ब्राजील में एक ऐसी चींटी पाई जाती है, जो कृषि पर निर्भर रहती हैं। सामान्य चींटियों की तरह यह दूसरों की कसाई पर निर्भर नहीं रहती। यह कुछ पेड़ों से गिरी पर टूटी हुई पत्तियाँ ले आती है और उन्हें अपने बिल में रखती हैं। किसान जिस तरह अपने खेतों को अच्छी तरह जोतता, घास-फूस निकाल कर बीज बोता है, उसी प्रकार वह चींटियां भी इन पत्तों का भली प्रकार निरीक्षण करती हैं, कहीं कोई कीड़ा या रोगाणु तो नहीं हैं। यदि पत्ता अच्छा हुआ तो वे इसमें एक विशेष प्रकार की फफँद बोती हैं। वेदा की हुई इस फफूँद से ही इनका आहार चलता हैं। चींटी में स्वावलम्बन के साथ गुण-दोष विवेचन की क्षमता आश्चर्यजनक है।
यदि कोई चींटी बँटवारा करना चाहे तो जिम्मेदार चींटियाँ उसके लिये नया बिल ढूँढ़ देती हैं। उसे विदा करते समय उन्हें यह ध्यान रहता है कि कहीं इसे आहार के अभाव में भूखों न मरना पड़े इसलिये ये फफूँद का एक कण भी उसे देती हैं। इस कण को लेकर चींटी दूसरे बिल में जाती हैं और वहाँ अपनी कृषि जमार सुखपूर्वक रहने लगती है। तुच्छ जीव में मनुष्य से बढ़क विवेक भी कम विस्मय बोध नहीं।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक फ्रिश के शिष्य डा0 लिंडावर ने मधु-मक्खियों का बहुत दिन तक अध्ययन किया और बताया कि उनकी प्रवृत्तियाँ मानव-जीवन की गतिविधियों से विलक्षण साम्य रखती हैं। जिस प्रकार घर के मुखिया के आदेश पर घर के सब काम व्यवस्थापूर्वक चलते हैं, उसी प्रकार मधु-मक्खियों में एक रानी मक्खी होती है, छत्ते की सारी व्यवस्था का भार उस पर ही होता है। छत्ते के सब निवासी उसके निर्देशों का अच्छी प्रकार पालन करते हैं। इन मक्खियों में विभाग बँटे हुए होते हैं, कुछ मजदूर होती हैं, जिनका काम छत्ते को बनाना, टूट-फूट जोड़ना, छत्ते में कोई मर जाये, उसे वहाँ से ले जाकर श्मशान तक पहुँचाना यह सब काम मजदूर करते हैं। कुछ सैनिक मक्खियाँ होती हैं, इनका काम है रानी मक्खी और छत्ते की बाहरी आक्रमणकारियों से सुरक्षा। मनुष्यों की फौज में कुछ सिपाही कायर और डरपोक हो सकते हैं, किन्तु यह दुश्मन के संघर्ष में अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करतीं। ये उनसे मृत्यु पर्यन्त लड़ती हैं। कुछ मक्खियों का काम फूलों से पराग लाना और उससे शहद बनाना होता हैं। इस तरह जिसको जो काम मिला होता है, वह वही काम दत्त-चित्त करती रहती हैं।
छत्ते में दूसरी रानी मक्खी पैदा हो जाती हैं तो उसके लिये परिवार न्यारा कर दिया जाता है। रानी मक्खी अपने लिये उपयुक्त स्थान की खोज में चलती है पर वह एक दिन में नहीं मिल जाता। रानी मूर्ख नहीं होती, वह यद्यपि नन्हा-सा कोट ही हैं। कुछ समय के लिये वह किसी पेड़ पर बसेरा डाल लेती है और अपने सभासदों को आदेश देती है कि वे ऐसा स्थान ढूँढ़े जहाँ ज की समुचित मात्रा उपलब्ध हो, पराग के लिये फूल और घना जंगल हो तथा स्थान ऐसा हो जहाँ छत्ते की नींव जमाने में दिक्कत न हो। आमतौर पर यह जहाँ पहले छत्ते लगे होते हैं, उन स्थानों पर ही नया छत्ता बनाते हैं, उससे मोम की दीवार वृक्ष से चिपकाने में सुविधा रहती हैं।
