संसार उपयोगितावाद नहीं सहयोग और सद्भाव पर जीवित

December 1969

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उपयोगितावाद (यूटिलिटेरियनिज्म) सिद्धान्त के विश्व-विख्यात प्रवर्तक जान स्टुअर्ट मिल के अपने सिद्धान्त को व्याख्या करते हुए लिखा है-”संसार में सबको सुख या आनन्द की खोज है। सुख जीवन का लक्ष्य है। और यह स्वाभाविक है कि मनुष्य आजीवन उसकी खोज करे। कई बार ऐसी परिस्थितियाँ आती है, जब हमें एक सुख दूसरे से अधिक अच्छा लगे तो हमारे लिए वही इष्ट हो जाता है, भले ही उसको प्राप्त करने में अशाँति का सामना करना पड़े। मनुष्य सुख चाहता है, वस्तुयें चूँकि उन सुखों की माध्यम है, इसलिए हम वस्तुओं का संग्रह करते समय भी केवल सुख प्राप्ति का प्रयत्न करते हैं, इससे यह सिद्ध होता है कि आनन्द मनुष्य जीवन में प्रमुख है आचरण अप्रमुख।”

अर्थात् यदि माँस खाने से सुख की वृद्धि हो सकती है तो माँस खाना बुरा नहीं। यदि काम वासना की अधिक तृप्ति के लिए सामाजिक मर्यादायें तोड़ी जा सकती हैं तो वसा करना पाप नहीं। घन अधिक और अधिक सुख देने में सहायक है, इसलिए अधिक से अधिक धन कमाने में यदि प्रत्यक्ष किसी पर दबाव न पड़ता होती वैसा किया जा सकता है, अर्थात् झूठ बोलकर, कम तोलकर, मिलावट आदि जितने भी व्यापार के भ्रष्ट नियम हैं, वह पाप नहीं है, यदि हमारे सुख की मात्रा उससे बढ़ती हो। बड़ी बलवान् शक्तियों द्वारा कमजोर छोटी शक्तियों का शोषण इस सिद्धान्त का ही समर्यित व्यवहार है। जान स्टुअर्ट और उनके सब अनुयायी इसके लिए प्रकृति को प्रत्यक्ष स्वयंभू उदाहरण देते हैं और कहते हैं, बड़ी मछली छोटी को खाकर अपनी शक्ति बढ़ाती है। बड़ा वृक्ष छोटे वृक्ष की भी लुराक हड़प कर लेता है यदि। इन सब बातों को देखकर मनुष्य के लिए भी उपयोगितावाद सिद्धान्त का समर्थन होता हैं।

जहाँ तक सुख की चाह का प्रश्न है, जान स्टुअर्ट के सिद्धांत का कोई भी विचारशील व्यक्ति खण्डन नहीं करेगा। हम दिन रात आनन्द के लिये भटकते हैं पर हमने शुद्ध आनन्द की व्याख्या और उसकी प्राप्ति के प्रयत्न किये कहाँ? दुःख के प्रमुख कारण हैं-1. अशक्ति, 2. अज्ञान और 3. अभाव। यदि सम्पूर्ण जीवन को इकाई मानकर देखें और इन तीनों कारणों की दूर करने के प्रयत्नों पर विचार करे तो संयम, स्वाध्याय आदि के द्वारा ज्ञान वृद्धि और श्रम एवं क्रमिक विकास की वह उपयुक्त साधन दिखाई देते हैं, जिनके अभ्यास से उन्हें दूर किया था सकता हैं और आनन्द प्राप्ति की अपनी क्षमताओं का विकास किया जा सकता हैं।

आनन्द वृद्धि के लिए उपयोगितावादी सिद्धान्त हमें निरन्तर भौतिकता की ओर अग्रसर करते हैं और हमारी आध्यात्मिक आवश्यकताओं को उस तरह बुलावा देते हैं, जैसे रेगिस्तान के शुतुर्मुर्ग शिकारी को देखकर अपना मुख बानू में छिपाकर अपनी सुरक्षा अनुभव करते हैं। आज के संसार में बढ़ रही अशाँति और असुरक्षा इस सिद्धान्त की ही देन है।

