संयुक्त परिवार प्रणाली एक श्रेयस्कर परम्परा

December 1969

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(पं. श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित और युग-निर्माण योजना मथुरा द्वारा प्रकाशित ‘सौभाग्य का द्वार सम्मिलित परिवार’ पुस्तिका का एक अंश)

कुछ दिन पहले अनुभव हीनता के जोश और आवेश में यह प्रतिपादन शुरू किया था कि संयुक्त परिवार प्रणाली को तोड़ा जाय और उसके स्थान पर पति-पत्नी मात्र के छोटे परिवार बसाये जायं। जब तक बच्चे समर्थ न हों, तब तक माँ-बाप उनका संरक्षण करें और जैसे ही वे विवाह और आजीविका की दृष्टि से समर्थ हो जाये, वैसे ही उन्हें अलग परिवार बसाने के लिए स्वतन्त्र कर दिया जाय। पाश्चात्य देशों में यह प्रयोग पिछले दिनों बड़े उत्साह के साथ हुआ हैं। यूरोप अमेरिका में अब संयुक्त कुटुम्बी प्रथा जहाँ-तहाँ ही दीखती हैं। अधिकांश व्यक्ति अपना छोटा परिवार ही बसाते हैं। अपने देश में भी उसका अनुकरण सुशिक्षित वर्ग में धीरे-धीरे जोर पकड़ता जाता है। ज्यादा पढ़ी लिखी लड़कियां और नई रोशनी के लड़के सम्मिलित रहना नापसंद करते। वे घर वालों से अलग घर बसाने की चेष्टा करते हैं, ताकि सम्मिलित कुटुम्ब के बोझ, उत्तरदायित्व और नियन्त्रण से छुट्टी पाकर उन्हें अधिक सुविधा से दिन काटने का अवसर मिल जाये।

इस बढ़ती हुई अलगाव की प्रवृत्ति के बारे में हमें कई पहलुओं से उसके गुण-दोषों पर विचार करना होगा। प्रथम पाश्चात्य देश जहाँ से यह प्रवृत्ति आरम्भ हुई, उनके सामने प्रस्तुत हुए प्रतिफलों को देखना पड़ेगा। आरम्भ में पति-पत्नी की अधिक खर्च करने और कम काम करने की सुविधा जरूर मिल जाती हैं और नये लड़के इसमें अपना लाभ देखकर प्रसन्न होते हैं पर कुछ ही दिनों में उन्हें अपनी मूल प्रतीत होने लगती हैं। पत्नी गर्भवती होती हैं, शरीर में कितने ही तरह के विकार उठ खड़े होते हैं, काम कम और आराम अधिक करने की इच्छा होती है। उस समय किसी सहायक की जरूरत पड़ती है पर एकाकी गृहस्थ में तो सब कुछ स्वयं ही करना पड़ेगा। प्रसव काल में कष्ट बहुत होता है। उस समय भी गहरी सहानुभूति वाला कुटुम्बी आवश्यक लगता है। प्रसूति काल में लवण के रागी की तरह चारपाई पकड़ लेनी पड़ती है और हर घड़ी सहायता की इच्छा रहती है। बच्चा एक पूरे गृहस्थ के बराबर काम लेकर आता है। हर घड़ी निगरानी, सफाई, सेवा की जरूरत पड़ती है। अस्वस्थ होने पर वह रोता-चिल्लाता बहुत है। कई बार तो नींद हराम कर देता है। उसे सँभालते हुए घर के दूसरे भोजन बनाने आदि के काम जो समय पर पूरा होना चाहते हैं-मुश्किल पड़ते है। बच्चे बढ़ते जाते हैं, समस्या भी बढ़ती जाती है। संयुक्त कुटुम्ब में यह सब पता भी नहीं चलता। कोई कुछ कर जाता हैं, कोई कुछ सँभाल लेता है। अकेली बेचारी क्या-क्या करे। पति अपने ही गोरखधन्धे में लगे रहते हैं। सहायता करना तो दूर-अपनी ही फरमाइशें पूरी न होने और गृह-व्यवस्था में कमी आने से उलटे झल्लाये रहने लगते हैं। उस समय नव-वधू को समझ आती है कि सुविधा की दृष्टि से संयुक्त परिवार प्रथा ही अच्छी थी।

हारी-बीमारी, असमर्थता, दुर्घटना, लड़ाई-झगड़ा आदि अवसरों पर संयुक्त कुटुम्ब का लाभ प्रतीत होता है, जब एक की विपत्ति में दूसरे सब उठ खड़े होते है और अपने-अपने ढंग से सहायता करके बोझ हलका करते हैं। विवाह-शादियों में एक बारगी बहुत खर्च करना पड़ता है। एक व्यक्ति के लिए उतनी बचत कठिन पड़ती है पर कुटुम्ब की मिली-जुली पूँजी और आर्थिक स्थिति में वह पहिया भी लुढ़कता रहता है और खर्चीली शादियाँ भी उसी ढर्रे में होती चली जाती हैं। विधवा को आर्थिक संकट और विधुरों को गृह-व्यवस्था की कठिनाई नहीं पड़तीं, वे भी उसी खाँचे में समा जाते हैं और निर्वाह क्रम किसी प्रकार चलता ही रहता है। परित्यक्यें और पति विमुक्त महिलायें अपने बच्चों समेत मैके चली जाती हैं और उस परिवार का भी गुजारा उसी श्रृंखला में बँधकर होने लगता है। ऐसी महिलायें एकाकी अपना भार स्वयं नहीं उठा पाती और यदि एकाकी भाई हैं, तो इतना बोझ उठाना उसके लिए भी कठिन पड़ता है। संयुक्त परिवार प्रणाली ही है, जिसमें अयोग्य, असमर्थ, पागल, दुर्गुणी भी खप जाते हैं। एकाकी होते तो उन्हें भीख मिलना और जीवित-रहना भी कठिन पड़ता।

