पौराणिक कथा-गाथा :- - कवष की ऋषि-पद प्राप्ति

December 1969

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दिन ढला और उसके साथ ही कवष की सम्पूर्ण आशायें भी ढल गई। प्रातःकाल जब वह धूत-क्रीड़ा के लिये बैठा था तब उसकी उमंगों का कोई ठिकाना न था। दिन भर जन्म और मृत्यु की तरह हार और जीत के ज्वार भाटे आते रहे और कवष उनमें कागज को नाव की तरह तिरता-उतराता रहा, अन्ततः पासे ऐसे पलटे कि नाव झकझोरे पर झकझोरे खाती चली गईं। सूर्यदेव के अस्त होने की तरह वह भी पराजय के अनन्त सागर में डूब गई।

हारे हुये जुआरी की दैन्य दशा भी उपमा दी जाती है, फिर जो सचमुच अपना सब कुछ जुये में ही हार गया हो उसकी दीनता का तो कहना ही क्या? कवष के लिये आज का दिन और दिनों की तरह न था। पहले भी वह कई बार हारा था पर तब तक उसके पास साधनों का अभाव नहीं हुआ था। आज तो उसने अपनी सम्पत्ति के नाम का एक तिनका तक न छोड़ा था। जुआरी की क्या दुर्दशा होती है, यह उस दिन कोई कवष से पूछता तो वह सम्भवतः सबसे अच्छा और प्रभावोत्पादक आस्थान प्रस्तुत करता पर स घड़ी तो उसके लिये यह संसार उस श्मशान की तरह लग रहा था, जिसमें पच्चीसों शव एक साथ दाह किये गये हों और अब वहाँ श्रृंगाल, भेड़ियों के अतिरिक्त और कोई भी शेष न रहा हो।

कवष ऐसी व्यक्ति मनःस्थिति में चर की ओर चला तो मार्ग में ही उसे अपना पुत्र पड़ा मिल गया। ज्वर से पीड़ित किशोर बालक को औषधि मिलना तो दूर आज लगातार पांचवें दिन आध पाव दूध के भी दर्शन न हुये थे। इस आशा से वह वन की और चला था कि वहाँ आमला और गूलरें मिल जायेंगी, उनसे वह अपना पेट भी भर लेगा। भूखी बहन और पीड़िता माँ के लिये भी कुछ फल लेता आयेगा, किन्तु टूटी काया ने साथ ही नहीं ही नहीं दिया। गाँव से बाहर आते ही बालक मूर्छित भूमि पर गिर पड़ा।

कवष को पुत्र की करुणाजनक स्थिति का उतना दुःख नहीं हुआ, जितना अपने अधःपतित जीवन का पश्चाताप। पंतप्त हृदय से बच्चे को गोद में उठाकर कवष घर पहुँचा तो वह घर जो आज से दम वर्ष पूर्व सावन के खेतों की तरह लहलहाता दृष्टिगोचर होता था, ज्येष्ठ की तपती नहीं रह जाती। ज्वाला ही ज्वाला, तपन ही तपन। पत्नी हाहाकार से भर गया।

उसने एक मिट्टी के फूटे बर्तन से थोड़ा जल लिया। चुल्लू भरी, आँख मूँदी ऐसा लगा उसने कुछ कहा और वह जब धरती में छिड़क दिया। धरती माता के पाँव स्पर्श कर कवष ने अपनी भूखी पत्नी-पुत्र और पुत्री को जल पिलाया उन्हें लिटाकर एक ओर चुपचाप निकल गया।

कवष बदल गया। दूसरे दिन सारे गाँव में चर्चा फैल गई- ‘‘कवष का हृदय परिवर्तन हो गया हैं।” इसके बाद उसे कभी किसी ने जुआ खेलते, माँस खाते न देखा।

ईलूष का पुत्र कवष शूद्र योनि में जन्मा था। उसमें वह सभी दुर्गुण थे, जिनके कारण उस युग में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न व्यक्ति को भी शूद्र ठहरा कर उसे बहिष्कृत कर दिया जाता था। यह भी था कि जो इस प्रकार अन्त्यज श्रेणी से अपने आपको उठाकर श्रेष्ठ आचरण करने लगते थे, वह शूद्र भी उच्च वर्ण में ले लिये जाते थे।

कवष ने निश्चय कर लिया, अब वह सारे बुरे कर्म धो डालेगा और अपनी आत्मा को निर्मल बनाकर एक सद्गृहस्थ का जीवन जियेगा। उसके इस संकल्प में इतनी शक्ति थी कि वेदव्यास को उसके इस निर्णय को ऋग्वेद की ऋचा के रूप में स्थान देना पड़ा। अच्छाई का अनुकरण करने वाले हजारों लोग होते हैं। कवष के इस आदर्श ने सैकड़ों लोगों के हृदय बदल डाले। उसके इस आदर्श का सर्वत्र सम्मान किया गया।