प्रकृति में बड़ी शक्तियों द्वारा छोटी शक्तियों के शोषण के सिद्धान्त अपवाद मात्र है। अधिकाँश संसार तो सहयोग और सामूहिकता के सिद्धान्त पर जीवित हैं। उस क्षण की कल्पना करें, जब सारे संसार के लोग बुद्धि-भ्रष्ट हो बायें और परस्पर शोषण पर उतर आये तो सृष्टि का विनाश एक क्षण में हो जाये। हम प्रकृति को सूक्ष्मता से देखे तो पायेंगे कि उसका अंतःजीवन कितना करुणाशील हैं। छोटे-छोटे जीव-जन्तु, वृक्ष, वनस्पतियाँ भी किस प्रकार परस्पर सहयोग और मैत्री का जीवन-यापन कर रहे हैं। मानवीय सभ्यता तो जीवित ही इसलिए है कि इतने भौतिक विकास के बाद भी हम मनुष्य, मनुष्य के प्रति प्रेम, दया, करुणा, उदारता, सहयोग और सामूहिकता के सम्बन्ध को तोड़ नहीं सकते।

गाँवों के किसानों से कोई पूछे कि वे एक खेत में कई फसलें मिलाकर क्यों बोते हैं? तो उपयोगितावाद के सिद्धान्त का खण्डन करने वाले तभ्य ही सामने आयेंगे। ज्वार और अरहर साथ-साथ बोई जाती हैं। मूँग, उड़द और लोबिया आदि दालें भी ज्वार के साथ बोई जाती है। ज्वार का पौधा बड़ा होता है, यदि उपयोगितावाद प्रकृतिगत या ईश्वरीय नियम होता तो वह इन दालों को पनपने न देता। होता यह है कि दालों को उदार के पौधों में बढ़ने और हृष्ट-पुष्ट होने में सहायता हमलती है। उधर उदार को नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है, सो वह काम अरहर पूरा करती है। वह वायु-मण्डल से नाइट्रोजन खींच कर कुछ अपने लिये रख लेती है, शेष ज्वार को दे देती हैं, जिससे वह भी बढ़ती और अच्छा दाना पैदा करने की शक्ति ग्रहण करती रहती है। हमारे देश का सामाजिक ढाँचा इसी दृष्टि से बनाया गया था। वर्ग बँटे थे। लुहार अपना काम करता था, बढ़ई अपना, नाई, तेली, मोची, भंगी सब अपना-अपना काम करते थे और अपने जीवन-यापन के साधनों को परस्पर विनियम के द्वारा बाँट लेते थे।

इस तरह परस्पर स्नेह, आत्मीयता और प्रेम-भाव बना रहता था। तब मुद्राओं का ऐसा प्रचलन न था। आज मुद्रा स्वयं ही एक समस्या बन गई है और इस प्रकार का सहयोग न होने से आर्थिक खींचा-तानी पैदा हो रही है। साम्यवाद और पूँजीवाद का संघर्ष-परस्पर सहयोग के सिद्धान्त की अवहेलना के फलस्वरूप ही हैं।

पान की बेल आम के वृक्षों के सहारे ही बड़े अच्छे ढंग से बढ़ती हैं। उन्हें किसी घने वृक्ष की छाया न मिले तो बेचारी का जीवन ही संकट में पड़ जाये। यहाँ बड़ा छोटे के हितों की रक्षा करता हैं। अमर बेल बेचारी जड़ हीन होने से स्वयं सीधे आहार नहीं ले सकती, इसके लिए उसे बड़े वृक्षों का ही संरक्षण मिलता है। जिनके पास भी साधन और संपत्तियाँ हैं, वे उसे अपनी ही न समझकर समस्त वसुधा की समझकर आवश्यकतानुसार उदारतापूर्वक अल्प-विकसितों को बाँटते रहे तो विषमता उत्पन्न ही क्यों हो? आर्थिक साधन ही नहीं, विद्या, बुद्धि, कलाकौशल, स्वास्थ्य, सौंदर्य आदि मानवीय विशेषतायें भी एकस्थ नहीं होनी चाहिये, हमारे पास जो भी योग्यता हो उसे पिछड़े वर्ग के विकास में स्वेच्छापूर्वक दान करना चाहिये।

