमान अनुकरणीय एवं ऐतिहासिक चिर-स्मरणीय बनकर रहेगा। उसकी उत्कृष्ट विचारधारणा एवं आदर्श क्रियाशीलता उसे नर-पशु के स्तर से निकालकर नर-नारायण की तरह पूजा बनाकर रहेगी।

कुण्डलिनी के ऊर्ध्व मुख ब्रह्म-रंध्र स्थित सहस्रार कमल के आधार पर शेषशायी विष्णु को अलंकारिक गाथा का रहस्य बहुत गम्भीर हैं, उसमें बताया गया हैं कि ऊर्ध्व मुख सहस्रार कमल यदि जागृत हो सके तो व्यक्ति अपने भीतर विष्णु और उसके समस्त वैभव कलेवर को अपने साथ जुड़ा, गुँथा देख सकता हैं और सिद्ध-पुरुषों की तरह महामहिम जीवन-यापन कर सकता हैं।

कुण्डलिनी के अधोमुख मूलाधार चक्र के साथ समुद्र-मन्थन की पौराणिक गाथा जुड़ी हुई हैं। सुर और असुरों ने मिलकर समुद्र मथा था और एक से एक बढ़कर महत्वपूर्ण चौदह समुद्र मथा था और एक से एक बढ़कर महत्वपूर्ण चौदह रत्न प्राप्त किये थे। इस गाथा में पौराणिक उपाख्यानकार ने कुण्डलिनी की गरिमा ही प्रकट की हैं।

सुर और असुर दो वर्ग माने गये हैं। इनकी प्रकृति भिन्न हैं। दिति-त्रदिति दो माताओं के पुत्र होने के कारण इनमें कुछ भेद भी हैं पर पिता तक होने के कारण वे एक ही अंश-वंश के तथा परस्पर पूरक हैं। सुरु-गुरु बृहस्पति और असुर गुरु शुक्राचार्य दोनों ही देव थे। दोनों की योग्यता, तपस्या एवं दूरदर्शिता असाधारण थी। प्रक्रिया में थोड़ा अन्तर अवश्य था पर थे दोनों ही अपने स्थान पर महत्वपूर्ण सुरु गुरु बृहस्पति ज्ञान मार्गी थे, उनका सम्प्रदाय योग को प्रधानता देता था और उनके अनुयायी दक्षिण मार्गी कहलाते थे। असुर गुरु, शुक्राचार्य कर्ममार्गी थे, उनका सम्प्रदाय तन्त्र को प्रधानता देता था और उनके अनुयायी बाम-मार्गी कहलाते थे। आगम और निगम, वेद और तंत्र दोनों की अपनी महता हैं। ज्ञान और कर्म एक दूसरे के पूरक हैं। सुर और असुरों को सता एक दूसरे को पूरक हैं। पर समन्वय का पथ छोड़ने वाले एक ही पम्प परिवार के लोग दुराग्रह के कारण टकराते रहते हैं, सो अतिवा देना और उग्र दुराग्रह का दौर जब चला तो सुर, असुर भी टकराने लगे। देवासुर संग्राम के बहुत कथानक पुराणों में पाये जाते हैं पर उनके सहयोग पूर्ण क्रिया-कलापों का भी सर्वथा अथाव नहीं हैं। समुद्र-मन्थन दोनों ने मिलकर किया था। प्रजापति ने परस्पर कलह से उन्हें दिन-दिन दुर्बल होते जाते, देखकर परामर्श दिया कि वे सहयोग का महत्व समझें और मिल-जुलकर काम करें। उन्होंने परामर्श माना और समुद्र-मन्थन का पुरुष से करने के लिए तैयार हो गये। ज्ञान और कर्म का समन्वय ही सुर-असुर संबंधित हैं। विष्णु को ज्ञान का और शिव को कर्म का प्रतीक माना गया हैं। सुरों का उपास्य विष्णु और असुरों का उपास्य शिव माना जाता रहा हैं। यह तथ्य कुण्डलिनी महाशक्ति के सुविस्तृत विज्ञान में बहुत ही स्पष्ट हैं।

