‘यथा नामो तथा गुणाः’-जैसा नाम वैसा ही गुण। यावज्जीवन श्मशानों में बीता। कभी तान्त्रिक साधनाओं में तो कभी रणभूमि में। अवन्तिका (उज्जैन) की सेना बैताल भट्ट के बिना सूनी थी। बैताल की कोप-चण्डी शत्रुशिविरों को ऐसे सूना कर देती थी, जैसे तीव्र तूफान में कटी हुई फसलें उड़ जाती हैं और खेत सूने हो जाते हैं। आज तक उसकी शक्ति के सामने कोई भी राज्य टिका नहीं था। अवन्तिका यदि अजेय थी तो उसका सारा श्रेय एक मात्र बैताल भट्ट और उसकी सहायिका विषकन्या बसन्तिका को ही था।
पर आज बूढ़ा पेड़ स्वयं ही धराशायी हो गया। जिस बैताल भट्ट को कूटनीति के आगे बड़े-बड़े सम्राट् शीश झुकाते थे, अपनी कूटनीति से आज वह आप ही पराभूत हो उठा था। कई दिन से उसके मस्तिष्क में निरन्तर एक ही विचार उठते आ रहे थे-यह नर-हत्यायें किसके लिये कीं-जीवन भर असत्य और अनादर्शों का भार उठाये घूमा, उससे क्या शरीर अमर हो गया। कितनी विधवायें मेरे नाम को गालियाँ देती हैं। कैसा है, यह मनुष्य जीवन कोई पापी पेट के लिए तो कोई पुत्र कलत्र, धन, पद, यश, वैभव के लिये-स्वार्थ की संकीर्णताओं में डूबा हुआ संसार, अपनी ही चिन्तायें करता तथा औरों को ठगता रहता है। आज पता चला कि दूसरों को पराजित और स्वयं को विजयी मानने वाला सर्वथा भूल में था। मनुष्य से बढ़कर कालपुरुष है, कोई कितना ही ऐठे, अकड़ें दिखाये पर काल-पुरुष जीतना सदैव ही दुःसाध्य रहा। मृत्यु से कोई न बच पाया। जो अपने ही गोरख-धन्धे में लगा रहा वह अन्ततः पछताया और हाथ मलता हुआ ही गया।
बैताल भट्ट की आंखें खुल गई थीं। साँसारिक मोह टूट गया, दम्भ मर गया। जीवन भर का दोष-दूषण उसकी आँखों में आगे नीचे रहा था और उसके लिए पश्चाताप की अग्नि में जल रहा था बैताल भट्टा। उसने वर्तमान् जीवन क्रम को बदल डालने का निर्णय कर लिया।
रालसी परिधान उतार फेंके बैताल भट्ट ने। साधारण वेष-भूषा में, हाथ में लाठी और उत्तरीय वस्त्र कन्धे पर डाले प्रातः पीयूष बेला में वह घर से बाहर निकला। क्षिप्रा के पावन तट पर खड़े होकर उसने अवन्तिका और महाकाल को झुककर प्रणाम किया और पीछे मुड़कर बढ़ चला आगे की ओर।
पर अभी बीस पग ही बड़े होंगे कि महाकवि कालीदास और वासन्तिका उधर से आते हुए दिखाई दिये। बैताल भट्ट को साधारण वेष-भूषा में देखकर कुमार सम्भव चकित तो हुए पर इस महान् इन्द्रजालिक के लिए, उनके मन में असम्भव की कुछ कल्पना न थी। तो भी पूछा अतएव उन्होंने-”आर्य प्रवर! आज किस सम्राट् का ज्योतिष बिगड़ा, किस पर शनि दृष्टि गहरी हुई, किसने साहस किया आपसे प्रतिद्वन्द्विता का? क्या मालवा पुनः रणभेरी बजाने जा रहा है? पर छद्म-नीति में तो बसन्तिका आपके साथ रहती आई है, आज आप अकेले कैसे?”
कहाकवि की ओर उस स्वाभिमानी बैताल ने ऐसे देखा जैसे वास्तविक विजय के लिए वह आज ही निकला है। उसने कहा-”आत्म-प्रदेश का शासक मन बहुत कुटिल हो गया है कविवर! अब तो अन्तिम और निर्णायक युद्ध अपने आपसे ही होगा देखता हूँ, विजय जीवन की कुटिलताओं को मिलती है या आत्म-शोध की आकाँक्षा का? कालिदास ने पूछा-”किन्तु आर्य श्रेष्ठ! आपके बिना-अवन्तिका का क्या होगा।” यह सब मोह है-महाकवि!” मनुष्य अहंकारवश ऐसा सोचता, आसक्ति में पड़ता और भावी पीढ़ी की प्रगति में बाधक बनता है। मनुष्य कर्म का अधिकारी तो है पर मोह और आसक्ति का जीवन में कोई स्थान नहीं, इनसे बँधने वाला अपने व औरों-सबके लिए घातक ही होता हैं।
कालिदास और कुछ नहीं बोल सके। बैताल आगे बढ़ गये। और उधर सारे राज्य में खबर फैल गई, बैताल भट्ट वानप्रस्थ होकर समाज सेवा हेतु समर्पित हो गये।