बड़ी शक्तियाँ छोटी शक्तियों का शोषण करें, यह प्राकृतिक नियम नहीं। प्रकृति आश्रित को जीवन देने और उसके विकास में सहायता करने का कार्य करती है। ‘छोटी पीपल’ महत्त्वपूर्ण औषधि है, वह अपना विकास किसी घने छायादार वृक्ष के नीचे ही कर सकती है। इलाइची नारियल के वृक्ष की छाया में बढ़ती हैं। बड़ा पेड़ अपने नीचे के छोटे पेड़ों को खा हो जाय यह कोई सार्थभीय नियम नहीं हैं।

एक गाँव में एक अन्धा रहता था, दूसरा लंगड़ा। एक दिन अकस्मात गाँव में आग लग गई। समर्थ लोग अपना-अपना सामान लेकर सुरक्षित भाग निकले। लँगड़ा और अन्धा दो व्यक्ति ही ऐसे रहे, जिन बेचारों के लिये बाहर निकलना सम्भव न था। एकाएक अन्धे की एक उपाय सूभघ। उसने लँगड़े से कहा-यदि आप मुझे रास्ता बताते चलें तो मैं आपको कन्धे पर बैठाकर यहाँ से निकल सकता हूँ और इस तरह हम दोनों भी यहाँ से सुरक्षित बच सकते हैं। लँगड़े को योजना पसन्द आ गई। अन्धे ने उसे कन्धों पर बैठाया। लँगड़ा उसे दिखा दिखाता चला और इस तरह दोनों एक रास्ते से आम की लपटों से बचकर बाहर आ गये।

अन्धे और लँगड़े की यह कहानी मनुष्य समाज की सुरक्षा और सबके सिद्धान्त का प्रत्यक्ष प्रभाव है। वहाँ कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं, सब अपूर्ण है। डाक्टर औषधि शास्त्र का पण्डित हो सकता है, कानून-शास्त्र का नहीं। सब्जी नियर मशीनों का ज्ञाता होकर भी व्यापार शास्त्र की दृष्टि से निरा बालक रहता हैं। वैज्ञानिक के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह अपने ही बच्चों का शिक्षण आप कर लें उसके लिये, उसे प्रशिक्षित अध्यापकों वाले कालेज का ही सहयोग सेना पड़ेगा। अपूर्णताओं वाले संसार में यदि उपयोगिता वाद को खुला समर्थन दिया जाने लगे तो सबके सब अपने को उपयोगी मानकर छल-कपट, शोषण और अत्याचार करने लगें, ऐसी स्थिति में अशिक्षित किन्तु स्वस्थ और बलिष्ठ भी अपने शरीर की उपयोगिता सिद्ध करना चाहेगा। वह चोरों, डकैती और दूसरी तरह के अपराध करेगा, क्योंकि उसे न्याय और नियन्त्रण में रखने वाली बौद्धिक शक्ति स्वयं पंगु हो चुकी होती है। यदि सब उदारतापूर्वक एक दूसरे से सहयोग का मार्ग अपना ले तो हर कोई स्वस्थ साधनों में भी आनन्द की उपलब्धि कर ले। आज की स्थिति जो गड़बड़ दोष इस उपयोगितावाद की ही दिया जा सकता हैं।

समुद्र में शंख पाया जाता हैं। उसका कोड़ा विकल जाता है, तब ‘आर्थोपोड़ा वर्ग का हरमिट क्रोध’ नामक जल-जन्तु उसमें जा बैठता हैं। सोचता तो वह यह था कि यहाँ वह सुरक्षित रहेगा, किन्तु यहाँ भी उसे शत्रु का भय बना रहता हैं। मछलियाँ उसे कभी भी पकड़कर खा जाती हैं। यदि उपयोगितावाद का सिद्धान्त ही सत्य और व्यावहारिक रहा होता तो इस कीड़े की वंशावली ही समाप्त हो गई होती हैं।