अप्रतिम सामाजिक सम्मान और ऋग्वेद के ऋषिमण्डल में अपना स्थान बनाकर कवष को वैसे ही अहंकार हो गया, जिस प्रकार वर्षा ऋतु में छोटे-छोटे नाले-नदों का रूप धारण कर इतराते हुए, वह निकलते हैं। ऋषियों ने एक परम्परा बनाई थी कि जो अपनी निष्ठा को अधिकतम बलवान् सिद्ध कर सकता हैं और अन्तिम सिद्धि प्राप्ति तक साधना करने का साहस व्यक्ति कर सकता हैं, सन्त और ऋषि बनने का अधिकारी भी वही बन सकता हैं। उत्तराधिकार में पाया हुआ धन और बिना परिश्रम पाया हुआ सम्मान व्यक्ति के अहंकार को बढ़ाकर उसके पतन का ही कारण बनता हैं, इसलिये दूरदर्शी ऋषि भला ऐसी झूठी सिद्धि और सम्मान का क्यों महत्व देते? कवष ने नेको का मार्ग अपनाया था, उसके लिये सराहा जाना उचित ही नहीं अनिवार्य भी था, सामाजिक जीवन में अच्छाइयों की बेल सम्मान और सराहना के जल से ही बढ़ती और फलती फूलती है, सो उसे सम्मान दिया जाना ठीक ही था पर इतना नहीं कि वह आत्म-कल्याण और लोक-हित सम्पादन के लिये अपनी अब तक की योग्यता को पर्याप्त मानकर पाँडित्य का झूठा प्रदर्शन करने लगता।

कवष के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। उन दिनों कुरुक्षेत्र में भगवती सरस्वती के पावन तट पर विशाल यज्ञ का आयोजन हुआ। कवष बिना किसी प्रकार का निमन्त्रण पाये, उसमें सम्मिलित हुआ। ऋषिगण इस व्यवहार से बहुत क्षुब्ध हुये। उन्होंने कवष को बाहर निकलवा दिया। और रेतीली मरु-भूमि में छोड़ देने का दण्ड भी दिया।

इतना करने के बाद भी ऋषियों ने कवष का संरक्षण नहीं छोड़ा। वे जानते थे, कवष में साधना के बीच अंकुरित हो उठे हैं, यदि उसे तप करने का अवसर मिले तो वह बीज बढ़कर वृक्ष का रूप ले सकते हैं। यह दंड जान-बूझ कर इसी उद्देश्य से दिया गया था। तप कराने के पीछे ऋषियों का उद्देश्य आत्म-प्रतिभा का विकास कराना ही होता था।

कवष अन्त्यज जीवन के कष्ट पहले ही भुगत चुका था, उस पर उसे जुये ने और पीड़ित एवं प्रताड़ित किया था। किसी तरह साहस करके उसने उससे मुक्ति ली और सभ्य एवं सुसंस्कृत जीवन-यापन करना प्रारम्भ किया। इस तरह उसने वर्षों से खोये हुये पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय सम्मान को अर्जित किया था पर अब पुनः उसकी स्थिति राजगद्दी पर बैठाकर राज्य से निकाल दिये गये राजा की सी थी, जो न तो अपने आप पर गर्व कर सकता था, न भविष्य के प्रति आशावान्। कवष की आँखों के आगे एक बार फिर उस दिन का सा अन्धकार छा गया, जिस दिन वह अपना सर्वस्व जुये के दाँव पर हार कर एक-एक कौड़ी का भिखारी बन गया था।

अर्न्तदहित कवष के आगे अब इसके अतिरिक्त कोई चारा न रह गया कि वह अपनी व्यथा परमपिता परमात्मा के समक्ष खोलकर रख दे। आज कई दिनों से उसे तृषा व्याकुल कर रही थी। पूर्ण निष्कलुष हृदय के कवष ने भगवान् वरुण देव की प्रार्थना की, इन्द्र और मरुद्गणों से सहायता की याचना की। भौतिक दृष्टि से वहाँ कोई न साधन था न कोई सहायक ऐसे समय ईश्वरीय शक्तियों के अतिरिक्त उसकी आवाज को सुनता भी कौन?

आज उसकी आत्मा पूर्ण निष्कलुष थी। मन का मन घुल चुका था। अभिमान निकल कर जा चुका था अपनी भावनायें और ईश्वरीय सत्ता के अतिरिक्त उस मरुस्थल में कवष को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। भावनायें उमड़ती ही नई, आत्म-शक्ति का प्रकाश विस्तार लेता ही गया और वरुण देव, मरुद्गण एवं भगवान् इन्द्र को तब झुकना ही पड़ा। वे अपने प्रिय उपासक की सहायतार्थ मेघ लेकर दौड़े। देखते ही देखते मरुस्थल में सघन बादल छा गये। वर्षा होने लगी। कवष की तृषा के साथ उसका ब्रह्म-दर्शन का भाव भी परितृप्त हो गया।

ऋषि जो अब तक यह दृश्य दूर से देख रहे थे, पास आये। कवष अपने देह-भाव को त्याग कर आत्म-जगत् में प्रवेश कर गया वह अब तक भावावेश में ही था। ऋषियों ने उसे “उठो महर्षि कवष” कहकर हृदय से लगा लिया। और एक बार फिर एक शूद्र के ऋषि बन जाने की बात सारे देश में गूँज गई।


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