स्थान के चुनाव में कई बार इनमें मतभेद हो जाता हैं। यदि दो-चार मक्खियों में ही विरोध रहे तब तो वे स्वयं अपनी भूल मानकर छत्ते में मिल जाती हैं पर यदि मतभेद इतना हो कि दो दलों में विभक्त होने की स्थिति आ जाये तो रानी मक्खी अपनी समझदारी से काम लेती है, वह जिस पक्ष को उचित मानती है, उसे लेकर नये स्थान में चली जाती हैं और बात में अपने विशेष दूत भेजकर अपने बिछुड़े साथियों को भी वहाँ बुला लेती हैं। इस स्थिति में विरोधी पक्ष चुपचाप चला आता है और अपने दल में सम्मिलित होकर काम करने लगता है। डाक्टर लिण्ड्वर के अनुसार मक्खियों में इससे भी विलक्षण मानसिक गतिविधियाँ चलती हों तो कोई आश्चर्य नहीं।
यह दो उदाहरण इसलिये दिये गये है, कि मनुष्य यह बुद्धिमान ले कि न्याय, नीति, ईमानदारी, विकास आदि की बौद्धिक क्षमतायें केवल उसे ही मिली हैं, जीवों में जीव अति सभ्य संसार में रहने का दावा कर बैठें तो उनकी बात को असत्य सिद्ध करना कठिन हो सकता हैं। यह उदाहरण इस बात के प्रतीक है कि संसार के सम्पूर्ण जीवों में व्याप्त आत्म-चेतना एक ही हैं। सबमें एक ही प्रकार की न्यूनाधिक नई-नई प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। मनुष्य केवल इसलिये अपवाद है कि उसमें प्रत्येक जीवन की सम्भावनायें विलक्षण रूप से भरी गई है। वह अपने आप में एक स्वतंत्र सत्ता है, इसलिये उसे यह सोचने, समझने का अवसर मिलता है कि हमारे जन्म का उद्देश्य क्या हैं और उस उद्देश्य को कैसे सार्थक किया जा सकता हैं।
प्रो0 जे0 बी0 एस॰ हास्डेन का कथन है-”एक लाख वर्ष पूर्व कोई ऐसा एकाकी मनुष्य का जोड़ा था, जो अकेला एक ही था, उसी के आज के सम्पूर्ण मनुष्यों का आविर्भाव हुआ हैं। हम सब मनुष्य दूर के रिश्ते में सगे भाई हैं और सगे भाइयों जैसा व्यवहार ही हमें करना चाहिये।” और आगे तत्त्व-दर्शन की ओर बढ़ें तो डा0 हाल्डेने के ही मतानुसार आज से लगभग 7000 लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी में कोई एक प्राणी था, चाहे तो वह प्रोटोजोआ (एक कोशीय जंतु) था या फिर कोई आत्म-चेतना सम्पन्न प्राणी, उसी से सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणियों का आविर्भाव हुआ। इस तरह में मात्र मनुष्यों में ही भाई चारे का सम्बन्ध नहीं देखना चाहिये वरन् सम्पूर्ण प्राणियों में एक ही आत्म-चेतना का परिष्कार देखना चाहिये। सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति मैत्री, करुणा और आत्म-भाव तत्त्व-दर्शन का वह सिद्धान्त है, जो हमें शीघ्र ही ईश्वर से मिला देता है, जब सब अपने ही भाई-बन्धु, नाती-पोते, पिता-बाबा, माँ-बहन, बुआ-भतीजे है तो किसके साथ छल-कपट, अनीति और अन्याय किया जाये।