संयुक्त परिवार प्रथा में सब सदस्यों का उपार्जन एक जगह इकट्ठा होता है और उस सम्मिलित पूँजी से बड़े व्यवसाय आसानी से आरम्भ हो जाते हैं। नौकर महंगे पड़ते हैं, ईमानदार भी नहीं होते, दिन रात जुटे भी नहीं रहते, अधिक लाभ में उतनी दिलचस्पी भी नहीं होती, इसलिए नौकरों की अपेक्षा घर के आदमी सदा अधिक लाभदायक सिद्ध होते हैं। घर की पूँजी और घर का थम जुट जय तो किसी भी व्यवसाय में लाभ होगा। किसान के लिए तो यह जीवन-मरण का प्रश्न है। उसके पास घर, खेत और पशुओं के इतने अधिक काम रहते हैं कि उनके छोटे बच्चे और बूढ़े असमर्थ भी बहुत सहायता कर सकते हैं। सबके मिले हुए श्रम से ही कृषि और पशु पालन लाभदायक रहता है अन्यथा नौकर रखकर मामूली किसान रोटी भी नहीं पा सकता।

वृद्धावस्था का जीवन शान और शाँति से संयुक्त कुटुम्ब में ही सम्भव है। जरा-जीर्ण शरीर जब अपना बोझ आप नहीं ढो पाता और रुग्णता साथी बन जाती हैं, तब कुटुम्बियों की सेवा, सहायता अपेक्षित रहती है। अपनी निज की कमाई या बचत न होने पर आवश्यक खर्च भी बेटे-पोते ही उठाते हैं। हारी-बीमारी में उन्हीं की सहायता मिलती है। शारीरिक और मानसिक दृष्टि से दुर्बल बने व्यक्ति की आमतौर से उपेक्षा ही होती है पर संयुक्त परिवार में मान, इज्जत ज्यों की त्यों बनी रहती है वरन् और अधिक बढ़ जाती है। बिना पूछे कोई बड़ा काम नहीं होता, इससे वृद्ध का गर्व-गौरव एवं सम्मान भी अक्षुण्य बना रहता है।

अपने गरीब और कृषि प्रधान देश के लिए संयुक्त परिवार प्रणाली एक वरदान है। उसके अनेक लाभ है। आध्यात्मिक और भावनात्मक विकास की दृष्टि से भी उसका महत्व है। पिता-माता की सेवा, भाई-बहिनों की सहायता, कुटुम्बियों की समस्यायें अपनी समझने और उन्हें सुलझाने में संलग्न रहकर व्यक्ति अपनी स्वार्थपरता को घटाता और उदारता को बढ़ाता ही है। जिसकी ममता का दायरा जितना बड़ा है, उसे उतना ही श्रेष्ठ कहा जायेगा। स्वार्थ को शरीर से बढ़ा कर कुटुम्बियों तक विस्तृत कराना-’वसुधैव कुटुंबकम्’ की महानता अपनाने का एक प्रारम्भिक ही सही पर महत्वपूर्ण कदम हैं। अपनी देह और बीबी तक की बात सोचने वाला व्यक्ति कृपा ही कहा जायेगा और उसे चढ़ती उम्र में कुछ सुविधायें पा लेने के अतिरिक्त शेष जीवन में इस संकीर्णता का दण्ड ही भोगना पड़ेगा।

आज संयुक्त कुटुम्ब इसलिए अनुपयोगी और मनोमालिन्य के केन्द्र बनते और बिखरते चले जाते हैं कि उनके कर्तव्यों और अधिकारों का विभाजन ठीक तरह नहीं हो पाता। कुछ लोग बड़प्पन के नाम पर मौज करते हैं, कुछ को छोटे पद के कारण कोल्हू के बैल की तरह पिसना पड़ता है। जिनके हाथ में पूँजी या सता है, वे मनमाना उपयोग करते है, और शेष को जरा-जरा-सी बात के कलए मुख ताकना और विवश रहना पड़ता हैं। परस्पर सौजन्य, शिष्टाचार, स्नेह, सद्भाव, सम्मान और सहयोग की भावनायें कम पड़ने से भी असंतोष, रोप और मनोमालिन्य रहने लगता है। इन कारणों को दूर करने के लिए परिवार के हर सदस्य का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। एक आचार संहिता रहनी चाहिए, जिसके आधार पर हर छोटे-बड़े को अपने कर्तव्यों का पूरा ध्यान हो और हर कोई अधिक पाने की उपेक्षा करके कर्तव्य पालन के लिए अधिक तत्परता पूर्वक संलग्न रहे।

परिवार को एक सहकारी समिति मानकर इस प्रकार गठित किया जाना चाहिये कि हर किसी को अपना कर्तव्य पालन करने के लिए स्वेच्छापूर्वक विवश होना पड़े। एक दूसरे के लिए असीम प्यार रखें और अपनी अपेक्षा अन्यों की सुविधा को प्राथमिकता देते रहें। आवेश और कटुता का, दुर्भाव और तिरस्कार का, आलस्य और अकर्मण्यता का, अहंकार और दबाव की क्षुद्रतायें यदि निरस्त की जा सकें तो बिखरते परिवारों को पुनः संयुक्त रहने के लिये सहमत किया जा सकता है। सुव्यवस्थित आचार संहिता पर निर्धारित हमारी संयुक्त परिवार प्रणाली अपने देश के लिए तो उपयोगी सिद्ध होगी ही साथ ही समस्त संसार को भी इस परम्परा को अपनाने के लिए आकर्षित करेगी।


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