आत्मा-कल्याण की भूमिका

December 1969

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कुछ घुड़सवारों के संरक्षण में आई मगध की साम्राज्ञी महारानी क्षेमा ने तथागत के आश्रम की शाँति भंग कर। पक्षी चहक उठे, रथ के पहियों की गड़गड़ाहट सुनकर मोर कुहुक उठे। सम्पूर्ण बनस्थली एक बार चौकन्नी हो गई। महारानी क्षेमा का पदार्पण कुछ महत्त्वपूर्ण अर्थ रखता था।

वे धीरे-धीरे रथ से उत्तरी। घुड़सवार सैनिकों ने सम्मान से गर्दनें नीचे झुका लीं। शेरनी के समान उन्होंने उन पर दृष्टि डाली और कहा अब तुम लोग जा सकते हों। आई हुई गड़बड़ाहट थोड़ी ही देर में दूर-दूर-बहुत दूर क्षितिज में जाकर विलीन हो गई।

सान्ध्य वेला में क्षेमा ने तथागत के निजी आवास गृह में प्रवेश किया। वैराग्य से आविर्भूत क्षेमा की मुखाकृति बड़ी ही सलोनी लग रही थी। बुद्ध के चरणों पर झुक कर कहा- “भगवन्! मैं अब तक अंधकार में भटकती रही। मुझे पता होता, ईश्वरीय नियमों के सम्मुख राजा और प्रजा दोनों ही समान हैं, मृत्यु और आधि-भौतिक कष्ट, परेशानियों के जाल से कोई भी नहीं बचता तो इतना जीवन व्यर्थ न जाता। अब तक आत्म-कल्याण के कई चरण पूरे कर लिये होते। भगवन्! अब मुझे शिष्या बना कर मेरे आत्म-कल्याण का मार्ग प्रदर्शित करें।”

भगवान् बुद्ध ने गम्भीर दृष्टि से क्षेमा की ओर देखा। एक क्षण कुछ अध्ययन किया। फिर पूछा- “भद्रे! आत्म-कल्याण के लिये साधना करने और गृह-परित्याग से पूर्व यह आवश्यक हैं कि जिन लोगों के प्रति अपने कर्त्तव्य है, उनकी पूर्ण स्वीकृति और सहमति प्राप्त की जाये। जब तक आप महाराज विस्विसार से आज्ञा नहीं प्राप्त कर लेती, आप दीक्षा की अधिकारिणी नहीं।”

क्षेमा पुनः मगध लौटी। वे सीधे बिम्विसार के पास पहुँचा। आकर्षण रहित वेष और खुले हुए केश देखकर महाराज पहल ही समझ गये क्षेमा के अन्तःकरण में तीव्र आन्दोलन है। उन्होंने उठी हुई जिज्ञासा को रोकना उचित न समझा। महारानी के आग्रह पर उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी। क्षेमा पुनः भगवान् बुद्ध के पास लौट आई।

महारानी का धर्म-पन्थ में प्रवेश राज्य की प्रजा के लिये कौतूहल और आस्था का विषय बन गया। हजारों की संस्था में नर-नारी एकत्रित हो-होकर आश्रम पहुँचने और आत्म-कल्याण की दीक्षा का आग्रह करने लगे। जब आश्रम में यह कोलाहल बढ़ता हुआ जा रहा था, तभी महारानी क्षेमा ने वहाँ प्रवेश किया।

भीड़ की ओर इंगित करते हुए भगवान् बुद्ध न कहा- “क्षेमा! देखो कितनी लम्बी भीड़ तुम्हारा अनुकरण कर रही है, जानती हो क्यों? सामान्य प्रजा के पास भी ऐसी ही भक्ति होती है, जैसी तुम्हारे हृदय में उमड़ रही हैं, किन्तु इनके पास न विचार होता है, न विवेक। इसलिये इनका वैराग्य दृढ़ नहीं, प्रबुद्ध व्यक्तियों के पद-चिन्हों का अनुसरण करने का नियम इस संसार में सर्वत्र हैं, आज तक तुम्हारा वैभव-विलास का जीवन रहा, उसका अनुकरण यह लोग करते रहे। जान-पान, रहन-सहन, व्यवहार-बर्ताव में इनने वह सब बुराइयाँ पाल ली हैं, जो राजघरानों में होती है इस स्थिति में क्या इन्हें छोड़कर अकेले तुम्हें दीक्षा दी जा सकती हैं।”

नहीं महाराज! श्रेमा ने संक्षिप्त उत्तर दिया। तो फिर यह भी आवश्यक है कि इन सबमें भी उसी तरह का विचार, विवेक और वैराग्य हुआ है। इसके लिये तुम्हें कुछ दिन इनके बीच रहकर इनके विकास की साधना कर-पड़ेगी। जब तुम यह दूसरा चरण भी पूरा कर लोगों, तब दीक्षा की पात्र बनोगी।

क्षेमा उस दिन से भटकते हुए लोगों की ज्ञान-दान देने में जुट गई। कई वर्षों तक समाज-सेवा से जब उनका वैराग्य दृढ़ हो गया, तब भगवान् बुद्ध ने दीक्षा भी दी और आत्म-कल्याण की साधना में प्रवेश भी कराया।


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