पर प्रकृति ने उसे सहयोग के लिए प्रेरित। वहीं पर ‘फाइसेलिया’ नामक एक जानवर पड़ा होता है। विचारा अपने आहार के लिये चल फिर नहीं सकता। आर्थोपोड़ा उसे अपने शख की पीठ पर बैठा लेता है और उसे यहाँ से वहाँ घुमाता रहता है। प्रत्युपकार में फाइसेलिया उस आर्थोपोड़ा की रक्षा कर भार स्वयं वहन करता है। फाइसेलिया अपने शरीर से काई की तरह का एक दुर्गन्धित पदार्थ निकालता रहता है, फलस्वरूप वह जहाँ भी रहता है, मछलियाँ भयभीत होकर पास नहीं आती और यही द्रव छोटे-छोटे जन्तुओं के मारने के काम जाता है और इस फाइसेलिया और हरमिट क्रेब दोनों को भोजन भी मिल जाता है। और इस तरह आर्थोपोड़ा का जीवन सुरक्षित बना रहता है। इससे यह मालूम पड़ता है कि प्रकृति ने यदि सहयोग और सद्भाव की प्रेरणा अन्तरंग से न दी होती तो सृष्टि से सम्पूर्ण प्राणियों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता।

एक कोशीय जीवों को प्रोटोजोन्स कहते है। इनके हाथ-पैर मुख आदि कुछ नहीं होते। एक नाभिक (न्यूक्लिस) होता है और उसके आस-पास ‘साइटोप्जाज्म’। अमीबा एक ऐसा ही प्रोटोजोन है। इसी की जाति का ‘पैरामीसियम’ नामक जीव जब थक जाते है और जीवन शक्ति बहुत कम पड़ती जाती है या बुढ़ाया अनुभव करते हैं, तब दो पैरामीसियम मिलकर एक दूसरे से साइटोप्लाज्म (एक प्रकार का द्रव सा होता है जिसमें पानी के अतिरिक्त गैसें, खनिज, धातुयें, लवण, पोटैशियम, फास्फोरस आदि विभिन्न तत्त्व होते हैं) अदल-बदल लेते है, इससे उनमें पुनः एक नई शक्ति आ जाती है। जबकि मनुष्य समाज अपने माता-पिता और बुजुर्गों का केवल इसीलिये तिरस्कार करते रहते हैं, क्योंकि वे शक्ति और आजीविका की दृष्टि से अनुपयोगी हो जाते हैं। प्रकृति हमें रख बुराई के विरुद्ध चेतावनी देती है और यह बताती हैं कि यदि मनुष्य स्वयं औरों से सहयोग सहानुभूति आदि प्राप्त करे तो उसे भी इस मानवीय सदाचरण का परिपूर्ण निष्ठा के साथ पालन करना चाहिये और अपनी प्रगति तथा सुख-शाँति का पच प्रशस्त करना चाहिये।

पढ़ाई के दिनों में गोखले को गुजारे के लिये बहुत कम पैसे मिलते थे। अकेले भाई ही उनकी सहायता करने वाले थे। एक दिन गोखले का धनी मित्र कहीं से नाटक के दो टिकट लें उनकी सहायता करने वाले थे। एक दिन गोखले का धनी मित्र कहीं से नाटक के दो टिकट ले आया और उन्हें भी नाटक दिखाने ले गया। दूसरे दिन शाम को फिर आया तो उनसे उस टिकट के पैसे माँगने लगा। गोखले को अपने मित्र के स्वार्थपूर्ण व्यवहार पर बड़ा खेद हुआ, साथ ही आश्चर्य भी।

गोखले ने मित्र से तो कुछ भी न कहा। जितने पैसे उसने माँग, उन्होंने चुपचाप निकालकर दे दिये। जब आखिर इस आकस्मिक व्यय के लिये अपने अन्य आवश्यक खर्चों में कटौती करनी थी। संकोचवश भाई को पत्र लिखकर और पैसे न मँगा सके। अतः कितने ही दिन तक गली में लगे नगरपालिका के लैम्प के प्रकाश में अपनी पढ़ाई करनी पड़ी और इस प्रकार उन्होंने शाम को लालटेन में जलने वाले तेल की बचत कर ली।


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