मस्तिष्क के मध्य भाग में अवस्थित सहस्रार कमल में शेषशायी विष्णु भगवान अवस्थित हैं और अवःउवस्थित मूलाधार चद्रा के अधिपति शिव है। शिव चरित्र में कामदेव द्वारा शिव की उद्दीप्त करने और उनके द्वारा तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को जला डालने वाली कथा प्रख्यात हैं। कुण्डलिनी जननेन्द्रिय केन्द्र से समीप होने से अपने निकटवर्ती क्षेत्र को प्रभावित करती हैं, तत्वदर्शी उस अपव्यय को ज्ञान नेत्र खोलकर नियन्त्रित कर लेते हैं। एक पौराणिक कथा इसी संदर्भ में यह भी हैं कि शिव के काम पीड़ित होने पर उनकी जननेन्द्रिय के 28 टुकड़े विष्णु ने कर डाले और वे जहाँ भी गिरे वहाँ ज्योतिर्लिंगों की स्थापना हुई। द्वादश ज्योतिर्लिंगों का उद्भव इसी प्रकार हुआ। वासना को ज्योति में बदला जा सकता हैं। इस कथानक का यही मर्म हैं।

शिवजी का प्रधान आभूषण सर्प हैं और उनके चित्रों में हर सर्प प्रायः 3॥ फेरे लगाकर लिपटा हुआ दिखाई पड़ता हैं। शिवलिंग की मूर्ति पूजा में नर-नारी की जननेन्द्रियों की ही स्थापना हैं। शिव मन्दिरों की प्रतिमायें नर-नारी की जननेन्द्रियों को सम्मिलित करके प्रतिष्ठापित किया किया जाता हैं। और उस पर जल पढ़ाने की-शीतल करने की प्रक्रिया जारी रहती हैं। अर्थात् इन अवयवों को यों अश्लील और गुहा माना जाता हैं पर वे घृणित नहीं हैं। उनमें ऐश्वर्य के असाधारण रहस्य बीज विद्यमान हैं। प्रतीक रूप से सर्प जलहली और शिवलिंग की पाधारण प्रतिमा के बीच भी व्यवस्थित रहता है। इस स्थापना में इसी तथ्य का प्रतिपादन हैं कि कुण्डलिनी का अधिपति शिव प्रत्यक्ष एवं समर्थ परमेश्वर हैं। उनके निवास स्थान कैलाश पर्वत और मानसरोवर की तरह समण् जायँ उन्हें नर-नारी की घुरिगत जननेन्द्रिय मात्र न मान लिया जाय। वरन उनकी पवित्रता और महता के प्रति अति उच्च भाव देखते हुए, सदुपयोग की आराधना में तत्पर रहा जाय। साहस और कलाकारिता के-पुरुषार्थ और लालित्य के-कर्म और भावना के इन केन्द्रों को प्रजनन मात्र से निरस्त न बना दिया जाय वरन नर-नारी की जननेन्द्रियों के निकट मूलाधार चक्र की शिव शक्ति को उच्च आदर्शों के लिए प्रयुक्त किया जाय। भारतीय अध्यात्म-शास्त्र का यह संदेश हर किसी के लिए अति महत्वपूर्ण हैं। शिवलिंग की प्रतिमात्राओं में इसी तथ्य का संकेत रूप में प्रकटीकरण हैं।

कुरण की रासलीला में गोपियों के साथ बेरगुनाद और अनहद नृत्य में अलंकारिक रूप से अंतरंग की समस्त भाग

तरंगों की सरसता से ओत-प्रोत, शंका एवं उल्लसित करने का संकेत हैं। स्नान करती गोपियों के वस्त्र से भागने और उन्हें नग्न करने में भी अलंकार हैं कि उस गृह शक्ति को तिरस्कृत, उपेक्षित एवं विस्मृत न रखकर उस पर पड़ा पर्दा हटाकर तथ्य को तात्विक दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक देखना चाहिये। ताँत्रिक साधनाओं में ‘भैरवी-चक्र’ की साधना असामाजिक एवं अश्लील होने के कारण उसकी चर्चा नहीं की जाती और उसे अति युग रखा जाता हैं। रामकृष्ण परमहंस में अद्भुत शक्तियों का जागरण करने के लिए उनकी ताँत्रिक गुरु महायोगिनी ने ‘कुमारी पूजा’ की साधना कराई थी। उसके अश्लील क्रिया-कलापों में सहयोग देने के लिए परमहंस जी की धर्मपत्नी शारदामणि जी बड़ी कठिनाई से ही जनन सहज संकोचशीलता छोड़कर तैयार हुई थीं। आध्यात्मिकता का एक काम शास्त्र भी है। जिसके अनुसार कुन्ती द्वारा सर्वथा कुमारी होते हुए भी देव शक्यों का आह्वान कर सूर्य का प्रसाद करण, इन्द्र का प्रसाद अर्जुन, धर्मराज का प्रसाद युधिष्ठिर भौर वरुण का प्रसाद भीम उत्पन्न किया था। अंजनि पुत्र पवनसुत हनुमान के पिता महत थे, इसलिए उन्हें मारुत भी कहा जाता हैं। इस शास्त्र का एक सुविस्तृत विज्ञान हैं पर उसकी चर्चा केवल अधिकारी वर्ग तक ही सीमित रहने योग्य होने से उसका सार्वजनिक उल्लेख अवाँछनीय समझा गया हैं। अस्तु तत्र की ऐसी ही अनेक प्रक्रियाओं को गुहा घोषित करके उसे अधिकारी वर्ग के लिए ही सीमित और सुरक्षित कर दिया गया हैं।

