उपासना के साथ कामनायें न जोड़ें

April 1969

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ईश्वर की उपासना का वास्तविक प्रतिफल अन्तर में स्थायी सुख, शांति और संतोष की वृद्धि होना माना गया है। यदि ऐसा नहीं होता तो मानना होगा कि उपासना के स्वरूप में कोई कमी चल रही है।

यहाँ पर उपासना के स्वरूप से उपासना की विधि, उसकी सामग्री अथवा उसके स्थान आदि से नहीं है। उसका तारतम्य उस मनोभाव से है, जो उपासना के आगे-पीछे उपस्थित रहता है। उपासना में महत्व क्रिया-विधि उसकी सामग्री अथवा उसके स्थान आदि से नहीं है। उसका तात्पर्य उस मनोभाव से है, जो उपासना के आगे-पीछे उपस्थित रहता है। उपासना में महत्व क्रिया-विधि अथवा साधन सामग्री का नहीं है। महत्व है-भावना का। यदि उपासक की भावना ठीक उपासना के अनुरूप है तो निश्चय ही वह फलवती होगी। फल भावना के अधीन है, उपक्रम अथवा उपकरण के अधीन नहीं मन्दिर का एक पुजारी दोनों समय जीवन भर आरती-पूजा करता रहता है पर उसका उसे कोई प्रतिफल नहीं मिलता। उसके जीवन का स्तर वही बना रहता है। उसके मानसिक विकास में कोई प्रगति नहीं होती। उसकी अशान्ति, असंतोष और आत्मिक अभाव ज्यों-का-त्यों बना रहता है, जैसा कि वह पूजन-क्रिया में आने से पूर्व था।

एक पुजारी दस-बीस वर्ष और कभी-कभी आजीवन तक मन्दिर में पूजा आरती करता रहता है। किन्तु उसे उसका वह फल नहीं मिलता, जो उपासना के परिणाम स्वरूप मिलना चाहिये। इसका एक ही कारण है, वह यह कि उसकी उस क्रिया में वास्तविक उपासना की भावना नहीं होती। उसकी भावना मन्दिर के अधिकारियों की नौकरी करने की होती है। अस्तु वह नौकर मात्र ही रह जाता है। उपासक नहीं हो पाता।

इस बात को एक श्रमिक और एक पहलवान के उदाहरण से भी समझा जा सकता है। दोनों शारीरिक श्रम करते हैं। पसीना बहाते हैं, शारीरिक श्रम का प्रतिफल शारीरिक विकास ही होता है। पर मजदूर मेहनत करता-करता घिस जाता है। उसका शरीर क्षीण होता जाता है पर पहलवान उसी शारीरिक श्रम से शारीरिक विकास की ओर बढ़ता है। इसका एक मात्र कारण भावना के अंतर्गत निहित है। मजदूर जब मेहनत करता है, तब उसकी भावना आजीविका के लिये किसी की मजदूरी करने की रहती है और मल्ल जब व्यायाम के रूप में शारीरिक श्रम करता है वा उसकी भावना शारीरिक विकास की ओर प्रगति करने की रहती है। इसी भावना के कारण मजदूर का शरीर क्षीण होता है और पहलवान का विकसित।

इसी प्रकार न जाने कितने लोग अलस सुबह उठकर अपने काम-काज के लिये जाया करते हैं और अनेक उसी समय प्रातः भ्रमण अथवा वायु-सेवन के लिये जाते है। प्रातः काल का भ्रमण और वायु दोनों ही स्वास्थ्यप्रद होते हैं पर अपनी भावना के अनुसार पूर्व पक्ष के लोगों के मुख पर लाली और शरीर में स्फूर्ति बढ़ जाती है। इस प्रकार पता चलता है कि किसी क्रिया के फल का आधार उसमें निहित भावना ही है न कि वह क्रिया अथवा उससे सम्बन्धित उपकरण।

उपासना की जाये और आन्तरिक विकास न हो, आत्म-सुख आत्म-शांति और आत्म-संतोष में वृद्धि न हो यह सम्भव नहीं यदि ऐसा नहीं होता तो मानना होगा कि उसमें निहित भावना अनुरूपिनी नहीं, विरूपिनी है। अवश्य ही ऐसा असफल उपासक ईश्वर के सामीप्य अथवा उसके निहित फल की भावना नहीं रखता। उसके हृदय में कोई अन्यथा भावना ही चलती रहती है।

