सर्वोत्कृष्ट सम्पत्ति

December 1969

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कोटिकर्ण शोण का पदार्पण धर्म-मंच के लिये महान् शक्ति बनता। भगवान् बुद्ध के प्रभाव में आकर उन्होंने अनन्त जीवन की प्राप्ति की आवश्यकता समझी थी। लगन कुछ ऐसी लगी, वैराग्य कुछ ऐसा मचला कि कोटिकर्ण शोण अपना सम्पूर्ण वैभव त्यागकर परिव्राजक हो गया। एक समय था जब शोण के कानों में पहनी हुई बालियों का मूल्य ही एक करोड़ स्वर्ण मुद्राओं के बराबर होता था पर आज तो उसका कोपीन भी ग्रामीण बुनकरों द्वारा बुना हुआ मोटा खद्दर मात्र था। आत्मिक ज्ञान की पिपासा में महलों का राजकुमार आज दर-दर का भिखारी बना, भटक रहा था।

पर क्या इससे उनका सम्मान चला गया, शाँति तिरोहित हो गई, आनन्द नहीं रहा जीवन में? नहीं ऐसा नहीं हुआ। शोण जहाँ भी निकल जाते, एक समय वह आया जब लाखों लोगों की पलक पाँवड़े बिछ जातीं। सम्पूर्ण अवंतिका उन दिनों महान् सन्त शोण की चरण धूलि लेने के लिये लालायित रहा करती। यह था त्याग का प्रभाव, आत्मार्चना का वरदान।

कुररधर में विशाल सभा आयोजित की गई थी। भिक्षु कोटिकर्ण का उपदेश सुनने के लिये नगर के सम्पूर्ण नर-नारी खिचे चले आ रहे थे। देखते-देखते सभा भवन विशाल जनसमूह के सागर की भाँति लहराने लगा। धर्म के वास्तविक स्वरूप, आत्म-शोध की आवश्यकता, जन्म ओर मुक्ति के पुण्य-प्रसंगों पर शोण का प्राण पूर्ण शब्द प्रवाह लोगों को ऐसे सम्मोहित कर रहा था, जैसे रमणी कामातुरों को अपनी रूप सज्जा से आकर्षित करती है।

सभा-मण्डल में बौद्ध-श्राविका कात्यायनी भी बैठी हुई थी। धार्मिक ग्रन्थ उन्होंने पड़े थे पर आत्मिक सम्पदा पर जैसा अच्छा उपदेश कोटिकर्ण शोण कर रहे थे, वैसा अभिभाषण उनने पहले कभी नहीं सुना था। वाणी में उनका तप उनकी साधना और अगाध स्वाध्याय बोल रहा था। कात्यायनी ऐसी भाव-विभोर थी, जैसे कीट भृंग की मधुर गुञ्जार से विमोहित होकर अपना अस्तित्व भूल जाता हैं। वेणुनाद सुनकर सर्प लहराने लगता है। आत्मा का रस प्रवाह है ही ऐसा, जहाँ बहता हैं, वहाँ अमृत पेय का सा रसास्वादन कराता हैं। कात्यायती आत्म-विस्मृत बैठी शोण की वाणी का रस से रही थी।

सन्ध्या हो चली। दासी ने कहा- “स्वामित कर चलने का समय हो गया। प्रवचन अभी कुछ समय और चलेगा, रुकने में विलम्ब होगा।” कात्यायनी ने संक्षेप में कहा- “तू चल दीपक जमा दे मैं तो पूरा उपदेश सुनकर के ही उठूँगी?”

दासी घर मौटी। वहाँ पहुँचते ही वह यह देखकर घबड़ा गई कि भवन की पीठिका पर चोरों ने सेंध लगादी है। चोर घर की सारी सम्पत्ति बटोर रहे हैं, उनका सरदार बाहर खड़ा रखवाली कर रहा हैं। दासी उल्टे, पैरों सभा-भवन को लौटी। पीछे-पीछे सरदार भी- यह देखने चला आया, दासी आती कहाँ है।

दासी श्राविका कात्यायनी के पास पहुँची और कान में कहा- “स्वामिनी! घर में चोर आ गये है, सेंध काटकर सारा सोमान लिये जा रहे हैं। पर कात्यायनी ने जैसे कुछ सुना ही नहीं। वह तन्मय आत्म-विभोर उपदेश सुने चला जा रही थी।

दासी ने कन्धा पकड़ कर झकझोरा-”घर में चार घूमे हैं और आप उसकी कुछ चिंता भी नहीं कर रही। सारा धन ले जायेंगे वे।” से जाने दो, अरी वे आमषण तो नकली हैं, जो सर्वोत्कृष्ट सम्पत्ति है, वह यहाँ मिल रही हैं।

चोरी के सरदार ने यह सुना तो उसका हृदय धड़क गया। गृह-स्वामिनी को अपने आभूषणों से बढ़कर जिस सम्पत्ति से प्यार हो रहा है वह वस्तुतः साधारण सम्पत्ति न होगी। वह भी वहीं बैठ गया और जब सभा विसर्जित हुई तो वहाँ से उठकर जाने वालों में वह आखिरी व्यक्ति था। सेंध लगी थी पर एक क्षण भी घन की इच्छा सरदार को न हुई। वह भी उसी असली धन का पान में लग गया, जिसका रस कात्यायनी पी रही थी।


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