कृपा चरित्र में कालिया मास का मान मर्दन करने और उसकी दोनों पत्नियों द्वारा भगवान को अनेक उपहारों सहित अभ्यर्थना करती हुई प्रस्तुत होने की कृपा प्रसिद्ध हैं। कृण, विषगुई के अवतार हैं। उद्धत महासर्प को वे ही नियन्त्रित करते हैँ। हमारा मनःसंस्थान महामा हैं, यदि वह उद्धत हो जाय तो विष उगलती हैं और सर्वनाश का सरंजाम जुटाना हैं। पर यदि उसे नियन्त्रित कर लिया जाय तो उसकी दोनों पत्नी ऋद्धि और सिद्धि अमरिगत विभूतियों का उपहार साथ लेकर अभ्यर्थना के लिए उपस्थित होती हैं। कथा प्रसिद्ध हैं कि पृथ्वी का भार शेषनाग के शिर पर रखा हैं। उपरोक्त महासर्प ही जीवन धारण किये रहने का आधार हैं। प्राण के समस्त स्फुल्लिंग उसी के गह्वर में छिपे पड़े हैं। महाप्राण का अधिपति वही हैं।

समुद्र-मन्थन के प्रसंग में सुर-असुर का विवेचन ऊपर हो चुका हैँ। ज्ञान कर्म का समन्वय देवासुर सहयोग हैं। सुमेरु पर्वत यह तिकोना परमाणु हैं, जिसके कारण मूलाधार चक्र की रचना हो सकी। प्रसिद्ध हैं कि सुमेरु पर्वत पर देखना रहते हैं और स्वर्ग का बना हैं। निस्सन्देह इस त्रिकोण में एक से एक अद्भुत दिव्य शक्तियों और स्वर्ग सम्पदाओं का समावेश हैं। सुमेरु की रई, शेषनाग की रस्सी बनाकर समुद्र मया गया। यह सर्प रज्जु-ब्रह्म नाड़ी के अंतर्गत इड़ा, पिंगला को विद्युत धाराओं से ओत-प्रोत हैं। शिव और विष्णु के प्रतीक-ज्ञान और कर्म सुर और असुर जब समुद्र-मन्थन की-कुण्डलिनी जागरण की महासाधना में संलग्न हुए तो उसे सफल बनाने में प्रजापति ब्रह्म ने कूर्म बनकर उसका बोझ अपने ऊपर उठा लिया। प्रयत्न असफल न हो जाय-सुमेरु भी ने न धंसक जाय- इस आशंका को निरस्त करने के लिए कूर्म भगवान ने अवतार लिया और अपनी पीठ पर पर्वत जैसा भार उठा लिया साधन पथ के पथिकों का उत्तरदायित्व भगवान बहन करते हैं और सफलता का पथ पुरुषार्थ एवं निष्ठा क अनुरूप निरन्तर प्रशस्त होता चला जाता हैं। प्रथम चरण में ही चौदह रत्न नहीं निकल आये वरन् उसके लिए देर तक निष्ठापूर्वक मन्थन की प्रक्रिया जारी रखनी पड़ी। आध्यात्मिक साधनाओं में उतावली करने वाले अधीर व्यक्ति सफल नहीं होते, उसका लाभ तो धैर्यवान और श्रद्धा को मजबूती के साथ पकड़े रहकर विश्वासपूर्वक निर्दिष्ट मार्ग पर अग्रसर होते रहने वाले साधन नैष्ठिक साधक ही उठा पाते हैं।

