आज से लगभग 44 वर्ष पूर्व हमारी गायत्री महापुरुषों की श्रृंखला-तपश्चर्या प्रारम्भ हुई और वह एक रस से लगातार 24 वर्ष तक यथा क्रम चलती रही। इनका प्रयोजन व्यक्तित्व को ऐसा निर्मस, प्रखर एवं सशक्त बनाना था- जिसके आधार पर कुछ महत्वपूर्ण कार्य अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए कर सकना सम्भव हो सके। आन्तरिक मलीनता और दुर्बलता ही जीवन को निस्तेज, निष्क्रिय और निरर्थक बनाती हैं। उसका निराकरण उपश्यर्चा से होता है। बलवान बनने के इच्छुक व्यायामशाला में, विद्वान बनने के इच्छुक पाठशाला में उपार्जन के इच्छुक कृषि, उद्योग, व्यवसाय, कला-कौशल आदि में मनोयोगपूर्वक कठोर श्रम साधना करते हैं।
हर दिशा में सफलता और प्रगति की उपलब्धि कठोर साधना पर निर्भर रही हैं, आध्यात्मिक प्रगति के लिए भी कर आत्म-बल सम्पादित करने के पथ पर चल पड़ने का क्रम बन गया। और वह यथावत् 24 वर्ष तक चलता रहा।
यों उपासना का सामान्य क्रम अभी भी जारी हैं पर उस 24 वर्ष की विशिष्ट तपश्चर्या का ही प्रभाव था कि लोक-यंक्तल के, नव-निर्माण के महान प्रयोजन में अपना कुछ महत्वपूर्ण योगदान सम्भव हो सका। पिछले बीस वर्षों में जितना रचनात्मक कार्य आध्यात्मिकता के आधार पर जनजागरण की दिशा में सम्भव हो सका, उसे अद्भुत और अनुपम ही कहा जा सकता हैं। आज उसका मूल्यांकन कठिन हैं। कुछ दिन रात जब अपने मिशन के कार्य और परिणाम का लेखा-जोखा तैयार किया जायेगा तो यह एक चमत्कार ही लगेगा कि एक साधन-हीन व्यक्ति के प्रयास इतने स्वल्पकाल में इतने व्यापक और इतने विशाल