अपने परिवार के लिये हम अपनी आजीविका का 99 प्रतिशत भाग लगाते हैं और थोड़ा-सा अपने लिये रखते हैं, क्योंकि हमें अपने प्रियजनों की सेवा से सुख सन्तोष मिलता है। यदि इस दायरे को बढ़ाकर हम प्राणिमात्र के प्रति आत्म-भावना और समता का विस्तार कर ले और उसे समष्टि भाव से निष्ठापूर्वक पूरा करते रहें तो यह निश्चय है, कि हमारे सुख-सन्तोष और आनन्द की सीमा भी बड़ी हुई होगी। प्रेम का पूरा आनन्द एक दो के साथ प्रेम-भाव से ही नहीं मिल सकता, उसका जितना अधिक विस्तार कर सकते हैं, अर्थात् घृणास्पद से भी यदि प्रेम करने का स्वभाव विकसित कर पायें तो अपने जीवन में बहुत अधिक आनन्द और आल्हाद की अनुभूति कर सकते हैं।
इस विचारणा का आधार यह है कि सम्पूर्ण जीव जगत् एक ब्रह्म से स्फुरित हुआ है। इसी का नाम तत्त्वदर्शन हैं। सनातन धर्म और संस्कृति का विकास इस तत्त्वदर्शन से विकसित होने के कारण ही वह अकाट्य हैं। हमारे भारतीय धर्म ग्रन्थ कहते हैं-”प्रारम्भ में एक हूँ बहुत हो जाऊँ। उसकी इस इच्छा शक्ति ही का विस्तार आप-नेक ब्रह्मांड और अनेक जीव-जन्तुओं में दिखाई देता हैं। सम्पूर्ण विविधता में भी वह एक ही अविनाशी अक्षर तत्त्व समाया हुआ है- ‘बहुनामह एक मैव संसार में जो कुछ दिखाई देता है, उस सबमें एक मैं हीं चेतन रूप से स्यात हूँ। जब हम इस बात को समझ लेते हैं, तब हमें प्राणियों के साथ व्यवहार के लिये ही एक नया दृष्टिकोण नहीं मिलता वरन् मनुष्य जीवन की वर्तमान गति-विधियों को भी हम दोष पूर्ण देखने लगते हैं और यह मानने को विवश होते हैं कि हमारे जीवन में जो अभाव, अशक्ति और अज्ञान है, उसे भौतिक पदार्थों से नहीं दूर किया जा सकता वरन् आत्मा को विराट्-परमात्मा बना कर ही हम कष्टों से मुक्ति और सच्चे आनन्द की उपलब्धि कर सकते हैं।
योगवाशिष्ठ, गीता आदि ग्रन्थों में सम्पूर्ण जीवों में एक ही शक्ति और चेतन सत्ता के विद्यमान होने के वैज्ञानिक रहस्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला हैं। पैंगलोपनिषत् में ब्रह्म के द्वारा सृष्टि रचना पर बड़ा सूक्ष्म प्रकाश डाला गया है और बताया गया है कि एक ही तत्त्व किस प्रकार विभिन्न जीव और पदार्थों का अस्तित्व धारण करता चला गया। पैंगल ऋषि महर्षि याज्ञवल्क्य के पास जाते हैं और तप करते हैं। 12 वर्ष तक तप करने से जब उनकी आत्मा शुद्ध हो जाती हैं, तब वे महर्षि से कहते हैं-’परम रहस्य कैवल्य मनुब्रूहीति पप्रच्छ भगवन् आप मुझे परम रहस्यकारी ‘कैवल्य’ का उपदेश करें। महर्षि याज्ञवल्क्य ने उन्हें बताया सृष्टि के आदि में केवल सत् ही था। वहीं नित्य, मुक्त, अविकारी, सत्य, ज्ञान, आनन्द से पूर्ण सनातन एक मात्र अद्वितीय ब्रह्म है, उसी से लाल, द्वयेत कृष्णा, गुण वाली प्रकृति उत्पन्न हुई और यह चराचर जगत् बन गया।