समुद्र-मथन की साधना के फलस्वरूप चौदह रत्न उपलब्ध हुए थे- (1) लक्ष्मी, (2) कौस्तुभ मणि, (3) पारिजात पुष्प, (4) वारुणी, (5) धन्वन्तरि, (6) चन्द्रमा, (7) कामधेनु, (8) ऐरावत हाथी, (9) रम्भा-नर्तकी, (10) उच्चेश्रवा अश्व, (11) अमृत, (12) धनुष, (13) शंख, (14) विष। पौराणिक उपाख्यान के अनुसार उनमें से अधिकाँश रत्न देवताओं को उपलब्ध हुए। दैवी प्रकृति के व्यक्ति ही अपनी सत्पात्रता के आधार पर दिव्य विभूतियों का सदुपयोग करके लाभान्वित हो पाते हैं। दुष्प्रवृत्तियों वाले व्यक्ति उपलब्धियों को गँवा ही देते हैं और उन्हें प्रकृति के नियमानुसार खाली हाथ ही रहना पड़ता हैं।

लक्ष्मी अर्थात् सम्पन्नता। कौस्तुभ मणि (पारस) अर्थात् जो भी संपर्क में आये उसका महत्वपूर्ण बन जाना। पारिजात पुष्प-सी कोमलता, शोभा, सुगन्ध और प्रसन्नता। वारुणी अर्थात् आदर्शों के प्रति उत्साह भरा उल्लास। धन्वंतरि अर्थात् आरोग्य दीर्घजीवन। चन्द्रमा अर्थात् शाँति, शीलता। कामधेनु अर्थात् अवाँछनीय, कामनाओं की समाप्ति और उचित कामनाओं की पूर्ति के लिए आवश्यक श्रमशीलता का उद्भव। ऐरावत हाथी अर्थात् धैर्य विवेक सहित बलिष्ठता। रम्भा अर्थात् कलात्मक सरसता, भावुकता एवं सौंदर्य दृष्टि। उच्चेभव अश्व अर्थात् वह पम्प साहस और अथक पुरुषार्थ। अमृत अर्थात् आत्म-जोड़ आत्मा के स्वरूप और जीवनोद्देश्य की अनुभूति। धनुष अर्थात् अभीष्ट साधनों की उपलब्धि। शंख अर्थात् दूसरों को सजाना और प्रभावित कर सकने वाली प्रखर वाणी। इन तेरह विभूतियों के साथ-साथ एक जोखिम भी साथ ही जुड़ी हुई हैं कि यदि इन विभूतियों को पाकर व्यक्ति यथोम्भत हो जाय और उनका दुरुपयोग करने लगे तो वे ही विष तुल्य अपने और दूसरों के लिए घातक परिणाम भी उत्पन्न कर सकती हैं।

रावण, कुंभकरण, मेघनाद, हिरण्यकश्यप, भस्मासुर वृत्तासुर आदि असुरों ने तपश्चर्या की कड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर अनेकों वरदान और वैभव प्राप्त किए थे, किन्तु उद्धत मनोभूमि एवं निकृष्ट अंतःस्थल होने के कारण उनने जो पाया वह खो ही न गया वरन् विष तुल्य सिद्ध होकर सर्वनाश का कारण बना। समुद्र मन्थन का चौदहवाँ रत्न विष भी हैं। जिसे कोई शिव साधक ही पचा सकता हैं। भगवान शंकर ने संसार की क्षति न होने देने के उद्देश्य से समुद्र-मन्थन से निकले हुए विष को अपने कंठ में धारण कर लिया था। संसार में दोष दूवर्ण का अंश भी बहुत हैं, उसे न तो पेट में भरना चाहिए और न मुख से कटु, कर्कश बोलना चाहिए। जहाँ सुधार सम्भव हैं, वहाँ प्रयत्न किया जाय असभ्यता दुरित को न तो आना ही उचित हैं, न उगलना ही उसे कण्ठ में धारण किये रहना चाहिए। शिव ने यही किया। अध्यात्म साधना के साधकों को यही करना चाहिए। इस मार्ग पर चलते हुए विभूतियों की जो अमृत मयी उपलब्धि होती हैं, वह विषाक्त न होने वाले इसका ध्यान रखना चाहिए।

कुण्डलिनी साधना समुद्र-मन्थन की तरह हैं। उससे उपरोक्त चौदह रत्न हर साधक को मिल सकते हैं। अध और ऊर्ध्व ध्रुव केन्द्रों में वह सब कुछ भरा पड़ा हैं, जो संसार में कहीं भी विद्यमान हैं। सहस्रार और मूलाधार के रत्न भण्डारों की तिजोरी खोल सकने की चाबी का नाम ही कुण्डलिनी साधना हैं, जो उसे कर सकें, उन दुस्साहसियों को इस संसार का अति सौभाग्यशाली व्यक्ति बनने का अवसर मिलता हैं।


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