अधिकांश लोग जो उपासना के फल से वंचित रहा करते है, अपने मन में धन-सम्पत्ति आदि भौतिक लाभों की ही भावना रखते हैं। जिन उपलब्धियों का आधार बन्द प्रकार के भौतिक पुरुषार्थ हैं, उनको आध्यात्मिक आधार पर पाने की आशा उसी प्रकार से उपहासास्पद है, जिस प्रकार कोई आम के बीज बो कर संतरे की कामना करता है अथवा बम्बई की दशा में चलकर कलकत्ते पहुँचना चाहता है। भौतिक साधना का फल भौतिक और आध्यात्मिक साधना का फल आध्यात्मिक होगा, यह तो एक बड़ा ही स्थूल और निर्विवाद सत्य है।

भौतिक विभूतियों की कामना है तो उसके लिये भौतिक श्रम, पुरुषार्थ और अध्यवसाय किया जाना चाहिये। कार-रोजगार और शिल्प-साधना की जानी चाहिये और यदि आत्म-सुख आत्म-विकास आत्म-संतोष आत्म-विस्तार आत्म-दर्शन आदि आध्यात्मिक सम्पदाओं की कामना है तो आध्यात्मिक उपासना, आध्यात्मिक पुरुषार्थ चाहिये। इन दोनों भिन्न क्षेत्रों को एक दूसरे से मिलाना नहीं चाहिये। हाँ! इन दोनों को एक दूसरे का सहायक अवश्य बनाया जा सकता है।

आध्यात्मिक उपासना में यह भाव रखने में कोई हर्ज नहीं कि-हमें इस उपासना द्वारा वह शक्ति, बड़ा आत्मविश्वास और वह बुद्धि मिले, जिसके बल पर हम न्याय नीति और सदाचार द्वारा अपने भौतिक उद्योगों में सफल हो सकें। उपासना के फलस्वरूप भौतिक सम्पदाओं की स्थूल उपलब्धि की कामना करना असंगत है, उसके लिये शक्ति और क्षमता की याचना ही उचित है। ईश्वर की कृपा सूक्ष्म शक्तियों के ही रूप में होती है। स्थूल पदार्थों के रूप में नहीं।

तथापि भौतिक विभूतियों के लिये शक्ति याचना भी तभी उचित, संगत और अध्यात्मोचित होगी, जब साथ में यह भी भावना रहे कि आप उस उपलब्ध सम्पदा का उपयोग भी परमार्थ मार्ग में ही करेंगे। यदि आपकी सम्पदाओं का उद्देश्य स्वार्थ, भोग-विलास अथवा विषय-वासनाओं के साथ अहंकार तुष्टि की भावना से दूषित है तो भी उपासना द्वारा भौतिक सफलताओं के लिये शक्ति सम्बल के रूप में ईश्वरीय अनुकम्पा की याचना करना असंगत ही उठेगी और आपकी यह उपासना असफल चली जायेगी। अस्तु, उपासना की सफलता को मूर्तिमान् रूप में देखने में लिये भावनाओं के सम्बन्ध में बहुत ही सतर्क, सावधान तथा यथार्थपूर्ण रहना ही होगा।

फिर भी उपासना के साथ इन सब बातों को जोड़ना, घटना, उलझन और असमंजस से भरी मानसिक क्रियायें हैं। यदि उपासना जैसे पवित्र तथा पुनीत बात को इन सब बातों से सर्वथा पृथक ही रखा जाये तो अधिक मांगलिक होगा। उपासना का प्रयोजन तो मात्र आत्मा को परमात्मा के सान्निध्य में लाना ही है। जिस बात का लक्ष्य परमात्मा के सान्निध्य जैसी ऊँची वस्तुएँ हो उसके बीच में साँसारिक कामनाओं जैसी निम्न स्तर की बात को लाना अपनी अनधिकारिक पात्रता को सिद्ध करना ही है। यदि हम अपनी साँसारिक वितृष्णाओं, इन्द्रिय लिप्साओं और भौतिक कामनाओं को अमहत्व नहीं दे सकते और इन भवपाशों को धारण किये हुये ही परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त करना चाहेंगे तो यह किसी प्रकार समृद्ध हो सकता है, यह तो बड़े ही साधारण विचार की बात है।

ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त करना है, आत्मा को परमात्मा से योजित करना अभीष्ट है तो उपासना जैसे साधन और परमात्मा जैसे साध्य के बीच में किसी प्रकार की कामना जैसे व्यवधान को नहीं ही लाना होगा। यदि हमें सूर्य के दर्शन अपेक्षित है, दीपक का प्रकाश देखना है तो बीच के आवरण को हटाना ही होगा। यदि हम चाहते है कि परमात्मतत्त्व की आनन्दमयी धारा हमारी आत्मा में निर्झरित हो तो सारी कामनाओं का व्यवधान हटाना होगा अन्यथा उपासना से आकर्षित होकर आई हुई वह पावन धार बीच में अवस्थित कामनाओं के व्यवधान से टकरा कर इधर-उधर वह जायेगी और आत्मा उससे वंचित ही रह जायेगी।

सच्ची, उन्नत और आदर्श उपासना तो तभी होगी, जब हम सर्वथा निष्काम और निष्प्रयोजन ही रहें यहाँ तक कि परमात्मा की कृपा की भी कामना करें, इतनी उन्नत निष्काम उपासना से आत्मा न केवल परमात्मा तत्त्व के आनन्द की अधिकारी बनती है, बल्कि परमात्म रूप ही हो जाती है। आत्मा तो यों भी परमात्मा का ही रूप है। केवल जीव ने अपनी भौतिक वितृष्णाओं का आवरण डालकर उसे अपना स्वरूप भुला दिया है। वह असंगत आवरण हटाइये, आत्मा परमात्मा रूप हो जायेगी जो स्वयं आनन्द रूप परमात्म स्वरूप है, उस आत्मा के लिये परमात्मा की अनुकम्पा की याचना भी क्या। उपासना द्वारा आत्मा को उसका सत्य स्मरण कराइए, परमात्मा के समीप जाइये अर्थात् आत्मा में उस तत्त्व की अनुभूति कीजिये और देखिये कि आत्मा अपना स्वरूप पहचानने लगती है या नहीं।

इस स्मरण के लक्षण यह है कि जब कामनाओं की कमी, वासनाओं का तिरोधान, स्वार्थ का शमन और परमार्थ का विकास होने लगे, तब समझना चाहिये कि आत्मा में स्मरण के क्षण आने लगे हैं और जब उसको संसार के सारे प्राणी, संसार के सारे पदार्थ और संसार के सारे सुख-दुःख अपने और अपनी अनुभूतियाँ विदित होने लगे, तब जानना चाहिये कि आत्मा ने अपने सत्य स्वरूप की ओर यात्रा प्रारम्भ कर दी है और जब यही अनुभव विशाल से विशालतम होकर विराटता में विकसित हो जाये और यह निखिल, ब्रह्माण्ड अपने में और आत्मवत् इस निखिल ब्रह्माण्ड में अनुभूत होने लगे, शरीर, मन, चित्त, अहंकार, बुद्धि, विवेक के साथ इनकी सारी वृत्तियाँ विस्मृत होकर केवल आत्म ज्ञान-आत्म-ज्ञान ही शेष रह जाये, तब समझना चाहिये कि आत्मा अपने सत्य स्वरूप में आ गया है और अब शीघ्र ही मुक्त होकर वह परमात्मा में मिल कर उसी का रूप बन जायेगा।

यह उन्नत स्थिति, यह सत्य स्वरूप और यह साम्राज्य उपासना द्वारा सर्वथा सम्भव है। किन्तु इसके लिये समय और धैर्य के साथ सतत साधना की आवश्यकता है। थोड़ी-थोड़ी उपासना करते चलिये। एक-एक करके अपनी कामनाओं को गिराते और वासनाओं को छोड़ते चलिये। साधना पूरी होगी और सिद्धि स्वयं आ उपस्थित होगी। इस जन्म में नहीं अगले में और अगले में नहीं तो उसके बाद में। साधना की न तो कोई अवधि है और इतनी बड़ी उपलब्धि के लिये कोई भी कालावधि अधिक नहीं है।

मनुष्य जीवन अक्षय और अनन्त है। जल-बुलबुले की तरह यह शरीर न जाने कितनी बार बनता और बिगड़ता रहेगा पर अनादि जीवन का प्रवाह अनन्त रूप से योंहीं बहता चला जायेगा। महत्व शरीर का नहीं, महत्व है उसमें बन्दी आत्मा का जिसे उपासना, द्वारा मुक्त करना ही है और जो प्रयत्न द्वारा एक दिन मुक्त की भी जा सकती है।


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