शेर बहुत हिंसक जन्तु हैं, किन्तु समझ, सौंदर्य और वात्सल्य जैसे गुण उसमें भी विद्यमान हैं। वे अपने पारिवारिक जीवन में बहुत निष्ठावान होते हैं। आजन्म गृहस्थ जीवन की मर्यादाओं का पालन करते हैं और सभी पत्नियाँ एक बार प्रणय सूत्र में आबद्ध होने के पश्चात् अपने पति के साथ सम्बद्ध बनी रहती हैं। शेर और शेरनी का कदाचित ही कभी तलाक होता हैं। बच्चों को वे दोनों मिल-जुलकर बड़े लाड़-चाव से पालते हैं। प्रसिद्ध जीव शास्त्री श्री सलीम आलिम ने अनेक जीवों के अध्ययन के बाद बताया कि ब्रिटेन में पाये जाने वाले अधिकाँश छोटी पक्षी एक पत्नी व्रत जीवन-यापन करते हैं। यूरोप में पाया जाने वाला स्टारलिंग जो एक प्रकार से मैना ही आकृति का पक्षी है, दिसम्बर से महीने में इसके विनाश के दिन होते हैं, कई बार तो आधे स्टारलिंग तक मर जाते हैं, उनमें से कईयों के जोड़े चुके होते हैं। इस आघात हो सहन करना और प्रेम विहीन जीवन-यापन करना स्टारलिंग के लिये कठिन पड़ता हैं, इन दिनों उनका विलखना देखकर भावुक मनुष्यों से भी ऊँची इनकी मनःस्थिति प्रतीत होती हैं।
हमारे देश में पाये जाने वाला बनया पक्षी दाम्पत्य-जीवन में निष्ठावान् नहीं रहता और इस भूल का दण्ड भुगतता है। वह कई-कई विवाह करके अपने घोंसले में बहुधा कई-कई धर्म-पत्नियाँ ले आता हैं और फिर उसकी पत्नियों में परस्पर द्वेष-भाव, मार-पीट, काट-कलह होती हैं, उस मार-घाड् में उसकी भी काफी मरम्मत होती रहती हैं और क्या अपनी भूल पर पछताता रहता हैं।
यह उदाहरण जहाँ यह बताते हैं कि मनुष्य जैसी बुद्धि शीलता, चतुरता संसार के सब प्राणियों में होने से ये सब एक ही जाति के जीव हैं, सब आत्मा के अंश है और उन्हें एक ही सार्वभौम नियम का पालन कर सुखी रहने और तोड़ने पर दुःख पाने को बाध्य होना पड़ता हैं।
डा0 जे0 बी0 हक्सले चिड़ियों के जीवन के अध्ययन में बड़ी रुचि रखते थे। एक विलायती पक्षी कमटी का विवरण देते हुए उन्होंने लिखा-”यह चिड़िया असन्त आगमन पर विवाह की तैयारी करती हैं। नर एक स्थान पर बैठकर गाना गाता हैं। वह पेड़ों की टहनियाँ आदि एकत्रित करके रखता हैं और यह दिखाने का प्रयत्न करता हैं, मानो उसे उपार्जन, संरक्षण एवं गृहस्थ-निर्माण की कला की समुचित उपलब्ध हैं। मनुष्य को भी तो विवाह से पूर्व अपनी क्षमता की ऐसी ही परीक्षा कर लेनी चाहिये, यदि उसमें उतनी योग्यता न हो तो विवाह की जिम्मेदारी बहन करने का दुस्साहस नहीं ही करना चाहिये।
मनुष्य मादा कीमटो नर के पास के गुजरती है और उसकी योग्यता परख लेती है, तभी उसका प्रणय स्वीकार करती हैं। कई दिन मादा परखती रहती है, कहीं उसे झूठे प्रलोभन तो नहीं जा रहे हैं। जब पूरा विश्वास हो जाता हैं, तभी नर-मादा दोनों मिलकर घोंसला बनाते की तैयारी करते हैं। अण्डे सेने का काम भी दोनों मिल-जुल कर बारी-बारी करते हैं।
ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जो यह बताते हैं कि संसार में भी विविधता है शरीर और प्रकृति की हैं। चेतना सबमें एक है मनुष्य की यदि कुछ विशेषता है तो यही कि वह उसमें विवेक भी है और वह अपनी चेतना को समझने और उसे सम्पूर्ण प्राणियों की आत्म-चेतना के साथ जोड़ते हैं, यदि वह इस उद्देश्य को पूरा कर लेता है तो इसी नर शरीर से नारायण जैसी पूर्णता में परिणत सकता हैं।